राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस पर विशेष- पंचायतों की बिगड़ रही छवि को बचाने की ज़रूरत

हमारे देश के लोकतांत्रिक ढांचे की सबसे छोटी और प्राथमिक इकाई गांव की पंचायत मानी गई है। पंचायत शब्द दो शब्दों से बना है। ‘पंच+आयत’, ‘पंच’ से तात्पर्य पांच और आयत से से तात्पर्य परमेश्वर के नाम से भी जानी जाती है। ब्रिटिश शासन के समय भी गांवों की पंचायत का मान-सम्मान आज के मुकाबले काफी अच्छा था। भारत में पंचायती राज की शुरूआत बलवंत राय ने राजस्थान से शुरू की थी। भारतीय संविधान के 73वें संवैधानिक संशोधन के बाद 23 अप्रैल, 1993 को अस्तित्व में आए भारतीय ग्रामीण पंचायती राज एक्ट की रौशनी में पंजाब विधानसभा द्वारा स्वीकृति देने के बाद 21 अप्रैल, 1994 को राज्य सरकार के नोटिफिकेशन द्वारा पंजाब पंचायती राज एक्ट लागू किया गया, जिसका उद्देश्य निचले स्तर से लोगों के जीवन स्तर को उठाना था। 
ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, पंचायत को अधिक अधिकार दिए जाने लगे। 1992 में 73वें संविधानक संशोधन के अधीन पंचायत को काफी अधिकार दिए गए हैं। 73वां संशोधन एक्ट : यह बिल दिसम्बर, 1992 में संवैधानिक एक्ट के अधीन 73वें संशोधन के नाम से जाना जाता है। इसके अनुसार ग्रामीण स्थानीय निकाय को संवैधानिक प्रतिष्ठा, सत्ता और कार्य, नियमित चुनाव, अनुसूचित जातियों और कबीलों, महिलाओं तथा कमज़ोर वर्ग के लोगों के लिए सीटों का आरक्षण, वित्त मुहैया करना और हर तरह से लोगों की प्रत्येक स्तर पर सीधी हिस्सेदारी से संबंधित है। इसके अलावा गांवों के लोगों के आपसी विवादों को निपटाना, गांवों की सांझी शामलात भूमि का उचित प्रयोग करना, समाज और युवाओं के लिए योजनाएं लागू करना, पुस्तकालय खोलना, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, पशु केन्द्र स्थापित करना, कृषि और इससे संबंधित धंधे जैसे डेयरी, पोल्ट्री, मत्स्य पालन, मधुमक्खी पालन आदि कार्यों से जोड़ना और अल्पसंख्यक वर्ग के लोगों, अनुसूचित जातियों तथा कबीलों तथा महिलाओं आदि के विकास में योगदान डालने की ज़िम्मेदारी है। 
पंजाब में मौजूदा समय में लगभग 13080 पंचायतें हैं। बुरी राजनीति की घटिया चालों के कारण गांवों की पंचायतें राजनीति का शिकार हो रही हैं। मौजूदा समय के दौरान गांवों की पंचायतों का राजनीतिकरण शुरू हो गया है, जिससे पंचायत भी अपने सिद्धांतों से भटक गई है। सत्ता में आए परिवर्तन से गांवों का पंचायती राज भी प्रभावित होता है। आज पंचायती राज में अपने स्तर के फैसलों को करने में गिरावट आई है। पंचायत पहले समय जैसे विश्वास और दृढ़ता को गंवा रही है। सरकारी सुविधाओं को वास्तविक ज़रूरतमंदों तक पहुंचाने के लिए पक्षपात का शिकार है। पंचायतें पहले समय के दौरान पूर्ण गांव के विकास के लिए सोचती थीं परन्तु अब वह भी वोटों वाले घर तक ही सिमट कर रह गई हैं। 
महिलाओं का पंचायतों में प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए आरक्षण लागू किया गया परन्तु फिर भी महिलाओं की भागीदारी रबड़ की मोहर तक ही सीमित है। गांवों में धार्मिक स्थलों की संख्या बढ़ना भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में पंचायती ढांचे पर प्रश्नचिन्ह है। एक ही गांव में रहने के बावजूद सहयोग खत्म होकर दुश्मनी में तबदील हो रहे हैं, जो भी ग्रांटें सरकार की ओर से आती हैं, उनके बारे तो आम ग्रामीण व्यक्ति को पता ही नहीं चलता। कुछेक बड़े अधिकारी या फिर कुछ सरपंच आदि ही ग्रांटें डकार जाते हैं और रातों-रात अमीर हो जाते हैं। ज्यादातर पंच और सरपंच अनपढ़ हैं या फिर आठवीं या दसवीं पास है। देखा जाए कि जो नेता स्वयं ही अनपढ़ हैं, वह कानून के एक्ट या बिलों के बारे में कैसे जान सकते हैं। वह अपने क्षेत्र का विकास, शिक्षा का प्रचार और प्रसार या युवाओं को पढ़ाई और खेलों आदि की ओर प्रेरित करने में कैसे सफल होंगे। इसलिए आज के युग की ज़रूरत को देखते हुए और भारत की इस रीढ़ की हड्डी को मजबूत करने के लिए हमारे युवाओं को पक्षपात को छोड़कर आगे आना चाहिए। पंचायती राज में अनपढ़ता होने के कारण भी इसकी सफलता में रुकावट चली आ रही है, जिससे पारदर्शिता में कमी आई है। पंचायती राज के विकास में आई स्थिरता को सार्थक भूमिका में बदलाव के लिए पढ़े-लिखे युवाओं को आगे आना चाहिए। 
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