बंगाल में चुनावी हिंसा

जिन बातों की पहले ही आशंका व्यक्त की जा रही थी, अंतत: वे हो ही गईं। लोकसभा के हो रहे चुनावों में पश्चिम बंगाल में जिस प्रकार का माहौल सृजित किया जा रहा था, उससे इसके कटु होते जाने की सम्भावना बन गई थी तथा इसी कारण चुनावों के दौरान बड़े स्तर पर हिंसा हुई है। पश्चिम बंगाल में चुनाव आयोग की ओर से चुनावों के लिए घोषित किये गये भिन्न-भिन्न तिथियों के 7 पड़ावों में से इस प्रदेश में सभी पड़ावों के समय हिंसा का बोलबाला रहा। यहां लोकसभा के लिए 42 सदस्य निर्वाचित होते हैं परन्तु यहां की स्थितियों को देख कर चुनाव आयोग कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहता था। प्रत्येक पड़ाव के दौरान वह पूरी तैयारी के साथ चुनाव करवाना चाहता था, परन्तु खेद इस बात का है कि प्रदेश में अब तक सम्पन्न हुये 6 चुनावों के दौरान हिंसा का बोलबाला रहा है। पश्चिम बंगाल की राजनीति ने सदियों के दौरान बहुत बड़े उतार-चढ़ाव देखे हैं। 1757 में प्लासी की लड़ाई के बाद अंग्रेज़ों ने इस प्रदेश पर कब्ज़ा कर लिया था तथा बाद में उन्होंने पूरे देश को हथिया लिया था। इन विदेशी शासकों ने देश को बुरी तरह से लूटा। इस लूट में बंगाल, उड़ीसा एवं बिहार पहले स्थान पर आते थे। नि:सन्देह बंगालियों ने आज़ादी की लड़ाई में अपना भारी योगदान डाला था, परन्तु आज़ादी मिलने पर 1947 में पंजाब की भांति बंगाल के भी दो टुकड़े हो गये थे, जिनमें से एक टुकड़ा पूर्वी पाकिस्तान बन गया था, जो बाद में स्वतंत्र रूप में बंगला देश बना। आज़ादी के बाद भी इस प्रदेश का विकास धीमी गति से चला तथा बड़ी सीमा तक यहां गुरबत ही छाई रही। अब यहां ममता बैनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस की सरकार चल रही है। इससे पूर्व 34 वर्ष तक मार्क्सवादी पार्टी ने अपनी कुछ सहयोगी वामपंथी पार्टियों के साथ मिल कर यहां शासन किया। उसकी सरकारों ने बड़े सफल चरण तय किये तथा प्रदेश में भू-सुधारों के साथ-साथ अनेक अन्य सुधार भी किये परन्तु अपने अंतिम वर्षों में अपने विरोधियों को दबाने के लिए उन्होंने हिंसा का पथ अपनाया। निचले स्तर तक इस पार्टी ने अपने कॉडर को इस सीमा तक बढ़ा दिया कि अंत में सारी ही सरकार तहसील स्तर पर पार्टी कार्यकर्ताओं की ओर से चलाई जाने लगी। इस प्रकार अनेक धरातलों पर ऐसे समूह बन गये जो आम लोगों से दूर होते चले गये। ये कार्यकर्त्ता अपनी पार्टी के बलबूते पर अपने क्षेत्रों में पूर्ण तानाशाह बन गये। मार्क्सवादी सत्ता के समय सिंगूर एवं नंदीग्राम जैसे स्थानों पर किसानों के आन्दोलनों के दृष्टिगत जहां पार्टी को भारी आघात पहुंचा, वहीं कांग्रेस से अलग होकर ममता बैनर्जी की ओर से बनाई गई नई पार्टी तृणमूल कांग्रेस को मज़बूती हासिल हुई। इस नई पार्टी ने भी मार्क्सवादियों का मुकाबला करने वही हथकंडे अपनाने शुरू किये जिनका सारांश यह था कि हमें अपनी व़फादारी दो तथा लाभ उठाओ। इस आधार यह पार्टी भी मजबूत होती गई।  