कांग्रेस के लिए वायनाड के खतरे बड़े हैं

वायनाड को तमिल और मलयालम के शब्द नाड का विस्तार माना जाता है जिसका अर्थ होता है धान की खेती। किंतु इस समय तो केरल का वायनाड राजनीति का चर्चित खेत बन गया है। राहुल गांधी का अमेठी के साथ वायनाड से चुनाव लड़ने के कारण यह सर्वाधिक हॉट सीटों में से एक हो चुका है। साफ  है कि एडक्कल गुफाओं, झरनों एवं अन्य पर्यटक स्थलों के कारण प्रसिद्ध वायनाड चुनाव तक मुख्य चर्चा का केन्द्र बना रहेगा। चूंकि यहां की कुछ चोटियां समूह समुद्र तल से 2100 मीटर तक ऊंची हैं, इसलिए यह ट्रैकिंग के लिए भी लोकप्रिय है। राहुल गांधी के उम्मीदवार बनने के बाद यह तत्काल राजनीतिक ट्रैकिंग का क्षेत्र भी बन गया है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एके एंटोनी के अनुसार पिछले कई हफ्तों से मांग उठ रही थी कि राहुल दक्षिण भारत से भी चुनाव लड़ें। केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक से नेताओं के ऐसे बयान आए जिनमें राहुल गांधी को अपने राज्य से चुनाव लड़ने का आमंत्रण दिया गया था। ऐसे आमंत्रणों को सार्वजनिक कराने के पीछे मुख्यत: पार्टियों की राजनीतिक रणनीति की भूमिका सर्वोपरि होती है। इससे एक वातावरण बनाकर घोषणा की जाती है ताकि लगे कि वाकई उनके नेता की इतनी लोकप्रियता है कि कई राज्य एक साथ उनको चुनाव लड़ने के लिए अपने यहां बुला रहे हैं। 
कांग्रेस वायनाड के चुनाव के पीछे इसके सांस्कृतिक और भौगोलिक महत्व को उल्लिखित करती है। वास्तव में केरल का भाग होते हुए भी वायनाड सीट की सीमा एक ओर कर्नाटक के मैसूर और चामराजनगर तथा दूसरी ओर तमिलनाडु के नीलगिरि क्षेत्र से लगती है। पार्टी मानती है  कि राहुल का यहां से चुनाव लड़ना एक तरह से पूरे दक्षिण भारत का प्रतिनिधित्व होगा। कांग्रेस का तर्क मान लेते हैं। किंतु वायनाड ही क्यों का जवाब इतने से नहीं मिलता। एक बड़ा कारण तो यही है कि कांग्रेस के लिए यह सुरक्षित सीट है। परिसीमन के बाद 2009 में वायनाड अस्तित्व में आया था और तब से दोनों बार उसकी ही विजय हुई। 2009 में भाजपा को 3.85 प्रतिशत एवं 2014 में 8.83 प्रतिशत मत मिला। यह 2009 में चौथे एवं 2014 में तीसरे स्थान पर थी। हालांकि केरल में भाजपा का जनाधार इस बीच काफी विस्तृत हुआ है। बावजूद वह अपने गठबंधन के साथ इस सीट से बहुत बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद नहीं कर सकती। इसलिए हम इसकी चर्चा यहीं छोड़ते हैं। तो सुरक्षित सीट एक प्रमुख कारण लगता है। लेकिन यह सुरक्षित है क्यों वस्तुत: मुख्य बात वहां के सामाजिक समीकरण की है। दरअसल, वायनाड संसदीय क्षेत्र में वायनाड एवं मल्लपुरम की तीन-तीन विधानसभा क्षेत्र और कोझिकोड की एक विधानसभा सीट आती है। मल्लपुरम की आबादी में 70.04 प्रतिशत मुस्लिम एवं 27.5 प्रतिशत हिन्दू हैं। यहां 2 प्रतिशत ईसाई भी हैं। वायनाड लोकसभा क्षेत्र में 56 प्रतिशत मुसलमान एवं 44 प्रतिशत हिन्दू एवं ईसाई हैं। कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा यानी यूडीएफ  में इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग भी शामिल है जिसका यहां अच्छा प्रभाव है। कहने का तात्पर्य यह कि यहां की मुस्लिम आबादी राहुल के लिए इसे सुरक्षित सीट बना देती है। 
