घातक हो सकता है पुरुष वर्चस्व 

प्रत्येक पुरुष की एक स्वाभाविक सी इच्छा होती है कि जब दिन भर के पचड़ों (बिजनेस हो या किसी भी स्तर की नौकरी) के बाद जब घर लौट कर आये तो उसे घर का माहौल मन को सुकून दे। परन्तु यह इच्छा तभी पूरी हो सकती है जब वह खुद घर में ऐसा माहौल बनाने में पूर्णता सहयोग करे। स्त्री-पुरुष संबंधों की निर्मिति कुछ इस तरह होती है कि एक भी पक्ष दूसरे पक्ष का दबाव नहीं झेल सकता। कथाकार ‘मैत्रेयी प्रथा’ ने विवाहेतर संबंधों को जायज़-नाजायज़ की कसौटी पर कुछ इस तरह परखा कि पुरुष और स्त्री के मानदंडों में भेद को समझा जाये। वे अलग-अलग है। वे स्त्रियों के संबंध को प्रेमपरक मान पर उचित ठहराती है और पतियों के संबंध को व्याभिचार से जोड़ कर देखती है और यह मानदंड चिरसतात्मक व्यवस्था की वजह से सम्भव है। जबकि नैतिक दृष्टि से दोनों का पथ-विपथ होना उस बंधन को झटका देता है जिससे वे दोनों बंधे हैं जबकि उन्होंने विवाहेतर संबंधों के बावजूद पति के घर में रहने तथा उसके संसाधनों का इस्तेमाल का अधिकार क्षेत्र का एक हिस्सा माना है। जे.एस. मिल ने इन संबंधों पर ज़बरदस्ती को कहीं भी नहीं लादा। कहते हैं, ‘पुरुष-स्त्रियों से मात्र आज्ञा पालन की इच्छा नहीं रखते। वे उनसे भावनाएं भी चाहते हैं। कुछ बहुत कठोर उपवादी को छोड़कर पुरुष अपनी स्त्रियों को एक बाध्य गुलाम की तरह नहीं, बल्कि एक इच्छुक गुलाम की तरह रखना चाहते हैं। सिर्फ गुलाम नहीं ही नहीं, पसंदीदा गुलाम।’ दुनिया में संबंध केवल भोगने के लिए नहीं होते, स्नेह, उदारता और संबंधों की गरिमा का सम्मान रखना होता है। इसे केवल सिद्धांत के तौर पर नहीं अपितु व्यवहार में उतारना होता है। नहीं तो एक गांव, एक कुंठा बनी रहती है जो कड़वाहट पैदा करती है। जबकि प्रेम और समानता के संबंध में कुछ ‘लेने की जगह कुछ कुछ देने’ की इच्छा प्रबल रहती है। जितनी यह इच्छा मज़बूत होगी संबंधों का सौन्दर्य उतना ही महकेगा। इस पर दोनों की सहमति भी अनिवार्य है। अकेला एक पक्ष इसका निर्वाह व्यवहारिक ज़मीन पर देर तक नहीं कर सकता। वैश्वीकरण का मूलाधार आम सहमति है। ऐसी गलतफहमियों से उपभोक्तावाद शिखर पर है। ऐसे में यह माहौल पैदा हुआ कि हर आदमी शिकार और शिकार दोनों एक ही वक्त में हो रहा है। इसने हमारी अपेक्षाएं बदल दी हैं। वहीं कुछ हम अपने साथ परिवार को लेकर आते हैं। तब मूल्यों की गिरावट हमें पतन तक ले जाती है। सरमायेदारी समाज में प्रेम और विवाह परख काल से गुज़रते हैं। सभी संबंध अपनी गरिमा खो रहे होते हैं। बच्चे कैरियर के लिए पहले पढ़ाई को लेकर मां-बाप से दूर रहते हैं फिर नौकरी के कारण मां-बाप को छोड़ कर विदेश चले जाना पसंद करते हैं कई बार। मां-बाप, पत्नी सब छोड़ कर भी, जोकि अपनी किस्मत पर छोड़ दिये जाते हैं। परन्तु परिवार की सुरक्षा, बच्चों की ठीक समुचित ढंग से परवरिश विवाह संबंधों की सफलता पर ही निर्भर करती है, जिस पर पति-पत्नी दोनों का संबंध समन्वय पर आधारित होना चाहिए। असहमतियों के रहते भी सांझापन की तलाश ज़रूरी है जो औचित्य के आधार ही सम्भव है।