क्या देश की खराब अर्थ-व्यवस्था चुनावों को प्रभावित करेगी ?

इस महीने के दूसरे सप्ताह की किसी भी ताऱीख का कोई भी वित्तीय समाचार पत्र उठा कर देख लीजिए। पहले पन्ने पर ही हमारे लोकतंत्र की मुख्य विडम्बना दिख जाएगी। आप चाहें तो उसे अंतर्विरोध या विरोधाभास या त्रासदी भी कह सकते हैं। मोटे-मोटे अक्षरों में ऊपर मुख्य समाचार के रूप में लिखा होगा कि राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के मुताब़िक सरकार कुल घरेलू उत्पाद के जिन आंकड़ों के आधार पर देश की प्रगति का दावा कर रही है, उनका आधार बनाने वाली कम्पनियों में 36 प्रतिशत कम्पनियां संदिग्ध किस्म की हैं।  इसलिए जब तक इस डेटाबेस की जांच न कर ली जाए, तब तक सरकार द्वारा बताये गए आंकड़ों पर भरोसा नहीं किया जाता। और, चूंकि लोगों को देश की प्रगति के बारे में किये गये दावों पर भरोसा ही नहीं हो पा रहा है, इसलिए निवेशक अपनी तिजोरी खोलने के प्रति स्वाभाविक रूप से उत्साहित नहीं हो रहे हैं। दूसरी खबर कॉलम के नीचे मिलेगी जो बताएगी कि स्टॉक मार्केट की संवेदनशील इंडेक्स लगातार गिर रही है। इसके अंतर्राष्ट्रीय कारण तो हैं ही, साथ ही भारत के ऑटो सैक्टर में आई गिरावट इसका मुख्य कारण है। न मारुति की कारें पहले की तरह बिक रही हैं, और न ही दूसरी कम्पनियों की। नतीजे के तौर पर स्टॉक्स में निवेश करने वालों को हज़ारों करोड़ रुपए का नुकसान हो रहा है। पहले पन्ने के बीच में ़खबर मिलेगी कि लोगों की आमदनी की बढ़ोतरी में कमी आई है, बाज़ार में मनी-सप्लाई भी गिरी है, नतीजतन लोग उपभोग कम कर रहे हैं। यानी उपभोक्ता क्रांति गम्भीर संकट में फंस गई है। हवाई यात्राएं कम हो रही हैं और हमेशा उछाल पर रहने वाले सेवा क्षेत्र की गतिविधियां पिछले सात महीनों में अप्रैल में सबसे कम रिकॉर्ड की गई हैं। चौथी ़खबर जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए, वह है औद्योगिक उत्पादन के सूचकांक में गिरावट का दर्ज होना। ध्यान रहे कि ये ़खबरें एक ऐसे समय में छप रही हैं जब देश में सत्रहवीं लोकसभा चुनने के लिए वोट मांगे जा रहे हैं। हमारी परेशानी उस समय और बढ़ जाती है जब इन्हीं ़खबरों के साथ पहले पन्ने के दूसरे कोने में प्रधानमंत्री का इंटरव्यू छपा दिखता है जिसमें वे अपने पूरे स्वाभाविक विश्वास के साथ कहते हुए दिखते हैं कि उनका यह चुनाव ‘पऱफॉरमेंस’ के आधार पर है, न कि ‘परसेप्शन’ के आधार पर। और तो और, प्रधानमंत्री यह भी दावा करते हैं कि इस बार इक्कीसवीं सदी के वे वोटर मतदान करेंगे या कर रहे हैं जिन्होंने पहले कभी वोट नहीं किया और जिन के दिमाग पर अतीत के सोच-विचार का कोई बोझ नहीं है। प्रधानमंत्री को यकीन है कि ये नये वोटर उनके ‘पर फॉरमेंस’ के आधार पर उन्हें ही वोट देंगे। इस मुकाम पर एक बात समझ से बाहर है कि क्या प्रधानमंत्री की समझ में यह नया वोटर (जिसे शिक्षित भी माना जा सकता है और जिसे अ़खबार पढ़ने वाले अपेक्षाकृत सचेत पाठक की श्रेणी में भी रखा जा सकता है) अर्थव्यवस्था में आई इस गिरावट से परिचित नहीं है? क्या यह नया वोटर समझ नहीं पा रहा है कि इस तरह की चौतऱफा गिरावट किसी एक नीति की नाकामी या किन्हीं दो-तीन गलतियों का परिणाम नहीं है? यह तो पिछले पांच साल की संचित नाकामियों का नतीजा ही हो सकती है।  