ममता बैनर्जी ने अपने शासन के दौरान विकास एवं सुधारों की अपेक्षा अधिकतर अपने विरोधियों को दबाने का काम ही किया। इसकी ईमानदारी वाली छवि भी शारदा चिटफंड एवं रोज़ वैली जैसे घोटालों ने तोड़ दी, जिसमें ममता बैनर्जी ने अपने दोषी साथियों को बचाने के लिए अब तक पूरी शक्ति लगाई है। जहां तक भारतीय जनता पार्टी का प्रश्न है इसने उत्तर भारत के अतिरिक्त अपने पांव उत्तर-पूर्वी राज्यों में भी जमाये हैं। पिछले कुछ वर्षों में भारतीय जनता पार्टी ने पश्चिम बंगाल में अपने पांव पसारने शुरू किये। इसी कारण पिछले वर्ष मई-जून में हुये पंचायती चुनावों में मुख्य लड़ाई तृणमूल कांग्रेस एवं भारतीय जनता पार्टी के बीच दिखाई दी थी। भाजपा की इस बढ़ती हुई शक्ति को सहन करना ममता के बस की बात नहीं थी। इसके विरुद्ध वह अपनी तीव्र प्रतिक्रिया भी व्यक्त करती रही हैं। पंचायती चुनावों में कई स्थानों पर भारतीय जनता पार्टी के कई कार्यकर्त्ताओं की मृत्यु भी हुई थी, जिसे सरकार ने पूर्णतया दृष्टि विगत किया। इस प्रशासन की ओर से गुंडा तत्वों को उसी प्रकार की शह दी गई, जिस प्रकार की भाजपा के शासन की ओर से उत्तरी राज्यों में गौ-रक्षा के मामले पर लोगों को पीट-पीट कर मार देने के समय दी गई थी। पिछले समय में भाजपा एवं तृणमूल कांग्रेस में टकराव इतना बढ़ गया कि उड़ीसा की भांति पश्चिम बंगाल में आये विनाशक तूफान के अवसर पर ममता बैनर्जी ने केन्द्र सरकार की मदद लेने से भी इन्कार कर दिया और प्रधानमंत्री की ओर से उन्हें किये गये टैलीफोन को भी पूर्णतया दृष्टिविगत किया। नि:सन्देह इन चुनावों के दौरान ममता बैनर्जी ने अपने प्रशासन का निरंकुश चेहरा दिखाने का यत्न किया एवं चुनावों के सभी कायदे-कानून छींके पर टांग दिये। उन्होंने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की रैलियों को रोकने का भी पूरी तरह यत्न किया। इन रैलियों में तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्त्ताओं ने समय-समय पर खलबली मचाने का भी यत्न किया। भाजपा के बड़े नेताओं को रैलियां आयोजित करने के लिए स्थान देने से भी इन्कार किया गया और यहां तक कि कई बार उनके हैलीकाप्टरों को भी उतरने देने से इन्कार कर दिया गया। ऐसी स्थितियों में चुनाव आयोग ने केन्द्रीय सुरक्षा बलों को बड़ी संख्या में वहां भेजा। इससे ममता बैनर्जी ने यह हंगामा करना शुरू कर दिया कि इन केन्द्रीय सुरक्षा बलों को यहां मोदी के संकेत पर भेजा गया है। इनका कार्य चुनावों में भाजपा का पक्ष-पोषण करना है। इसके बावजूद भाजपा ने अपनी राजनीतिक सक्रियता जारी रखी। पिछले दिनों कोलकाता में अमित शाह की ओर से किये गये रोड-शो के दौरान तृणमूल कांग्रेस विद्यार्थी परिषद् ने स्थान-स्थान पर गड़बड़ करने का यत्न किया। यहां तक कि मोदी एवं शाह के पोस्टर तथा बैनर भी फाड़ दिये अथवा जला दिये। रोड-शो के दौरान स्थान-स्थान पर अमित शाह के विरुद्ध नारेबाज़ी की गई तथा रोड-शो के विद्या सागर कालेज के समक्ष पहुंचने पर वहां एकत्रित हुए तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्त्ताओं ने पथराव शुरू कर दिया, जिससे दोनों पक्षों में भारी हंगामा हो गया। इससे प्रदेश के हालात भी बिगड़े हुए दिखाई दिये। यदि भाजपा नेताओं ने ममता बैनर्जी को तानाशाह कहा, तो ममता ने नरेन्द्र मोदी एवं अमित शाह को बार-बार गुंडे करार दिया। हम इस प्रदेश में उत्पन्न हुई इस स्थिति को अत्याधिक दुर्भाग्यपूर्ण समझते हैं, जिसने चुनाव प्रक्रिया के सदाचार की धज्जियां उड़ा दी हैं तथा जो देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को एक बड़ा खतरा प्रतीत होने लगी है। चुनाव आयोग एवं देश की उच्च अदालत को उत्पन्न हुई इस स्थिति के साथ सख्ती से निपटने की आवश्यकता है।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द