बदहाली का विश्लेषणात्मक मूल्यांकन

आजज पूरी दुनिया के अधिकांश मुल्कों के लोग किसी न किसी तरह के डर और अनिश्चय में जी रहे मालूम प्रतीत होते हैं। एक गीत में कहा गया ‘सीने में जलन आंखों में तूफान सा क्यों है, इस शहर का हर शख्स परेशां सा क्यों है’? शहर की जगह दुनिया कर लें तो बात कुछ सरल हो जाती है। चीज़ों के असली हकदार अधिकांश जगह हक से वंचित किये जा रहे हैं। शोषण बुनियादी चीज़ों की तरफ सोचने के लिए विवश करता है। दमनकारी राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक हालात सहज जीवन जीने नहीं देते। मोटे तौर पर एक विभाजक रेखा नज़र आ सकती है। एशिया, लातीन अमरीका और अफ्रीका के जनसमूह एक तरफ, यूरोप, अमरीका और आस्ट्रेलिया दूसरी तरफ जो प्रवासी श्रम शक्ति पर ही विकसित हैं परन्तु संसाधनों के समय वंचित। दस्तावेज़ी फिल्म निर्माण के मकसद से अलग-अलग देशों के भ्रमण के समय कथाकार फिल्मकार सुरेन्द्र मनन ने फिलस्तीनियों का दर्द, कम्बोडिया की विडम्बना, विएना, मॉरिशस, मलेशिया, रूस की जनता के असंतोष, राजनीतिक विडम्बना, असंतोष की कचोट, अधूरेपन के एहसास को निकटता से महसूस किया और अहमद अल-हलो, कहां हो? किताब में दर्ज किया। ओह कम्बोडिया? रचना में जहां भिक्षुक प्रार्थना बुदबुदा रहा है- ‘तुम्हें स्वर्ग की प्राप्ति हो! तुम्हारा पुनर्जन्म किसी शांतिप्रिय देश में हो’ उसके सामने दीवार पर एक नक्शे का खाका बना है जिसमें छोटे-बड़े आकार की अनेक खोपड़ियां अंकित हैं। दीवार पर बना नक्शा कम्बोडिया का है जो सन् 1979 से पहले कम्पूचिया था और यह जगह बदनाम जेल-एस-21 है। जिन खोपड़ियों के लिए बौद्ध भिक्षु प्रार्थना कर रहा है वे उन कैदियों की हैं जो क्रूर यातनाओं को झेल न पाने के कारण इस जेल में दम तोड़ गये। पैंतीस साल का लम्बा अरसा गुज़र चुका है लेकिन एस-21 में मारे गये (जेल में) 70 हज़ार लोगों की भटकती आत्माएं शांत होने में नहीं आ रही। अंधेरा उतरते ही जेल में मंडराने लगती है। हवा के झौंकों के साथ गलियारों में चीखती-चिल्लाती इधर से उधर भागती हैं। ‘जब और कोई नहीं बोलता तो भूत बोलते हैं’ पंक्ति वाचक के जहन में थी जब जेल एस-21 से बाहर निकला जिससे सामने का पूरा परिदृश्य बदल रहा था। हर स्थान, स्थल, बाज़ार, बस्ती को नया रूप दिया जा चुका था। यातायात से भरी सड़कें, अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियों के सजे दो रूम सभी कुछ रंगत बदल गई थी। पहले वाचक के पास सूचना थी कि पोल पॉट शासन के दौरान वह एक बदनाम जेल रही है। जहां हज़ारों कैदियों को यातनाएं देकर मारा गया था और यहां तैनात कर्मचारियों ने प्रशासन से निवेदन किया था कि भटकती आत्माओं की शांति के लिए उचित व्यवस्था की जाए। लेखक ने चुप्पी के वर्णक की किस्म जाहिर की जिसके परिणाम और प्रभाव में फर्क होता है। चुप्पी कभी अनातिरेक से पैदा होती है और कभी दहशत से जन्म लेती है। किन्तु जिस चुप्पी में लेखक था उसमें कैदियों की चीखों का बवंडर था। उनके सामने एक दस्तावेज़ था जिसके नीचे टिप्पणी थी-160 बच्चों को भी मारा गया। कुल 278 शत्रुओं का सफाया किया गया। पोल पॉट जैसा व्यक्ति जब सत्ता पर कब्ज़ा करता है तो कैसे वह अपना चौखटा तोड़ कर इस तरह फैलने लगता है कि अन्य सभी को अच्छादित कर लेता है। बाहें फैला कर वह बाकी सबको अपनी बाहों के दायरे में लपेट लेता है। कैसे उसमें यह बलवती भावना जन्म लेती है कि हज़ारों, लाखों, करोड़ों लोगों का एकमात्र रहनुमा सिर्फ वही हो सकता है और है। सबकी तरफ से वह स्वयं निश्चित करता है कि क्या होना चाहिए, क्या नहीं और किस तरह से होना चाहिए। वह यह दृढ़ विश्वास अर्जित कर लेता है कि अन्य सब सिर्फ हांके जाने के काबिल हैं। (ओइ कोम्बडिया/ सं. 33) पोल पॉट ने सन् 1975 को शून्य वर्ष घोषित कर दिया था। उसने यह निर्णय लिया कि कम्पूचिया में सैकड़ों वर्षों से जो होता चला आया है। अब तक जिस तरह की इंसानी नस्लें पैदा होती आई हैं। आज तक जो इतिहास रहा है वह सन् 1975 तक आकर खत्म हो गया है। इस बिन्दू से एक नया समय शुरू होगा। इस नए समय में नए किस्म के इन्सान होंगे और एक नया इतिहास रचा जाएगा। वाचक ने सही कहा कि एक निरंकुश सत्ताधारी जितना बर्बर होता है उतना ही डरा हुआ है। वह हर व्यक्ति को संशय से देखता है। हर खटके से चौंकता है। सुरेन्द्र मनन अत्याचारी राजनीति की भीतरी तहों को बोलते हैं और मनुष्य विरोधी शक्तियों की पहचान कराते हैं।