प्रधानमंत्री की प्रैस कान्फ्रैंस लोकतंत्र के लिए निराशा की घड़ी

सोशल मीडिया पर यह खबर तेजी से फैल गई कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने पांच साल के कार्यकाल में पहली बार प्रेस कांफ्रेस को संबोधित करने वाले हैं। सोशल मीडिया से यह खबर पाकर टीवी चैनलों को न देखने की कसम तोड़कर अनेक पत्रकार चैनलों पर जम गए यह देखने के लिए कि प्रधानमंत्री से क्या सवाल किए जा रहे हैं और वे क्या जवाब दे रहे हैं। लेकिन निराशा ही हाथ लगी, क्योंकि प्रधानमंत्री वहां सिर्फ  उपस्थित ही थे। प्रेस कांफ्रेस उनकी नहीं थी, बल्कि पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की थी। निम्न स्तरीय पत्रकारिता की अपनी ख्याति को बचाते हुए सभी चैनल बता रहे थे कि प्रधानमंत्री प्रेस कांफ्रेस कर रहे हैं और पांच साल में पहली बार कर रहे हैं। प्रेस कांफ्रेस समाप्त हो गई और उसके पहले प्रधानमंत्री ने एक भी सवाल का जवाब नहीं दिया। वह मोदी की प्रेस कांफ्रेस इस मायने में थी कि सवाल मोदी जी से ही पूछे जा रहे थे, लेकिन उन्होंने एक सवाल का भी जवाब नहीं दिया। उनसे पूछे गए सारे सवालों के जवाब पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने ही दिए। जब प्रेस कांफ्रेस समाप्त हुई, तो डिजिटल मीडिया ने स्पष्ट किया कि वह कांफ्रेस अमित शाह की थी, जिसमें प्रधानमंत्री भी उपस्थित थे। जाहिर है, पांच साल में पहली प्रेस कांफ्रेस का पत्रकारों का दावा गलत साबित हुआ। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी किसी लोकतांत्रिक देश के एक मात्र शासन प्रमुख हैं, जिन्होंने अपने पूरे कार्यकाल में एक भी प्रेस कान्फ्रेंस का सामना नहीं किया। अमित शाह की कांफ्रेस के बीच में मोदी जी ने पत्रकारों को अपनी तरफ  से संबोधित जरूर किया और उन्हें कहा कि वे कभी पत्रकारों से भाजपा के कार्यालय में इसी तरह घिरे रहते थे। वे 20 साल पहले की बात कर रहे थे, जब वे भारतीय जनता पार्टी के आधिकारिक प्रवक्ता हुआ करते थे। पत्रकारों से अपने अच्छे संबंधों की उन्होंने याद दिलाई, लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि अब वे पत्रकारों से दूर क्यों रहते हैं।  सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि किसी पत्रकार ने प्रधानमंत्री से यह सवाल पूछा ही नहीं कि वे पत्रकारों से क्यों दूर भागते रहे? आधिकारिक प्रवक्ता होने के कारण पत्रकारों से संवाद का उनका पुराना रिश्ता रहा है, लेकिन इसके बावजूद वे पत्रकारों को इतना भी महत्व नहीं देते हैं कि उनसे बातचीत कर सकें और उनके सवालों का जवाब दे सकें। वैसे प्रेस कांफ्रेस तो अमित शाह की ही थी और जवाब वे ही दे रहे थे, लेकिन सवाल प्रधानमंत्री से पूछे जा रहे थे। तो मौके का लाभ उठाकर प्रधानमंत्री से पूछा जा सकता था कि आखिर पत्रकारों से उनकी यह दूरी क्यों?  