फिर कंधे पर आ बैठा है रोजगार का वैताल 

लोकसभा चुनाव में रोजगार के मुद्दे के वैताल को राजनीतिक पार्टियों ने पांच साल के लिए एक बार फिर कंधे पर बैठा लिया है । अब यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि आने वाली सरकार राजा विक्रमादित्य की भूमिका किस तरह निभा पाती है। उनके चुनावी घोषणा-पत्र के अनुसार अभी तक पार्टियों में देश के युवाओं को लुभाने के लिए केवल इतना भर कहा है, रोजगार ! रोजगार!! और रोजगार!!! वह कहां से आएगा? किस हाल में होगा? आर्टिफि शियल इंटेलिजेंस के तेज विस्तार और घटती नौकरियों के जिम्मेदार ऑटोमेशन से कैसे निपटा जाएगा। सरकारें और निजी क्षेत्रों की क्या भूमिकाएं होंगी। इत्यादि पर कोई विशेष फोकस नहीं किया गया है। सिर्फ  नौकरी देने के वादे का जुमला उछाल दिया गया है। बेरोजगारी के गर्म तवे पर चंद बूंदें साबित होने वाले आंकड़े बताकर अपनी पीठ थपथपा ली गई है । चुनाव मैदान में ताल ठोंकने वाली सत्तारूढ़ और विपक्षी पार्टियां दशकों से दो लकीरों पर चलती आयी हैं। एक लकीर विभिन्न सरकारी महकमों में रिक्तियों को भरने की बनी हुई है, जबकि दूसरी स्वरोजगार को लेकर है। सरकार को हमेशा असफ लता दोनों में मिली है। कभी नौकरियों के बदलते स्वरूप, कटौतियां और आरक्षण की वजह से, तो कभी अव्यवस्थित माहौल और असंगठित क्षेत्र की अधिकता के कारण से। दोनों स्तर पर सरकारें अभी तक विफ ल ही साबित हुई हैं। जबकि राजनीतिक पार्टियां वादा निभाने से चूकती रही हैं। नतीजा रोजगार का बेताल हर बार डाल पर जा बैठता है । नौकरियां सृजन की बात कही जाती है, लेकिन उसका ढांचा कभी नहीं बन पाया । बेरोजगारों के साथ-साथ सरकारों की नजर सरकारी नौकरियों पर टिकी होती है, जबकि एक बहुत बड़ा वर्ग निजी क्षेत्रों में नौकरियां करता है। उस लिहाज से न तो सरकार और न ही कंपनियों की तरफ  से नौकरी की रिक्तियों एवं नए जॉब बनने के आंकड़े आते हैं। आज तक किसी ने तीसरी लकीर खींचने की पहल नहीं की है, ताकि नौकरियों के बदलाव, नियुक्तियों के तौर-तरीके, क्षेत्रवार जरूरत, नौकरी में सुरक्षा-सुविधा और सृजन के सिलसिले में आने वाली बाधाओं का पता चल सके । उद्योग मंडल सीआईआई -भारतीय औद्योगिक परिसंघ के अनुसार हर साल बड़ी संख्या में आने वाले शिक्षित युवाओं के लिए रोजगार सृजन बड़ी चुनौती है  यह और भी बड़ा और भयावह होने वाला है, क्योंकि इस समय के आठ से 16 की उम्र वाले करीब 30 करोड़ बच्चे जब 10 साल के बाद रोजगार मांगेंगे। सीआईआई के अध्यक्ष राकेश भारती मित्तल का कहना है कि प्रौद्योगिकी तेजी से बदल रहा है। यह बदलाव हर पांच साल में देखने को मिल रहा है। इसके लिए उद्योगों और शिक्षाविदों को मिलकर इस आधार पर भविष्य की योजना बनानी चाहिए । इस स्तर से नई सरकार के सामने कैसी तैयारियां की जानी चाहिए इसे लेकर किसी दल के पास न कोई फ्लो चार्ट है और न वे इसकी बुनियादी समझ रखते हैं। अब एक आशंका पर गौर करें जो आटोमेशन से नौकरियों पर मंडराते खतरे के संबंध में है। इसे लेकर वैश्विक चिंता बनी हुई है और भारत में इस वजह से मौजूदा नौकरियों पर भी खतरा पैदा हो गया है । अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) द्वारा जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में बीते 45 सालों में बेरोगारी सबसे उच्चतम स्तर पर पहुंच गई है । हाथ से किये जाने वाले काम की 51.8 फीसदी एक्टिविटी मशीनों की मदद से की जा सकती हैं । रोबोटिक ऑटोमेशन से कम कुशलता वाली नौकरियां और असेंबलिंग पर सबसे अधिक असर पड़ने की आशंका है। इस वजह से बड़े पैमाने पर नौकरियों में होने वाली कटौतियों और छंटनी से इन्कार नहीं किया जा सकता है । आईएलओ द्वारा जारी की गई रिपोर्ट के अनुसार निर्माण और खुदरा क्षेत्र के अतिरिक्त डाटा कलेक्शन एवं प्रोसेसिंग जैसे क्षेत्रों में ओटोमेशन का सबसे अधिक असर दिख सकता है । महिलाओं द्वारा किए जाने वाले दिहाड़ी आधारित निर्माण के काम इसकी चपेट में सबसे अधिक आएंगे । इस समय 66 फीसदी कंपनियां तीन साल पहले की तुलना में नए स्तर के कौशल वाले कर्मचारियों की तलाश कर रही हैं। उन्हें काम के अनुसार मनचाहे कौशल कामगार नहीं मिल पा रहे हैं । यह गजब का विरोधाभास है कि यहां एक तरफ  से रोजगार का संकट है, जबकि दूसरी तरफ रोजगार लायक कामगार नहीं मिल रहे हैं । इसकी मुख्य वजह देश की शिक्षा प्रणाली है, जो तकनीक और कौशल के क्षेत्र में आने वाले बदलावों के अनुरूप खुद को नहीं ढाल पाई है। इसके साथ ही पुराने कर्मचारियों को उपयुक्त प्रशिक्षण की व्यवस्था नहीं होने से वैसे लोग नई तकनीक और जरूरतों के मुताबिक खरा नहीं उतर पा रहे हैं । बीते चार दशकों में जबसे तकनीक के विकास में तेजी आयी है तब से किसी सरकार ने रोजगार की कमी को इस नजरिये से नहीं देखा है । राजनीतिक दलों के लिए बेरोजगारों के बढ़ते आंकड़े नौकरी देने का चुनावी मुद्दा भर बनकर रह गए हैं । बीस साल पहले की एनडीए सरकार हो या फिर दो पारी तक राज करने वाली यूपीए की सरकार और उसके बाद भारी समर्थन से बनी एनडीए सरकार, सभी ने तकनीकी बदलाव के दौर से गुजरते हुए रोजगार के क्षेत्र में आए बदलावों की अनदेखी ही की। नतीजा सेंटर ऑफ  मानिटरिंग इंडियन इकोनोमी की रिपोर्ट के अनुसार बीते साल 1.10 करोड़ नौकरियां कम हुई हैं । यह हाल तब है जब वर्ष 2014 में एनडीए सरकार हर साल दो करोड़ नौकरियां पैदा करने के वादे के साथ सत्ता में आई थी। सवाल यह उठता है कि आखिर इसका समाधान कैसे निकले। ऑटोमेशन में एक और बड़ा बदलाव इंटरनेट के 5 जी नेटवर्क के साथ भी आने वाला है । इसके आते ही विभिन्न क्षेत्रों में आर्टिफि शियल इंटेलिजेंस के साधनों के रूप में इंटरनेट ऑफ थिंग्स का प्रहार नौकरियों पर ही होगा । इसका असर हर क्षेत्र में दिखेगा। चुनावी घोषण-पत्र में इसकी चर्चा क्यों नहीं की गई है, निजी कंपनियों में नौकरियां मुहैया करवाने का कोई खाका क्यों नहीं खींचा गया है, जबकि सरकारी कामकाज आउटसोर्सिंग के जरिए उन्हीं के द्वारा करवाए जाने हैं ।

—इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर