ज़िंदगी से निराश क्यों हो रहे हैं हम?

मौत ज़िंदगी से जुड़ा वह एहसास है जो न कभी जहन से जुदा होता है और न ही हम कभी उसे भूल पाते हैं। जीने की सरगम में झूमते वह यदा-कदा हमें अपने अस्तित्व का एहसास करवा ही जाती है। फिर भी ज़िंदगी इतनी हसीन है कि हमें मौत एक झूठा फलसफा ही लगती है। कहते हैं न कि जीना है तो जिंदादिली से जियो मगर आज ज़िंदगी के पथरीले रास्तों पर जीना चाहे थोड़ा मुश्किल हो गया है मगर वो जीना ही क्या जिसमें कठिनाई न आए, परन्तु कुछ लोग इन कठिनाइयों से इतना डर जाते हैं, दिमागी तौर पर यह डर उनमें ऐसा घर कर जाता है कि वह जीने की बजाय मौत को गले लगाना ही बेहतर समझते हैं। हर साल पूरे विश्व में लगभग 8 लाख लोग आत्महत्या करते हैं, जिनमें से 1 लाख 35 हज़ार यानि 17 प्रतिशत केवल भारत के लोग आत्महत्या करते हैं। यहां यह भी जान लेना आवश्यक है कि इनमें 2403 लोग पेपरों में फेल होने से, 23746 बीमारी की वजह से, 582 कैंसर से, 3647 ड्रग्स, 490 समाज में नमोशी के कारण, 4168 प्यार में असफल होने, 1699 गरीबी, 2207 बेरोज़गारी, 28602 पारिवारिक परेशानियों के चलते, 333 तलाक से, 476 शादीशुदा ज़िंदगी से खफा होकर, 2308 कज़र् की वजह से आत्महत्या कर लेते हैं। बड़े शर्म की बात है कि इन आंकड़ों में 80 प्रतिशत लोग पढ़े-लिखे ही होते हैं।  माना कि पैसे के बिना नहीं जिया जा सकता मगर ज़िंदा रहने के लिए पैसा ही सब कुछ तो नहीं होता। ज़िंदगी में प्यार व मोहब्बत का अपना अहम फलसफा है, फेल होकर दोबारा आगे बढ़ना भी एक कला है।  

-ट्विंकलदीप कौर सैणी