अनेक फिल्मों के इतिहास का गवाह था आर. के. स्टूटिडयो

पिछले सप्ताह कपूर खानदान से संबंधित दो खबरें सुनने में आई, पहली यह कि इस खानदान के रोशनदार चिराग ऋषि कपूर अब कैंसर की बीमारी से मुक्त घोषित किये गये हैं। 70 व 80 के दशकों की फिल्मों के इस डांसिंग स्टार को लेकर आई अच्छी खबर को लेकर अभी बॉलीवुड वाले अपनी खुशी जताना शुरू करें कि दूसरे दिन यह खबर आई कि फिल्म इंडस्ट्री के एक सीमा स्तम्भ माने जाते आर.के. स्टूडियो को बेच दिया गया है। इसके खरीददार हैं गोदरेज प्रापर्टीज़ जोकि भवन निर्माण के क्षेत्र में बड़ा नाम है और वे इस स्टूडियो के स्थान पर रेसिडेन्शियल काम्पलैक्स बनाएंगे। वैसे तो पिछले कुछ सालों से इस स्टूडियों में शूटिंग संबंधित गतिविधियां कम ही हो रही थी और समय-समय पर यह खबर उड़ती रही कि इस स्टूडियो का अस्तित्व अब भूतकाल की बात बन जाएगा, जिस पर इसके अस्तित्व पर तब प्रश्न चिन्ह लग गया जब चंद माह पूर्व यहां आग लगी थी। यह भी एक संयोग ही कहा जाएगा कि स्टूडियो की शुरुआत ‘आग’ की बदौलत हुई थी और इसका अंत करने में भी आग की भूमिका रही। 1948 में जब राज कपूर बतौर निर्माता-निर्देशक ‘आग’ बना रहे थे तब ही उनके अंदर बसे निर्देशक को यह बात समझ में आ गई थी कि अगर फिल्म इंडस्ट्री में निर्माता के तौर पर लम्बी पारी खेलनी है तो खुद का स्टूडियो होना ज़रूरी है। उस दौर में फिल्मों की आउटडोर शूटिंग यदा-कदा ही होती थी और किसी भी फिल्म की अमूमन नब्बे प्रतिशत शूटिंग किसी न किसी स्टूडियो के सेट पर हुआ करती थी। ‘आग’ के निर्माण दौरान स्टूडियो की बुकिंग, सैट का निर्माण, स्टूडियो का रख-रखाव आदि के अनुभव की बदौलत युवा राज कपूर को आगे की फिल्मों के लिए अपना स्टूडियो होने का महत्त्व समझ आ गया था। फिर 1949 में उन्होंने ‘बरसात’ बनाई और इस फिल्म की सफलता ने उन्हें अपना स्टूडियो होने की इच्छा को पंख दे दिये। ‘बरसात’ अपने समय की सुपर हिट फिल्म थी और इससे हुई कमाई में राज कपूर ने मुम्बई के उपनगर चैम्बूर में दो एकड़ का प्लाट ले लिया और इस पर स्टूडियो का निर्माण करने का काम शुरू कर दिया। शुरू से ही उनके दिमाग में यह बात साफ थी कि अपने बैनर के नाम की तरह इस स्टूडियो का नाम भी उनके ही नाम पर से होगा और नाम रखा गया आर.के. स्टूडियो। वे महज स्टूडियो को अपना नाम देकर संतुष्ट नहीं थे, बल्कि वे अपने बैनर व स्टूडियो को एक ऐसा प्रतीक देना चाहते थे जिसकी अपनी अनोखी पहचान हो। यह प्रतीक की प्रेरणा उन्हें ‘बरसात’ के एक दृश्य से मिली जिसमें उनके एक हाथ में वायलिन थी और दूसरे में फिल्म की नायिका नरगिस। इस प्रतीक को स्टूडियो की इमारत पर खूबसूरती के साथ प्रस्तुत किया गया और राज कपूर की फिल्मों व गीतों के साथ-साथ यह प्रतीक भी लोकप्रिय हो गया। आर.