क्या ड्रैगन से सीधे टकराने का समय आ गया है ?


चीन के ‘शर्मनाक पाखंड’ को उजागर करने के लिए अमरीका के राज्य सचिव माइक पोम्पेओ ने वह कहा है जिसे कहने में भारत हमेशा संकोच करता रहा है। पोम्पेओ ने कहा, ‘चीन अपने घर में लाखों मुस्लिमों को गिरफ्तार करता है और उन पर जुल्म करता है, वह इस बारे में कभी कुछ नहीं सोचता है। साथ ही वह विदेशी मुस्लिम आतंकियों जैसे मसूद अजहर को रक्षा कवच प्रदान करता है, यह अगर ‘शर्मनाक पाखंड’ नहीं है तो और क्या है?’
गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र में चार बार पाकिस्तान आधारित आतंकी संगठन जैश के सरगना मसूद अजहर को ग्लोबल आतंकी घोषित करने का प्रयास किया गया, लेकिन हर बार चीन ने अपने वीटो अधिकार का प्रयोग करते हुए इसे विफ ल कर दिया। इस बार चीन पर दबाव बनाने के लिए अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में मसूद अजहर मामले में चर्चा कराने की मांग रखी है। अमरीका की इस चाल से चीन पर दबाव बनेगा कि वह अजहर को बचाने के कारणों को सार्वजनिक करे।
अमरीका जो अपने कारणों से चीन पर दबाव बना रहा है, वह स्वागत योग्य है, खासकर इसलिए कि इससे भारत को भी लाभ होगा। लेकिन भारत को यह आशा नहीं करनी चाहिए कि अमरीका उसकी सारी जिम्मेदारी उठायेगा। यह सही है कि आज के सिकुड़ते ग्लोबल संसार में विभिन्न देश अपने अपने हितों को ध्यान में रखते हुए एक-दूसरे से सहयोग करते हैं, लेकिन यह सहयोग केवल व्यक्तिगत हितों को साधने की सीमा तक ही रहता है। इसलिए भारत के लिए जरूरी है कि वह उन माध्यमों की तलाश करे जिनके जरिये वह स्वयं चीन पर दबाव बना सके। 
अगर यह दावा किया जा रहा है कि बालाकोट स्ट्राइक इस तथ्य का सबूत है कि अतीत का मार्ग त्यागकर एक नया व बोल्ड भारत विकसित हुआ है जो अपने हितों की सुरक्षा के लिए ‘स्ट्राइक’ करने हेतु संकल्पबद्ध है, तो यही दृष्टिकोण चीन पर भी लागू करने की आवश्यकता है। भारत को अपना संकोच छोड़ना चाहिए और पाकिस्तानी आतंक को मदद करने के लिए चीन से सीधे लोहा लेना चाहिए। 1962 का युद्ध बहुत पुरानी बात हो गई है, उसके मनोविज्ञान में घुसे रहने से कोई लाभ नहीं होने जा रहा है। आज चीन को घेरने के लिए बहुत से मार्ग व अवसर हैं। चोट वहां की जाये जहां घाव के हरा होने की आशंका अधिक होती है। 
ताइवान से संबंधों में सुधार लाया जाये, चीन को दर्द होगा। उइगुरों के विरुद्ध जो अन्याय हो रहा है, उसका हर मंच पर विरोध किया जाये, चीन को दर्द होगा और साथ ही पाकिस्तानी अवाम में चीन के प्रति गुस्सा उत्पन्न होगा। अप्रवास में जो तिब्बती सरकार है, उसे फि र से समर्थन दिया जाये तो चीन में बेचैनी बढ़ेगी। क्वैड गतिविधियों को हरकत दी जाये, चीन को परेशानी होगी। चीन से आयात में बाधा उत्पन्न की जाये, आर्थिक मार की चोट बहुत गहरी लगती है। सुरक्षा आधार पर चीन के हावेई को 5 जी ट्रायल्स में हिस्सा न लेने दिया जाये, जोकि ऐसी चिंता है जो ग्लोबल स्तर पर उठी है। 
इन सब प्रयासों से चीन पर जबरदस्त दबाव बनाया जा सकता है, जिससे वह अजहर जैसे गलत मामलों में पाकिस्तान का समर्थन न करने के लिए मजबूर हो जायेगा। कहने का अर्थ यह है कि अगर भारत सीमा पार से आयतित आतंक पर विराम लगाने के संदर्भ में गंभीर है तो ड्रैगन से सीधे टकराने का समय आ गया है। यह टकराव कुछ अन्य कारणों से भी आवश्यक है। हाल ही में भारत ने एक टेस्ट किया जिसमें एक मिसाइल ने लो-अर्थ ऑर्बिट (लियो) में एक सैटेलाइट को नष्ट किया। यह आवश्यक रूप से एक टेक्नोलॉजिकल प्रदर्शन था, ठीक 1989 की अग्नि या 2006 के पहले बैलिस्टिक मिसाइल डिफेंस (बीएमडी) टेस्ट की तरह। टेक्नोलॉजिकल प्रदर्शन का अपना मूल्य होता है कि दुश्मनों में डर बैठ जाये, पर्यावरण भी अनावश्यक रूप से असंतुलित न हो और यह सस्ता भी होता है। 
लेकिन इस संदर्भ में मार्केटिंग कौशल (जैसा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रदर्शित किया) से यह भी हो जाता है कि दुश्मन डरने की बजाय सचेत हो जाता है और आपके अपने सिस्टम मैच्योर होने से पहले वह अपने सिस्टम विकसित कर लेता है। फि र टेक्नोलॉजिकल प्रदर्शन की उस समय उद्देश्य पूर्ति नहीं हो पाती जब आपका पड़ोसी पाकिस्तान जैसा पागल हो और उसे चीन का अंध समर्थन प्राप्त हो। गौरतलब है कि 1950 व 1960 के दशकों में भारत के सिविल परमाणु कार्यक्रम से भयभीत होने की बजाय पाकिस्तान ने भारत के 1974 के परमाणु टेस्ट से बहुत पहले अपना मिलिट्री परमाणु कार्यक्रम आरंभ कर दिया था। इसी तरह जब 1989 में भारत ने अग्नि का टेक्नोलॉजिकल प्रदर्शन किया तो पाकिस्तान को 1991 में चीन से एम-11 मिसाइल मिल गये, एम-9 निर्मित करने की फैक्ट्री के साथ, जो प्रयोग करने के लिए तैयार थे, जबकि भारत उसके बाद मिसाइल तैनात करने की स्थिति में आया। 
फि र जब भारत ने 1998 में परमाणु हथियार टेस्ट किये तो पाकिस्तान कुछ ही सप्ताह के भीतर पहले से ही टेस्ट किये गये चीनी बम के साथ तैयार था। इसलिए इस बात पर आश्चर्य नहीं करना चाहिए अगर भारत के ए-सैट टेक्नोलॉजिकल प्रदर्शन के बाद ऐसा ही कुछ पाकिस्तान में भी हो। लियो सैटेलाइट को नष्ट करने वाली टेक्नोलॉजी तब कोई खास जटिल नहीं रह जाती, जब यह पाकिस्तान के ‘बड़े भाई’ चीन के पास मौजूद हो। चीन उसे भारत को दबाव में लाने के लिए आसानी से दे सकता है। चीन के पास टेस्टेड एससी-19 मिसाइल है जिसमें दोनों बीएमडी सिस्टम और सैटेलाइट नष्ट करने की क्षमता है। यह स्थिति भारत के लिए सहज नहीं है, जिसकी ऑर्बिट में 94 सेटैलाइट हैं, जबकि तुलनात्मक दृष्टि से पाकिस्तान के पास सिर्फ  छह सैटेलाइट हैं।
तो भारत की समस्या सिर्फ  यही नहीं है कि अजहर के मामले में चीन पाकिस्तान का समर्थन कर रहा है, बल्कि असल मुद्दा यह है कि चीन पाकिस्तान को परमाणु व मिसाइल टेक्नोलॉजी से मजबूत कर रहा है, जिससे भारत के पास पाकिस्तान को नियंत्रित करने के लिए परम्परागत युद्ध का विकल्प नहीं बचा है, नतीजतन पाकिस्तान पुलवामा जैसी अपनी ओछी हरकतों से बाज नहीं आ रहा है। इसलिए पाकिस्तान को नियंत्रित करने के लिए जरूरी है कि पहले ड्रैगन यानी चीन को राजनयिक व आर्थिक हथियारों से काबू किया जाये।           
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर