जनता को भी दें अलादीन का कोई चिराग

भारत सरकार की ओर से यह संदेश तो देश को दिया जा रहा है कि अब गरीबी रेखा से नीचे रहकर सरक-सिसक कर ज़िदगी जीने वालों की संख्या में कमी आई है अर्थात् अब देश में गरीब तो हैं पर गरीबी रेखा के नीचे थोड़े लोग हैं। ये थोड़े लोग भी करोड़़ों में हैं। कभी यह समाचार मिलता है कि देश की विकास दर में वृद्धि हुई और कभी-कभी आंकड़े गिरावट दिखा देते हैं। पिछले अनेक वर्षों में जो जानकारी संभवत: कभी नहीं दी गई वह अब मिली है। विश्वस्त सूत्रों से ही देश को यह बताया गया है कि वर्ष 2014 के बाद 153 वर्तमान सांसदों की औसत संपत्ति में 142 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है, जो प्रति सांसद औसतन 13.32 करोड़ रुपये रही है। इलैक्शन वॉच और एसोसिएशन आफ डैमोक्रेटिक रिफार्म्स ए.डी.आर. के अनुसार 153 सांसदों की सूची में शत्रुघ्न सिन्हा, पिनाकी मिश्रा और सुप्रिया सुले शीर्ष पर हैं। इस मामले में शीर्ष दस सांसदों में शिरोमणि अकाली दल की हरसिमरत कौर बादल छठे स्थान पर हैं और भाजपा के वरुण गांधी दसवें स्थान पर हैं। वरुण ने 2009 में अपनी संपत्ति 4 करोड़ रुपये बताई थी, जो 2014 में बढ़कर 35 करोड़ रुपये हो गई। वैसे आज तक यह सुना नहीं गया कि श्री वरु ण गांधी कौन सा व्यापार करते अथवा उद्योग चलाते हैं। हमारे देश के बहुत से सांसद करोड़पति हैं। अब तो अरबपति भी हो गए। सभी जानते हैं कि आज संसद तो क्या नगर निगमों और पंचायतों का चुनाव लड़ना भी बिना धन बल के लगभग असंभव है। आश्चर्य है कि जब सड़कों पर लगाए गए होर्डिंग्स, बैनर, यूनिपोल और प्रचार सामग्री ही प्रति प्रत्याशी लाखों रुपये की रहती है, शराब दिल खोलकर पिलाई जाती है, नोटों की वर्षा भी मतदाताओं पर की जाती है तब चुनाव आयोग क्यों नहीं देख पाता कि चुनाव निश्चित सीमा में किया गया अथवा धन बरसाया गया। आश्चर्य तब भी होता है जब देश में चुनाव के बाद केवल गिने-चुने प्रत्याशियों पर ही निश्चित सीमा से ज्यादा खर्च करने का दोष दिखाया जाता है। हिंदुस्तान का एक आश्चर्य और भी है कि कोई साधारण व्यक्ति अथवा दूसरे, तीसरे दर्जे का सरकारी कर्मचारी मकान बना ले, कार ले आए अथवा बच्चों की शादी पर कुछ ज्यादा खर्च करे तो आयकर अधिकारियों की टेढ़ी निगाह उन पर हो जाती है, लेकिन चुनाव किस धन से लड़ा जाता है, चुनावों के पश्चात् विजयी विधायकों और सांसदों का धन संपत्ति विस्तार किस गति से हो जाता है, इस ओर ध्यान देने का साहस संभवत: ये अधिकारी नहीं कर पाते। भारत देश में पिछले लगभग चार दशकों से चुनाव गरीबी हटाने के नाम पर लड़ा जा रहा है। सच्चाई यह है कि गरीब और गरीब हो गया, पर अमीर अमीर होता जा रहा है। किसी भी देश की आर्थिक स्थिति के लिए आदर्श यह कहा जाता था कि देश के सभी नागरिकों की आय में एक से दस से ज्यादा का अंतर नहीं होना चाहिए, पर अब तो अंतर हजार गुणा हो गया है। देश के आम आदमी की गरीबी तो कम नहीं हुई, लेकिन देश के धनियों को अधिक धनी बनाने का वातावरण अघोषित रूप से ही देश में बन चुका है। यह ठीक है कि वर्तमान केंद्र सरकार ने जो परिवार बे-घर हैं जिनके पास कोई छत नहीं, उनको छत देने का प्रयास किया है, पर सवा अरब लोगों के देश में यह प्रयास अभी बहुत थोड़ा है। सरकारों से शिकायत यह रहती है कि जो लोग राज सत्ता प्राप्त कर लेते हैं अथवा राजनीतिक दलों के मुखिया बन जाते हैं उन पर नकेल कभी नहीं डाली गई। यह अवश्य है कि जब चुनाव नजदीक आ जाते हैं तो राजनीतिक विपक्ष को नियंत्रित करने के लिए उनकी बेनामी संपत्ति पर नाम लिखने का प्रयास हो जाता है। आज तक बहुत थोड़े ही प्रत्याशी ऐसे हैं जो चुनाव आयोग को सही जानकारी देते हैं। मेरा तो इतना ही कहना है कि अगर धन बढ़ाने का कोई गुप्त मंत्र हमारे इन सांसदों और राजनेताओं के पास है तो वे इसका सदुपयोग जनहित में क्यों नहीं करते? जिन नेताओं की अकूत संपत्ति है, जो जन सेवक होने का दावा करते हुए संसद में पहुंच जाते हैं, उनसे यह उस क्षेत्र के मतदाताओं को पूछना चाहिए कि गरीबी जनता की क्यों नहीं दूर हुई? क्या यह अमीर बने सांसद हिम्मत से कह सकेंगे कि उनके मतदाताओं में से कभी कोई भूख से नहीं मरा। किसी ने कज़र् के बोझ तले दबे आत्महत्या नहीं की। कोई फुटपाथ पर सोने को विवश गर्मी और सर्दी के कारण मौत के मुुंह में नहीं गया। उनके क्षेत्र के किसी भी व्यक्ति की उपचार के अभाव में मृत्यु नहीं हुई और कोई भी बच्चा गरीबी के कारण शिक्षा से वंचित नहीं रहा। इन धनकुबेरों से यह भी प्रश्न होना चाहिए कि पांच वर्षों में क्षेत्र के विकास के लिए सरकारी बीस करोड़ की ग्रांट का कितना भाग गरीबों की ज़िंदगी में खुशहाली लाने के लिए खर्च किया गया। प्रश्न यह बनता है कि क्यों मनरेगा का लाभ हर मजदूर तक पहुंचा अथवा राजनीतिक गुटबाजी की दलदल में फंस गया? प्रश्न आयकर विभाग वालों से भी है। उनकी कलम वहां तक क्यों नहीं पहुंच पाती जहां से ये सांसद और नेता पांच वर्षों में करोड़ों रुपये की संपत्ति बना लेते और बढ़ा लेते हैं। वैसे कौन नहीं जानता कि राजनीति अब सेवा नहीं, संसद में सेवा के नाम पर पहुंचने वाले अपनों के लिए मेवा कमाते हैं और लगभग सभी राजनीतिक दलों के लोग दूरदर्शी नहीं रह जाते। सत्ता बांटने के लिए उन्हें अपने परिवार से कोई बाहर दिखाई नहीं देता। लोकतंत्र में मौन लोगों को ही तोड़ना पड़ेगा अन्यथा जनता का राज्य न जनता के लिए होगा, न जनता के द्वारा होगा।