श्रीलंका में हमला दक्षिण एशिया के लिए बड़ी चुनौती


श्रीलंका के तीन प्रमुख शहर कोलंबो, निगंबो और बट्टिकलोवा में गत 21 अप्रैल को आतंकी हमला हुआ जिसमें 200 से अधिक श्रीलंकाई के साथ कई भारत के नागरिक भी मारे गये और 500 से अधिक घायल बताये जा रहे हैं। श्रीलंका में हुए आतंकी हमले से जाहिर है दक्षिण एशिया में शांति की पहल को झटका लगेगा। गौरतलब है कि दक्षिण एशिया में अशांति का एक बहुत बड़ा कारण आतंकवादी गतिविधियां रही हैं। भारत इस मामले में सबसे अधिक भुक्तभोगी देश है। पाक प्रायोजित आतंक से भारत तीन दशकों से जूझ रहा है जबकि श्रीलंका इतने ही समय से राजनीतिक अस्थिरता को समाप्त नहीं कर पाया। हालांकि श्रीलंका में हुए इस हमले की किसी संगठन ने ज़िम्मेदारी नहीं ली है लेकिन यह आतंकी हमला समुदाय विशेष को टारगेट पर रखकर किया गया प्रतीत होता है। इस हमले से यह भी उजागर होता है। 
श्रीलंकाई समाज अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के बीच कहीं अधिक विभाजित प्रतीत होता है। श्रीलंका के भीतर समय-समय पर जातीय नरसंहार भी देखने को मिला है। भारत और श्रीलंका के बीच सम्बंध बहुत उतार-चढ़ाव से भरे रहे हैं। कितने दूर, कितने पास के आधार पर इन सम्बंधों की जांच की जा सकती है। प्रधानमंत्री मोदी ने जब 27 साल बाद पड़ोसी पहले की नीति के तहत मार्च 2015 में श्रीलंका की यात्रा की थी तब दोनों देशों के रिश्तों के एक नये अध्याय की शुरुआत हुई थी। विश्व के राजनीतिक मंच पर और दक्षिण एशिया के भीतर भारत महत्वपूर्ण भूमिका निभाये इसके लिए ज़रूरी है कि वह पड़ोसी देशों को भरोसे में ले। मोदी द्वारा श्रीलंका की की गई यात्रा इसी दृष्टि से देखी गई थी जहां उन्होंने द्विपक्षीय समझौते के तहत वीजा नियमों में छूट, कस्टम मामलों में सहयोग, युवाओं के बीच बेहतर संवाद समेत चार समझौतों पर दस्तखत किये थे।
पड़ताल इस बात की भी ज़रूरी प्रतीत होती है कि श्रीलंका की जातीय व सामुदायिक स्थिति कैसी है। कुल आबादी का यहां 74 फीसदी सिन्हाली, 13 प्रतिशत श्रीलंका के तमिल, 6 प्रतिशत भारतीय मूल के तमिल और अन्य रहते हैं। तमिल हिन्दू धर्म अनुयायी हैं जबकि सिन्हाली बौद्ध धर्म के पोशक हैं। हालांकि यहां मुसलमानों और ईसाइयों की संख्या भी कई शहरों में ठीक-ठाक है। जिस कोलम्बो के सेंट ऐंथनी चर्च में ईस्टर की प्रार्थना के लिए सब जुटे थे और जहां किये गये धमाके से दुनिया दहल गई उस कोलंबो की जनसंख्या 56 लाख है जिसमें करीब 32 फीसदी मुसलमान और इतने ही बौद्ध शामिल हैं। करीब 23 प्रतिशत हिन्दू और बाकी हिस्सा ईसाईयों का है। हमले ने चर्च की छत उड़ा दी और जो इसकी जद में आये और जो बच गये उन्होंने भी आंखों के सामने मौत का मंजर देखा। निगंबो का सेंट सेबेस्टियन चर्च भी पूरी तरह तबाह हो गया है। 
गौरतलब है कि 14 लाख की आबादी वाला यह शहर 65 फीसदी रोमन कैथोलिक के लिए जाना जाता है जबकि 14 फीसदी से अधिक यहां मुसलमान हैं और 12 फीसदी बौद्ध हैं और बचा हुआ हिस्सा हिन्दुओं का है। तीसरा प्रमुख शहर बट्टिकलोआ जो श्रीलंका की पहले राजधानी हुआ करती थी यहां हिन्दू अधिक हैं और ईसाई और बौद्ध अल्पसंख्यक में आते हैं। यहां सिय्योल चर्च पर हमला हुआ और मंजर सबके सामने है। कोलंबो के जिस चर्च को आतंकियों ने बर्बाद किया वह राष्ट्रीय तीर्थस्थल घोषित था और जब श्रीलंका में डच आये थे उस काल का बना हुआ था। श्रीलंका में बर्बादी कितनी हुई इसका हिसाब लगाया जा रहा है मगर ईसाई समुदाय को निशाना लगा कर चर्च और होटलों पर हमला करके यह जता दिया गया कि यह हमला मकसद को ध्यान में रखकर किया गया है। 
गौरतलब है कि इस हमले से ठीक 32 साल पहले 21 अप्रैल 1987 को बम धमाके में 113 लोगों की मौत हुई थी। तब इस घटना के लिए लिट्टे को जिम्मेदार ठहराया गया था। गौरतलब है कि श्रीलंका करीब चार दशकों से लिट्टे के कारण बहुत सुलगा है। लिबरेशन टाइगर्स ऑफ  तमिल ईलम (एलटीटीई) की स्थापन प्रभाकरन ने 1976 में की थी जिसका उद्देश्य उत्तर और पूर्व श्रीलंका में तमिलों के लिए स्वतंत्र राज्य बनाना था। 1983 से 2009 तक श्रीलंका गृह युद्ध की चपेट में रहा और 16 मई 2009 को तत्कालीन राष्ट्रपति महिन्द्रा राजपक्षे ने गृह युद्ध और लिट्टे की समाप्ति का ऐलान कर इतिश्री की सूचना दी। 
