नेताओं की बेलगाम लफ्फाज़ी

संविधान से मिला अभिव्यक्ति का अधिकार, दूसरों के विचारों का भी सम्मान, शालीनता और गरिमा लोकतांत्रिक समाज के आधार स्तम्भ कहे जाते हैं। क्या आज की राजनीति संविधान के अनुरूप चलती दिखाई देती है। जैसी भाषा आज मंचों से बोली जा रही है, इसे लोकतंत्र के किस पैमाने पर पूरी उतरती कहा जा सकता है? आज स्वतंत्रता प्राप्ति को 70 वर्षों से अधिक समय हो चुका है और इतनी ही आयु हमारे लोकतंत्र की है। राजनेताओं की बेलगाम लफ्फाज़ी क्या जग हंसाई का कारण नहीं बनती? हम बड़े गर्व से कहते हैं कि संसार से सबसे बड़ी डेमोक्रेसी भारत में मौजूद है। क्या खुल्लमखुल्ला व्यक्तिगत आक्षेपों के चलते चुनाव अभियान का स्तर गिरा महसूस नहीं हो रहा? चुनाव में जो देखने को मिल रहा है, उस पर साधारण व्यक्ति ताली तो पीट सकता है, परन्तु चिंतन नहीं कर सकता। ऐसा लगता है कि अब सत्ता प्राप्ति ही राजनीतिक पार्टियों की प्राण वायु बन गई है, जब तक एक दल सत्तासीन होता है तब तक वह देश के लोगों को तारणहार नज़र आता है, उनकी योजनाओं पर लोग गद्गद होते हैं, क्योंकि प्रचार-प्रसार से वह सभी योजनाएं समाज के उत्थान के लिए कारगर के रूप में स्वीकार्य होती हैं। लेकिन वही दल सत्ता से महरूम हो जाता है, तब ऐसे नेताओं की सांसें फूलने लगती हैं और भाषा बिगड़ जाती है और वही योजनाएं धड़ाम से धरती पर गिरती नज़र आती हैं और बहानेबाज़ी में असफलता को बेलगाम जबान और ओछी हरकतों से कलंकित करने लग जाते हैं। हम यहां किसी एक दल पर यह आरोप नहीं लगा रहे, जबकि हमाम में सभी नंगे हैं। कश्मीर से कन्याकुमारी तक किसी भी राजनीतिक पार्टी के कार्यकलापों पर नज़र दौड़ाएं तो आप भी ऐसा ही अनुभव करेंगे। सन् 2019 के संसदीय चुनाव की प्रक्रिया आरम्भ हो चुकी है। शालीनता की हदें पार करती लड़ाई शुरू हो चुकी है। बोली लच्छेदार शैली चमकदार ऐसे-ऐसे शब्द प्रयोग किए जा रहे हैं कि जन-साधारण भी जिन्हें प्रयोग करने से झिझके। सर्जिकल स्ट्राईक और बालाकोट में आतंकवाद के दुर्ग एयर सर्जिकल  स्ट्राईक में सेना जीती, एकता जीती, विश्वास जीता, बलिदान जीता परन्तु देश के विपक्षी दल इस जीत को पराजय सिद्ध करने पर जुटे हुए हैं। दहशतगर्दी की अंतिम सांसें अटक रही हैं। घाटी में देश के विरुद्ध फैलाए जाते बदअमनी के हथकंडे धीरे-धीरे समाप्त हो रहे हैं। यह बात भी कुछ विपक्ष के नेताओं को चैन नहीं लेने दे रही। हर हाल में वे देश में बेचैनी और अराजकता का वातावरण बनाए रखने के लिए शासकों पर तोहमतें और इल्ज़ाम बाज़ी की झड़ी लगाते देखे जा रहे हैं। ऐसे-ऐसे शब्द देश के बड़े नेताओं को सुनने पड़ रहे हैं, जिनमें जूते और चोर इत्यादि असभ्य शब्द समाज को शर्मसार कर रहे हैं। उफ यह कैसी सियासी जबान आज के दौर में सुनने को मिल रही है। प्रोफैसर हेराल्ड लास्की ने कहा था —‘भाषा फूहड़ और गलत तब लगती है जब हमारे विचार मूर्खों जैसे हों, लेकिन भाषा का फूहड़पन हमारे विचारों को भी आसानी से बेवकूफाना बना देता है।’ शायद इसीलिए बड़े राजनीतिक दलों के अलावा प्रादेशिक सियासी पार्टियों के नेतागण ऐसे स्तरहीन शब्द का धड़ल्ले से प्रयोग कर रहे हैं। उनके द्वारा दी गई उपाधियां और गालियां लिखने को भी मन नहीं चाहता। आने वाली नसलों को हम क्या यही शब्द देकर जायेंगे? क्या ऐसी सियासत हमारे देश के नेताओं को शोभा देगी? राहुल गांधी, दिग्विजय सिंह, मणिशंकर अय्यर, शशि थरूर की बात छोड़िए भाजपा में भी ऐसे मुंहफट नेता हैं, जो सत्ता में बैठे हुए भी इतनी निचले स्तर की बात कर जाते हैं कि लोग हैरान रह जाते हैं। दीदी ममता बैनर्जी, बहन मायावती, चन्द्र बाबू नायडू, अखिलेश यादव, फारूक अब्दुल्ला, मोहतरमा महबूबा मुफ्ती, केजरीवाल और किस-किस का नाम लें। एक-दूसरे को नीचा दिखाने में कोई भी पीछे नहीं। मज़े की बात तो यह है कि इतने घटिया शब्दों का प्रयोग करने को भी यह नेतागण समाज और देश के हित में मानते हैं। किसी भी भाषा में अलंकार या रूपक का प्रयोग सुनने-पढ़ने वालों के जेहन में उसकी एक तस्वीर खींचनी होती है, जिसके बारे में अलंकार का प्रयोग होता है परन्तु आज की राजनीति की भाषा या तो बोलने वालों के अंदर एक-दूसरे के बारे में छिपी नफरत को उजागर करती है या फिर नेताओं के शब्दकोष से सलीके वाले अल्फाज़ गायब हो चुके हैं। नेताओं का चाल चलन ऐसा बन चुका है कि जो अपमान सूचक शब्द कह देते हैं, बाद में उन्हें सफाई में कहना पड़ता है कि मैंने ऐसा तो नहीं कहा था अथवा उनके शब्द तोड़-मरोड़ कर पेश किए गए। सारा गुस्सा मीडिया पर उछाल देते हैं। हम कुछ ऐसे नेताओं को जानते हैं जो पहले एक दल में बैठकर दूसरे दल के नेताओं को भरपूर गालियां देते हैं, परन्तु थोड़े दिनों के पश्चात् जब वह दल-बदली पर विवश हो जाते हैं तब वे न घर के रहते हैं न घाट के। मान-मनोबल में जुटे सारी राजनीतिक आयु कट जाती है। देखते रहिये अलग-अलग दलों के नेता एक-दूसरे के छिलके उतारने में लगे रहेंगे। चुनावी जंग में प्रयोग की जा रही भाषा का जो स्वरूप दिखाई दे रहा है, वह न तो राजनीति के लिए शुभ है, न ही देश के लिए, अन्यथा आने वाली नई पीढ़ी कह उठेगी कि सियासत की बात अहले सियासत जाने हमारा पैगाम मुहब्बत है जहां तक पहुंचे।