इस सच को समझने के बाद आप कांग्रेस की रणनीति को लेकर सही निष्कर्ष निकाल सकते हैं। केरल में लोकतांत्रिक मोर्चा एवं वाममोर्चा दोनों के बीच मुस्लिम मतों को लेकर प्रतिस्पर्धा रही है। वहां भाजपा के मज़बूत न होने के कारण संघ के कार्यकर्ताओं के बड़े वर्ग का मत भी इन दोनों मोर्चों के उस घटक की ओर जाता था जो मुसलमान उम्मीदवारों को हरा सकते थे। अब स्थिति बदली है। पिछले सालों में भाजपा यहां मज़बूत हुई है। हिन्दुओं के बड़े तबके का आकर्षण यहां भाजपा बनी है। सबरीमाला पर भाजपा के आक्रामक होने का कारण था कि पराजय का राष्ट्रीय स्तर पर मुख्य कारण पार्टी की हिन्दू विरोधी एवं मुस्लिमपरस्त छवि बन जाना था। इसका लाभ भाजपा को मिला। इसे खत्म करने के लिए राहुल गांधी की निष्ठावान हिन्दू की छवि निर्माण करने की सुनियोजित कोशिशें हुईं हैं। पिछले वर्ष तीन राज्यों में विजय के बाद उसे शायद इस रणनीति के सफ ल होने का अहसास भी हुआ है। इसीलिए प्रियंका वाड्रा को भी उसी रास्ते पर चलाया जा रहा है। किंतु कांग्रेस के हिन्दुत्व की सीमा है। वह चुनावों में मुस्लिम मत खिसक जाने का जोखिम भी नहीं उठाना चाहती। चुनाव आते-आते केरल से उसे अपना आवरण बदलना पड़ रहा है। आंध्र एवं तेलांगना में भी उसकी यही दशा है। तो राहुल मुस्लिम बहुल क्षेत्र से खड़ा होकर यह संदेश देने की भी कोशिश कर रहे हैं कि कांग्रेस ने उनका साथ छोड़ा नहीं है। इस तरह राहुल का वायनाड से लड़ना कांग्रेस के हिन्दुत्व एवं उसके परंपरागत सेक्यूलरवाद, जिसका व्यवहार में अर्थ मुस्लिम परस्तता हो गया था, के बीच झूलने का परिचायक है। 
भाजपा ने इस पहलू को मुद्दा बना भी दिया है। इसलिए वायनाड राहुल जीत तो सकते हैं, क्योंकि वहां मुसलमान वाममोर्चा की जगह उनको प्राथमिकता देंगे। मुसलमानों को भाजपा के खिलाफ  राष्ट्रीय स्तर पर राहुल गांधी ही दिखाई देंगे। किंतु ऐसा न हो कि दूसरे राज्यों में इसके विपरीत संदेश चले जाएं। भाजपा ने इसे जिस तरह मुद्दा बनाया है उसमें इसकी संभावना बढ़ रही है। दो नावों की सवारी हमेशा खतरनाक होती है। वाम मोर्चा के नेताओं ने राहुल एवं कांग्रेस के इस रवैये पर जितना तीखा हमला बोला है उसके मायने भी हैं। वे प्रश्न उठा रहे हैं कि कांग्रेस को अगर भाजपा के खिलाफ  लड़ना है तो उसे यह सीट चुनने की क्या ज़रूरत थी, यहां तो वह हमसे लड़ रही है, इसलिए हम राहुल को हराने के लिए काम करेंगे। नरेन्द्र मोदी और भाजपा के खिलाफ  एकजुटता का रोमांस तो पहले ही खत्म हो रहा था, केरल से उसका एक कर्कश स्वर और जुड़ गया है। यह विपक्ष के बिखराव ही नहीं, अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए एक-दूसरे के विरुद्ध ही भिड़ जाने का संदेश देने वाला कदम है। इसका कुछ न कुछ मनोवैज्ञानिक असर तो देश भर के मतदाताओं पर होगा। राहुल गांधी और कांग्रेस के रणनीतिकारों को न भूलना चाहिए कि सोनिया गांधी को भी 1999 में अमेठी के अलावा कर्नाटक में कांग्रेस के लिए तब तक सबसे सुरक्षित सीट बेल्लाड़ी से लड़ाया गया था। वे वहां से जीतीं और कर्नाटक में उसे 18 सीटें भी मिलीं लेकिन अन्य राज्यों में उसका प्रदर्शन खराब रहा तथा कांग्रेस ने तब तक की सबसे कम 114 सीटें जीतने का रिकॉर्ड बना लिया।