श्रीलंका बीते तीन दशकों से राजनीतिक अस्थिरता से जूझ रहा है। जिसके कारण वहां का समाज अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक में कब विभाजित हो गया पता ही नहीं चला। तमिल और सिन्हाली का मामला भी बरसों विवादों में ही रहा है। इस विवाद के कारण भारत और श्रीलंका के बीच सम्बंधों ने भी कई उतार-चढ़ाव लिए। नेहरू काल से मोदी शासन तक इसे देखा जा सकता है। उस दौर में श्रीलंकाई सरकार यह चाहती थी कि प्रवासी भारतीय देश छोड़कर चले जाएं। 1948 और 1949 में वहां के भारतीयों को समान अधिकार और मताधिकार से भी वंचित कर दिया गया। यहीं से विवाद चल पड़ा। 1983 आते-आते तो तमिलों को श्रीलंका से खदेड़ने की नीति भी बना दी गई। जमकर नरसंहार हुए और उनके सामने दो ही विकल्प थे या तो वे मारे जायें या समुद्र में कूद कर जान दें दे। जब भारत ने इस पर कड़ा रुख अपनाने का प्रयास किया तब श्रीलंकाई राष्ट्रपति जयवर्द्धने ने कहा था यदि संयोगवश भारत आक्रमण करता है तो सम्भव है कि हम पराजित हो जायें, लेकिन लड़ेंगे शान से। कोलंबो समेत कई समझौतों से लेकर परिवर्तन की हर दिशा पर दोनों देशों ने अनुकूल अभ्यास किया और सम्बंधों को ऊंचाई दी और 90 का दशक समाप्त होते-होते सब कुछ सामान्य हो गया। 
महिन्द्रा राजपक्षे के कार्यकाल में सिन्हाली बुद्धिस्थ का मनोबल बढ़ गया था। नतीजन इन्हीं के समय में वहां बोदु बाला सेना पनपी इससे इस वर्ग में भी चरमपंथ आया जिसका परिणाम यह हुआ कि श्रीलंका के मुसलमान और तमिल समुदाय में आक्रोश बढ़ गया और सामाजिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा मिला। 2014-15 में मैत्रीपाल सिरिसेन के समर्थन में सरकार बनी मुस्लिम, तमिल और प्रगतिशील बुद्धिस्थ इसमें शामिल हुए। यह भी सामाजिक ध्रुवीकरण का एक बड़ा प्रभाव था। इस बार निशाने पर ईसाई समुदाय आया जिसकी किसी ने ज़िम्मेदारी नहीं ली। हालांकि यह श्रीलंका के भीतर पनपा निजी मामला है पर आतंकी हमले की दृष्टि से इसे शेष दुनिया से अलग नहीं माना जा सकता। मुख्यत: इस समय तो इसलिए भी नहीं क्योंकि दुनिया आतंक के खिलाफ  पूरी ताकत झोंक रही है। 
दक्षिण एशिया के देश जितनी शांति और सद्भावना से पोषित होंगे उतने ही एक-दूसरे के लिए उपजाऊ होंगे। भारत दशकों से आतंक झेल रहा है पर शांति की पहल करना नहीं छोड़ा। श्रीलंका पर चीन की भी नजर है और इससे वह हिन्द महासागर में अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर भारत को कूटनीतिक मात देना चाहता है। आतंकी हमले के बाद भारत ने श्रीलंका को आश्वासन दिया है कि वह हर तरीके से उसके साथ है। ऐसा एक पड़ोसी की दृष्टि से समुचित है। कूटनीतिक परिप्रेक्ष्य में भी यहां एक संतुलन की राजनीति भारत को करनी होगी। गौरतलब है कि बरसों पहले भारत पर श्रीलंका यह आरोप लगा चुका है कि वह उसके आंतरिक मामलों में दखल देता है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या भी श्रीलंका विवाद के कारण ही हुई। सार्क के 8 देशों में श्रीलंका भले ही क्षेत्रफल की दृष्टि से मात्र 25 हजार वर्ग किलोमीटर का एक द्वीप है, पर सामाजिक ध्रुवीकरण के मामले में वह कहीं अधिक तीव्रता वाला देश है। शायद यही सामाजिक ध्रुवीकरण सामुदायिक संघर्ष को जन्म दे देता है। सामुदायिक संघर्ष किसी भी देश के लिए निहायत हानिकारक होते हैं और दूसरे देशों के साथ सहयोग और द्वन्द्व का असर मिला-जुला रहता है। सम्भव है कि दक्षिण एशिया में शांति के लिए श्रीलंका में शांति ज़रूरी है ऐसे में श्रीलंका को भी इस नई चुनौती से समय के साथ निपटना ही होगा। 
—सुशील कुमार सिंह
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