जब ये खबरें छपती हैं और साथ में प्रधानमंत्री समेत विभिन्न नेताओं के वक्तव्य प्रकाशित होते हैं तो मेरे जैसे विश्लेषक से पूछा जाता है कि क्या अर्थव्यवस्था में आ रही यह गिरावट चुनाव का मुद्दा बन पाएगी? मैं निश्शंक उत्तर देता हूं कि नहीं, ये खबरें कितनी भी अहम क्यों न हों, चुनाव इनके आधार पर नहीं लड़ा जाएगा। राजनीतिक नेताओं से कोई वोटर पलट कर नहीं पूछेगा कि अर्थव्यवस्था का यह पतन उनकी रणनीति के केंद्र में क्यों नहीं है? सरकारी पार्टी (जिसके प्रतिनिधि प्रधानमंत्री हैं) अगर इसे मुद्दा नहीं बनाना चाहती, तो इस बात को समझा जा सकता है, लेकिन विपक्षी दल इसे मुद्दा क्यों नहीं बना रहे हैं? उनका प्रचारतंत्र अर्थव्यवस्था की वर्तमान दुरअवस्था को केंद्रित करके न कोई मुहावरा ईज़ाद कर पा रहा है, और न ही कोई नारा दे पा रहा है। राजनीतिक रचनात्मकता के इस अभाव को समझना मुश्किल है। मुझे याद है कि 1984 के चुनाव में जब राजीव गांधी ने ज़बरदस्त जीत हासिल की तो विपक्ष के बड़े-बड़े नेता खासे निराश थे। उन दिनों मुलायम सिंह यादव की राजनीति में एक खास तरह का बांकपन था। उन्होंने दिल्ली में विपक्षी नेताओं की बैठक में अपनी जूनियर हैसियत के बावजूद कहा कि आप चिंता मत कीजिए, मैं छह महीने के भीतर उत्तर प्रदेश के पो-पो बूटे-बूटे को कांग्रेस विरोधी कर दूंगा। उन्होंने उत्तर प्रदेश में तो यह किया ही, कर्नाटक में रामकृष्ण हेगड़े ने विपक्ष की धुरंधर राजनीति करके कांग्रेस को छह महीने के भीतर पराजित करके दिखाया। आज रामकृष्ण हेगड़े हमारे बीच नहीं हैं, और मुलायम सिंह उम्र और अन्य परिस्थितियों के कारण अपने राजनीतिक जीवन में ढलान पर नीचे और नीचे फिसलते जा रहे हैं।  इन उदाहरणों को देने का तात्पर्य यह है कि अगर विपक्ष प्रभावी और कल्पनाशील होता (दरअसल, विपक्ष ने अपनी कल्पनाशीलता और जुझारूपन को भयानक रूप से विफल नोटबंदी के ज़माने में ही इस्तेमाल करके मोदी सरकार को ज़बरदस्त सबक सिखा दिया होता) तो आज मोदी और उनकी सरकार खुद को कोने में खड़ा पा रही होती और उसे रिसर्च करनी पड़ती कि उसके वोटर कौन से और कहां हो सकते हैं। यहीं प्रश्न उठता है कि देश की वर्तमान आर्थिक दुर्गति की इस अवधि में वह क्या चीज़ है जिसे प्रधानमंत्री पूरे संतोष और एक तरह के गर्व के साथ ‘पऱफॉरमेंस’ कह रहे हैं। मुख्य तौर पर यह कहते हुए वे उन योजनाओं के संदर्भ में अपना दावा कर रहे हैं जिन्हें हम उज्जवला योजना, सौभाग्य योजना, जन-धन योजना, आवास योजना, शौचालय योजना, आयुष्मान भारत वगैरह-वगैरह के नाम से जानते हैं। मोदी और उनके रणनीतिकार बार-बार कह रहे हैं कि इन योजनाओं के सात करोड़ लाभार्थियों में से अगर उन्हें पच्चीस फीसदी वोट भी मिल गए, यानी पौने दो करोड़ वोट भी मिल गए तो 2014 में मिले बारह करोड़ वोटों की संख्या तकरीबन चौदह करोड़ हो जाएगी। यानी 31.8 फीसदी वोटों के साथ तीन-चार प्रतिशत का स्विंग जुड़ जाएगा। क्या यह दावा सही है? इस प्रश्न का उत्तर पाने से पहले इस प्रश्न का उत्तर पाना होगा कि क्या मोदी को दोबारा 2014 वाले 31.8 फीसदी वोट मिलने जा रहे हैं? अगर उन वोटों की गारंटी है तो फिर कम से कम एक अनुकूल स्विंग की सुखद क ल्पना तो की ही जा सकती है। वरना?