लेकिन पत्रकारों ने वह सवाल करना उचित नहीं समझा। देश के सामने अन्य अनेक ज्वलंत सवाल हैं, जो उनसे पूछें जा सकते थे। राफेल विमान की कीमत पूछी जा सकती थी। 30 हजार करोड़ रुपये के ऑफ सेट कंट्रेक्ट और अंबानी से जुड़े सवाल पूछे जा सकते थे। बीएसएनएल की दुर्दशा के बारे में भी पूछा जा सकता था कि उसे 4 जी का आबंटन क्यों नहीं किया गया। जियो की उन्नति और बीएसएनएल के पतन के संबंधों के बारे में पूछा जा सकता था। केन्द्र सरकार की 22 लाख रिक्तियों के बारे में पूछा जा सकता था। नोटबंदी की विफ लता या सफलता पर सवाल पूछे जा सकते थे। देश की वित्तीय अवस्था और खासकर बैंकों की दुर्दशा पर भी सवाल पूछे जा सकते थे। जवाब तो प्रधानमंत्री नहीं ही देते। इन सवालों का जवाब अमित शाह ही देते या शायद वह भी नहीं देते, लेकिन पत्रकारों को तो अपने कर्तव्य का निर्वाह करना ही चाहिए था और देश व जनता के दिमाग को मथ रहे सवालों से तो प्रधानमंत्री को रू-ब-रू कराया ही जाना चाहिए था। लेकिन वैसा कुछ भी नहीं हुआ। कुछ राजनीतिक सवाल पूछे गए, जिसका जवाब अमित शाह ने दिया।  जाहिर है, यह प्रेस कान्फ्रें स नहीं, बल्कि प्रेस कांफ्रेस का मजाक था। प्रधानमंत्री चुनाव प्रचार के बीच चैनलों को अपना इंटरव्यू दे रहे थे। लेकिन आरोप लग रहा है कि वे स्क्रिप्टेड होते थे। यानी पहले ही सारे सवाल प्रधानमंत्री को भेज दिए जाते या वे सवाल भी उनके ही लोग तैयार करते। फि र सवाल भी तैयार कर दिया जाता है। सवाल प्रश्नकर्ता पत्रकार पढ़ता है और प्रधानमंत्री पहले से तैयार जवाब पढ़ देते हैं। एक चैनल के इंटरव्यू में यह प्रमाणित भी हो गया। प्रधानमंत्री से एक सवाल पूछा गया था, जिसके जवाब में उनको कथित रूप से स्वलिखित कविता पढ़नी थी। सवाल के बाद उन्होंने अपना एक कागज निकाला, जिसपर उनकी कविता लिखी हुई थी, लेकिन उसी पन्ने पर वह सवाल भी ऊपर में लिखा हुआ था, जिस सवाल को प्रश्नकर्त्ता पत्रकार ने पूछा था। पूछा गया सवाल और उस पन्ने पर लिखा गया सवाल अक्षरश: एक था। उसके बाद किसी प्रकार का संशय नहीं रहा कि न्यूज चैनल वाले अपने दर्शकों की आंखों में धूल झोंक रहे हैं। वे उसे इंटरव्यू कह रहे हैं, जो इंटरव्यू है ही नहीं। उसी तरह से जिसे वे प्रधानमंत्री की प्रेस कांफ्रेस कह रहे थे, वह प्रधानमंत्री की प्रेस कांफ्रेस थी ही नहीं, वह अमित शाह की प्रेस कांफ्रेस थी। लेकिन जिस तरह के सवाल पूछे गए उससे तो यह लगता है कि वह प्रेस कांफ्रेस भी नहीं थी। या तो इंटरव्यू की तरह वह भी पहले से ही नियोजित थी या अब पत्रकारों में सवाल पूछने की ताकत ही नहीं रह गई है। वे डरे हुए थे कि कहीं अमित शाह या प्रधानमंत्री नाराज तो नहीं हो जाएंगे। उन्हें इस बात का भी डर सता रहा होगा कि कहीं अगली बार इस तरह की कथित प्रेस कांफ्रेस में उन्हें बुलावा ही नहीं मिले और यदि बुलावा नहीं मिला, तो फि र उनकी नौकरी ही चली जाएगी। तो आज पत्रकारिता का यह दौर आ गया है। यह लोकतंत्र के लिए सच में ही निराशा की घड़ी है। (संवाद)