टूटे हुए आइने में एक चेहरा


बुरे की तलाश में उन्होंने आज तक शीशे के सामने खड़े होकर अपना चेहरा देखने की जहमत नहीं की। आजकल सब ओर काला रंग खेलने की होली हो रही है, जबकि होली तो हो चुकी। यह रंग खेलना क्यों जारी है, बन्धु? दूसरों पर रंग फेंकते हुए वह अपना दामन बचाना किस खूबी से निकल गये। जगह-जगह लोगों को स्वच्छ व स्वस्थ बनाने के लिए शौचालय तामीर हो रहे, लेकिन उनकी बगल में लगते हुए कूड़े के डम्प हटाने की किसी के पास फुर्सत नहीं। बस इसी तरह निकल गये।
यहां भूख पर राजनीति होती है, नौकरी के नाम पर भाई-भतीजावाद की खैरात बांटने पर राजनीति होती है। साम्राज्यवादी शक्तियों को तहस-नहस कर देने के नाम पर वंशवादी गद्दियां स्थापित होती हैं। एक पुरानी लोककथा चलती थी, जो रानी थी वह गोली हुई और जो गोली थी वह रानी भयी। कल तक जो अपने राजघराने की वंशावलि बता अट्टहास करते थे, आज टोपी बदल जनसेवक बन गये। साधारण जन होने की पताका लहरा ऊंची अट्टांलिकाओं वाले कुर्सियों और गद्दियों पर धरना जमा कर बैठ गये हैं और अपनी सात पुश्तों के भविष्य को सुरक्षित करने में लगे हैं। कहा गया था, ऐ खाक नशीनो उठ बैठो, वह वक्त मुकाबिल आ पहुंचा, जब ताज उछाले जायेंगे, जब तख्त गिराये जायेंगे। वक्त आ गया। तख्त गिरे, ताज भी उछले। लेकिन जो सत्ताधारी राजदण्ड लेकर आगे बढ़े, उनमें सदियों से उपेक्षित किसानों, मजदूरों और बेकारों का कोई वंशज नहीं था। बहुमंज़िली इमारतों के सिंह द्वार खुले थे। वातानुकूलित कक्षों से राजसी परिधान बदल साधारण कपड़े पहन धनकुंवर क्रांति धर्मी हो गये। हम पर शासन करने लगे।
राष्ट्र कवि ने नारा लगाया, सिंहासन खाली करो जनता आती है। बन्धु, सिंहासन तो खाली हो गये। राजकुंवर गये, धनकुंवर आ गये। जनता कहीं न आई न गई। आज़ादी की पौन सदी गुजरने को आई। वह आज भी वहीं खड़ी है, रोज़गार दफ्तरों की बन्द खिड़कियों को खटखटाती हुई। 
सस्ते अनाज की दुकानों पर कतार लगाती हुई। इन दुकानों और दफ्तरों के दरवाज़े कहां हैं? इन इमारतों के पिछवाड़े चोर गलियों में यह द्वार खुलते हैं। कंजी आंखों वाले पहुंचे हुए लोग यहां लोगों में सिफारिशी चिट्ठियों से लेकर आरक्षण सर्टिफिकेट तक बांटते हैं। इन लोगों ने धवल सफेद कपड़े पहन रखे हैं, और ये लोग मेरी कमीज़ तेरी कमीज़ से उजली के नारे लगा रहे हैं। ये लोग काजल की कोठरियों से निकलते हैं, दूसरों को दागदार करते हुए। ये ऐसे कौए हैं, जो हंस की चाल चलते हुए भी अपनी चाल नहीं भूलते। जन्नतनशीं होने से इन्कार करके पलट फिर कुर्सियों पर सवार हो जाते हैं, और सदियों के भूखे लोगों को जुमलों का भोजन परोसने लगते हैं।
हमें खाली होती कुर्सियों पर जनता के आ विराजने का इंतज़ार रहा। लेकिन जनता तो अपने ही कटघरों में कैद होकर रह गई। ‘तोड़ो काश तोड़ो’। अब कोई मनीषी उन्हें नहीं कट पाता। लगता है आज के आमन्त्रणों में चतुर सुजानों के हिडन एजेंडे छिपे हैं। एजेंडे क्यों कहते हो? यह बहुवचन नहीं, एक वचन है। आपाधापी का एक वचन। सत्ता की छीनझपट का एक वचन। कुर्सी को गद्दी बनाने की कोशिश। पीढ़ी दर पीढ़ी चलती हुई गद्दी।  हां प्रगति और विकास के एजेंडे अवश्य बनने लगे हैं। रोटी मांगते हो मिलेगी, लेकिन पांच वर्ष बाद। तभी हर हाथ को काम मिलेगा। हर सर पर छत, हर बदन पर कपड़ा होगा। तब यह देश सोने की चिड़िया बन जायेगा, अभी इसका सपना देख कर ही अपना काम चलाओ। 
या उस गरिमापूर्ण अतीत को याद करो, जब इस धरा के कोने-कोने में वह फिल्मी गीत गूंजता था, ‘जहां डाल-डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा, वह भारत देश है मेरा।’ क्या कहा जब इन दरख्तों पर सोने की चिड़िया पंख फटफटाती थीं, तब फिल्में नहीं बनती थीं और न बजते थे ऐसे गीत। अब ऐसे गीत बजाने चाहे, तो बजते हैं टैप सोंग और युवा देश कहलाने वाला यह मुल्क रेव पार्टियों में नशों के अंधेरों को गले लगा औंधे मुंह पड़ा है। चमन उजड़ रहे हैं। बस्तियां वीरान हो गयी हैं। नौजवान कब तक भाषणों के पंखों पर सवार हो कर देश के बाहुबली हो जाने का इंतज़ार करते रहते। गांवों की उसर होती धरती अब किसी को अपने आलिंगन में नहीं लेती। परती परिकथा अब कौन सी समेट नई करवट बदले।  निस्पन्द पड़ी धरती और हताश किसान। आत्महत्या भी करते हैं तो इसकी गिनती नहीं होती। उसे प्राकृतिक मौतों के रोजनामचे में सैट दिया जाता है। 
ऐसे रोज़नामचों का कोई रिकार्ड नहीं होता। यहां क्षतिपूर्ति के मुआविज़े सत्ता के दलालों को मिलते हैं। मध्यजन भद्रपुरुष हो गये हैं। सत्ता और अनुगृहीत के बीच की कड़ी मध्यजन हैं।  रक्षा सौदों के बीच मध्यजन बैठे हैं। ठण्डे बस्तों के अलम्बरदार मध्यजन। हम तो बार-बार कहते हैं कि इन मध्यजनों को वैधानिक मंजूरी दे दो कि जैसे आपने करुणा, दया से प्रगति के नाम पर खैरात को मंजूरी दे दी है। जनता जिसे प्रगति करनी थी वह अनुदान प्राप्त करने के लिए कतार में खड़े हैं। कज़र् माफी और सामाजिक सुरक्षा के अनुदान तोहफों में बंट रहे हैं। 
एक ओर मध्यजन क्रांति ध्वज लेकर आगे बढ़ रहे हैं और दूसरी ओर जनता भीड़ लगाकर एक ओर खड़ी है, नारों और भाषणों से मंत्रमुग्ध। कब तक खड़ी रहेगी कोई नहीं पूछता?