के. स्टूडियो में राज कपूर ने अपने लिए एक कॉटेज भी बनवाया था जोकि स्टूडियो के पिछले हिस्से में था। यह कॉटेज उनकी पसंदीदा जगह थी और यहीं वे अपना दरबार सजाते थे। लेखक, गीतकार, संगीतकार, कला निर्देशक आदि के साथ यहीं पर मंत्रणाओं के दौर होते थे और आर.के. फिल्मस बैनर के तहत निर्मित की गई कई महान फिल्मों का जन्म इसी कॉटेज में हुआ था। उनकी फिल्मों के कालजयी गीतों की जन्म स्थली भी यह कॉटेज रही थी। निर्माता-निर्देशक व कलाकार होने के नाते राज कपूर इस बात से अच्छी तरह से परिचित थे कि शूटिंग का माहौल कैसा होना चाहिए और उनका यह अनुभव आर.के. स्टूडियो का कद बढ़ाने में खूब काम आया। देखते ही देखते यह स्टूडियो फिल्म इंडस्ट्री की शान बन गया और यहां अपनी फिल्म की शूटिंग करने में निर्माता फख्र महसूस करने लगे। इस स्टूडियो की देश भर में फैली लोकप्रियता का अंदाज़ा इस बात से ही आ जाता है कि जब भी किसी फिल्म में नायक या नायिका को फिल्मों में संघर्ष करने के लिए गांव से मुम्बई जाते दिखाया जाता तो उसे इस स्टूडियो के बाहर खड़े दिखा दिया जाता। वह सजा आर.के. स्टूडियो का प्रतीक देख दर्शक समक्ष जाने कि कलाकार मुम्बई पहुंच गया है। यह स्टूडियो त्यौहारों की वजह से भी खबरों में बना रहा है। होली का त्यौहार हो या महाराष्ट्र का सबसे बड़ा त्यौहार गणेशोत्सव। यह दोनों हर साल इस स्टूडियो में धूमधाम से मनाये जाते रहे थे। होली के अवसर पर यहां विशेष रूप से पानी का हौज तैयार किया जाता और इस स्टूडियो की यह परम्परा रही थी कि राज कपूर पहले गणपति जी की मूर्ति के आगे शीश झुकाते, फिर पापाजी पृथ्वीराज कपूर का आशीर्वाद लेते और तत्पश्चात जमकर होली खेलते। बॉलीवुड के हर कलाकार को इस होली का न्यौता पाने का इंतजार रहता था। गणपति विसर्जन के दिन यहां लोगों की भारी भीड़ जमा होती थी। उनकी इच्छा गणपति जी के दर्शन करने की कम और विसर्जन की यात्रा में हिस्सा ले रहे कलाकारों को करीब से देखने की ज्यादा होती। कई यादगार फिल्मों व गीतों के फिल्मांकन का गवाह यह स्टूडियो रहा। ‘प्यार हुआ इकरार हुआ’, ‘घर आया मेरा परदेसी’, ‘मैं शायर तो नहीं’, आदि कई गीत यहां फिल्माये गये तो राज कपूर अपनी फिल्मों की शूटिंग भी यहीं करते। ‘राम तेरी गंगा मैली’ के शीर्षक गीत के लिये बनारस का सेट भी यहीं सजाया गया था। बाहरी निर्माता भी इस स्टूडियो को खास मानते थे। फिल्मवालों के लिए यह किसी तीर्थ स्थल से कम नहीं था। अमूमन हर निर्माता की चाह यह होती कि उसकी फिल्म का एक दृश्य यहां फिल्माया जाए ताकि फिल्म की नामावली में इस महान स्टूडियो का नाम आ जाए, जो यहां शूटिंग नहीं कर पाते थे। उनकी चाह स्टूडियो में स्थित प्रिव्यु थिएटर में अपनी फिल्म का शो रखने की होती थी ताकि इसी बहाने फिल्म के साथ स्टूडियो का नाता बन जाए। इस स्टूडियो की एक खास बात यह भी थी कि राज कपूर ने अपना एक संग्राहलय भी यहां बनवाया था। अपनी फिल्मों से जुड़ी कई महत्त्वपूर्ण