मतदाता जाए तो जाए कहां?


राजनीतिक दलों व उनके चुनाव चिन्हों पर भी आरम्भ से दृष्टिपात करें तो पायेंगे कि इनमें पार्टी की स्थापना से लेकर अनेक उतार-चढ़ाव व बदलाव देश की जनता ने देखे हैं। किसी भी राजनीतिक दल का चुनाव चिन्ह व उसका मुखिया या पार्टी के अहम् और वर्चस्व की लड़ाई का परिणाम पार्टी का दो खेमों में विभाजन भी एक ऐसी परम्परा रही है, जिससे मतदाता अपने को ठगा-सा महसूस करता है, या फिर चुनाव जीतने के बाद पाला बदल कर दूसरी पार्टी में झण्डे वाली कार व गद्देदार कुर्सी के चक्कर में चले जाना रहा है। बेचारा मतदाता जाये तो जाए कहां, क्योंकि अपवाद रूप में कुछ को छोड़ कर हमाम में लगभग सभी नंगे हैं। 
वायदे और वायदों की झड़ी चुनावी दिनों में वोट बटोरने की दुधारू गाय मतदाता  को मानते हैं। कांग्रेस के इतिहास में ‘दो बैलों की जोड़ी’ से लेकर ‘हाथ’ तक जनसंघ के दौर में ‘जलता दीपक’ से लेकर ‘खिलता कमल’ और कम्युनिस्ट पार्टी का ‘हंसिया और दराती’ सभी मजदूर, किसान, बेरोज़गार युवा, महिलाओं व बच्चों की सुरक्षा, इनेलो, लोकदल  हर कोई किसान की बात करता है कि उसे उसकी फसल का लागत मूल्य भी नहीं मिलता, जबकि खाद, बिजली व पानी महंगा है। भरपूर फसल प्राप्त करने के लिए ‘खाद’ व सिंचाई के लिए बिजली 24 घंटे नहीं आती। 
महंगा बिजली का बिल किसान की कमर तोड़ देता है तथा किसान का समूचा परिवार खेतों में गर्मी, सर्दी, धूप व बरसात की परवाह किए बिना दिन-रात जुटा रहता है ताकि घर में कुछ दाने आ जाएं तथा विवाह योग्य घर में कन्या के हाथ पीले कर सकें।
 परन्तु कुदरत की मार के आगे (मौसम परिवर्तन) के कारण जब उसकी लहलाती फसल खेतों में बर्बाद हो जाती है तब वह शून्य की ओर देखता है, ऊपर से उधार लिए पैसे का कज़र् व ब्याज़ चुकाने की चिन्ता उसका जीना हराम कर देती है। चुनावों में विजयी होकर नेताओं ने क्या कभी सोच कर उनकी सुध ली?
—सतीश शर्मा