चीजें इस संग्राहलय में सजायी गई थी। इनमें राज कपूर के साथ-साथ उनकी हीरोइनों द्वारा पहने गये कास्टयूम थे तो साथ ही वह पियानो भी था जो उनकी कई फिल्मों का हिस्सा था। वह डफली जो उन्होंने, ‘जिस देश में गंगा बहती है’ में बजायी थी वह भी इसमें थी तो वह छाता भी जिसके तले उन्होंने नरगिस के साथ ‘प्यार हुआ इकरार हुआ’ गाया था। इस संग्रहालय के साथ था इसलिये लिखना पड़ रहा है क्योंकि ये सभी चीजें व उनकी फिल्मों के पोस्टर उस आग में खाक हो गये जो यहां लगी थी। इस अग्निकांड के पश्चात यह लगने लगा था कि कपूर खानदान की संतानें रणबीर, करीना व करिश्मा अपने दादाजी की इस धरोहर को बचाने के लिए आगे आएंगी पर अफसोस कि उनके द्वारा कोई कदम नहीं उठाया गया। जब ‘मेरा नाम जोकर’ असफल घोषित कर दी गई थी और राज कपूर भारी कज़र् में डूब गये थे तब कज़र् से उबरने के लिए उन्हें इस स्टूडियो का एक हिस्सा बेचना पड़ा था। तब भी फिल्मों के चाहने वाले खूब दुखी हुए थे। अब जब पूरा स्टूडियो बिक गया है तो सिने रसिकों के दिल पर क्या बीत रही होगी इसकी कल्पना की जा सकती है। इस स्टूडियो के साथ एक रोचक किस्सा यह रहा कि सैफ अली खान ने अपने फिल्मी करियर का आगाज़ इसी स्टूडियो से किया था। उनकी पहली फिल्म ‘बेखुदी’ का मुहुर्त इसी स्टूडियो के फ्लोर पर किया गया था और मुर्हूत शॉट में सैफ व काजोल पर एक गीत ‘मुझे क्या पता तेरा घर है कहां’ फिल्माया गया था। बाद में फिल्म के निर्देशक राहुल रवैल और सैफ के बीच मन-मुटाव हो गया और सैफ को फिल्म से अलग कर कमल सदाना को लिया गया। समय का चक्र देखिये कि आज उसी सैफ की शादी करीना से हुई है, जिसके परिवार का नाता इस स्टूडियो से जुड़ा है। आज जब फिल्मों की शूटिंग रियल लोकेशन पर की जाने लगी है तो ऐसे में इसका असर स्टूडियो की बुकिंग पर पड़ा है और अगर आर.के. स्टूडियो भी बदलाव की बयार से अछूता नहीं रह पाया है। सीरियलों का चलन जब शुरू हुआ था तब ‘देख भाई देख’ का सैट यहां खड़ा किया गया था तो स्पोर्ट्स चैनलों ने अपनी हिन्दी कमेंटरी के प्रसारण के लिए इसी स्टूडियो पर अपनी पसंद उतारी थी पर अग्निकांड के पश्चात इस स्टूडियो की रौनक पर पूर्ण विराम लग गया। राज कपूर की ही फिल्म ‘धर्म-कर्म’ का एक गीत ‘इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल, जग में रह जाएंगे प्यारे तेरे बोल’ इस स्टूडियो पर सही बैठ रहे हैं क्योंकि अब यह स्टूडियो नहीं रहा पर यहां बनी फिल्में इस स्टूडियो की हमेशा याद दिलाती रहेगी। फिल्मों में द एंड हमेशा सुखद मौके पर आता है पर इस स्टूडियो का द एंड हुआ देख मन ग्लानि से भर जाता है। कभी इस स्टूडियो को ड्रीम फैक्टरी कहा जाता था क्योंकि यहां फिल्मों के ज़रिए सपने बेचे जाते थे। अब गोदरेज वालों ने यहां ड्रीम हाऊस बनाने की घोषणा की है। यानि चैंबूर के इस प्लॉट का ड्रीम से नाता बना रहेगा।