जाने-अनजाने खा रहे हैं लोग प्लास्टिक


माइक्रोप्लास्टिक के इस संकट के प्रति देश में जागरूकता और सरकारी कोशिशें अभी बहुत कम हैं। हमारा शरीर पंच तत्वों से मिलकर बना है। अब इसमें माइक्रोप्लास्टिक भी शामिल है। माइक्रोप्लास्टिक यानी प्लास्टिक का सूक्ष्म अंश। प्लास्टिक हमारे चहुंओर है। घरों में, सड़कों पर, गली-मुहल्लों, नालियों, झीलों, तालों में, नदियों में, महासागरों में, मिट्टी में भी है। यह कीटों, कीड़ों, कछुओं और मछली में भी हैं तो गाय और चिड़ियों में भी है। यह रिसकर हमारे खाने-पीने में आ ही चुका है तो खून और मांस में भी शामिल हो जाने में क्या शक है? साल 2016 में समुद्र में 70 खरब प्लास्टिक के टुकड़े मौजूद थे। कम से कम 80 लाख टन प्लास्टिक हर साल सागरों में जाकर मिल रहा है। उम्मीद है कि 2050 तक सागर में मछलियों से ज्यादा प्लास्टिक तैर रहा होगा। यह प्लास्टिक समुद्री पानी में टूटकर माइक्रोप्लास्टिक में बदल रहा है। इसीलिये तो हमारे नमक में आज सोडियम के साथ प्लास्टिक भी है।
देश के बाजार में बिकने वाले 90 फीसदी नमक में प्लास्टिक के कण और रेशे भारी मात्रा में मौजूद हैं। इसलिए हम हर रोज थोड़ा प्लास्टिक खा रहे हैं, पीते भी हैं क्योंकि वह नल के पानी में भी है और बोतलबंद पानी में भी। नलों में इसलिये क्योंकि शोधन संयंत्रों में यह छनकर अलग नहीं हो पाते हैं। नाले, सीवरेज का पानी जिसमें प्लास्टिक मिला होता है, उसके ठोस अपशिष्ट छन जाते हैं, बैक्टीरिया दूर कर दिये जाते हैं और फिर उसका खारापन भी इस तरह रासायनिक तौर पर उपचारित कर नदियों में डाल दिया जाता है। पर इस पानी में से माइक्रोप्लास्टिक नहीं छन पाते। वह जलकण संस्थानों के संयंत्रों से निकलकर हमारे घरों के नलों तक आ जाता है। सामान्य वाटर फि ल्टर या प्योरीफाइर भी इसको पेय जल से अलग नहीं कर पाता।
नल के पानी से परहेज करें तो महंगा बिकने वाला बोतलबंद पानी भी कहां सुरक्षित है। बोतलबंद पानी बेचने वाली एक बड़ी कंपनी का प्रचार अभियान अचानक बहुत तेज हो गया है, ऊंटों के माध्यम से यह बताने के लिये अभियान चलाया गया है कि यही पानी सर्वश्रेष्ठ है। सही बात यह है कि पिछले साल वैश्विक सर्वेक्षण में इस बोतलबंद ब्रांड की गुणवत्ता सबसे निकृष्ट पायी गयी थी। ब्रिटेन की एक वेबसाइट ने कहा था कि संसार में दूसरा सबसे खराब बोतलबंद पानी भारत की उपरोक्त कम्पनी का है जिसमें 5,230 माइक्रोप्लास्टिक कण हैं। असल में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पीने के पानी में माइक्रोप्लास्टिक्स की आशंका को भांपने के लिये नौ देशों में 19 स्थानों से अलग-अलग ब्रांडों की 259 पानी की बोतलों का विश्लेषण किया। इन जांचों में हर लीटर पानी में औसतन 325 माइक्रोप्लास्टिक कण पाये गये यानी प्रति लीटर पानी में 10,000 तक माइक्रोप्लास्टिक कण मिले। 
न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा अपनी जांच में पाया कि बोतलबंद पानी में सबसे आम प्लास्टिक कण पॉलीप्रोपाइलीन था। जर्मनी में जहां लोग पानी की तरह बीयर पीते हैं, यह माइक्रोप्लास्टिक उसके भीतर भी मिला। गैर-लाभकारी संस्था टॉक्सिक्स लिंक ने एक अध्ययन में पाया कि देश में बिकने वाले प्रसाधन सामग्री संबंधित उत्पादों में माइक्रोप्लास्टिक्स की उपस्थिति भरपूर मात्रा में है। 
डिब्बाबंद समुद्री खाद्य पदार्थ अब खूब बिकने लगे हैं। इसमें भी बेहिसाब माइक्रोप्लास्टिक पाया गया है। पॉलीप्राजीलीन, पॉलीएथिलीन, टेरेप्थलेट आदि प्लास्टिक के ही ऐसे रूप हैं, जो सूक्ष्म कणों के रूप में जल,भोजन एवं वायु के साथ हमारे शरीर में प्रवेश कर हमें अदृश्य तौरपर नुकसान पहुंचा रहे हैं। भले बीयर और डिब्बाबंद सी फूड कभी-कभार की बात हो पर नमक और पानी का इस्तेमाल दैनिक जीवन में होता है। दुनिया के तीसरे सबसे बड़े नमक उत्पादक देश भारत के हर किलोग्राम नमक में 63.76 माइक्रोग्राम माइक्रोप्लास्टिक घुला होता है। औसत तौरपर देखें तो प्रत्येक भारतीय हर साल 177 माइक्रोग्राम माइक्रोप्लास्टिक तो केवल नमक के साथ ही गटक लेता है। पानी और दूसरे रास्तों से भी यह हम में काफी मात्रा में प्रवेश पा रहा है। यह माना जा सकता है कि अभी इसकी मात्रा कम है, निसंदेह भविष्य में बढ़ेगी। ऐसी स्थिति में हम हर रोज कितना माइक्रोप्लास्टिक शरीर में समाएंगे, कहना मुश्किल है फिलहाल यह कहना भी आसान नहीं कि इसके नुकसान किस कदर बड़े होंगे। यह तो आंक लिया गया है कि माइक्रोप्लास्टिक नुकसानदेह है पर दुनियाभर की सरकारों के पास पानी और भोजन में प्लास्टिक के लिए सुरक्षित सीमा क्या हो, इसका कोई मानक नहीं है। मछलियों, केकड़ों और दूसरे जलीय जंतुओं पर प्रयोग किये गये हैं। लारवा इसे खाकर मर जाते हैं, मछलियां बीमार पड़ जाती हैं। केकड़ों की भूख मर जाती है। बड़े समुद्री जीवों से लेकर चिड़ियों तक पर इसका असर है। पर यह पता लगना बाकी है कि मनुष्य के लिये कितनी मात्रा घातक होगी या जो मात्रा मनुष्य ले रहा है कहीं वह दूरगामी तौर पर घातक तो नहीं। वैज्ञानिक कहते हैं कि माइक्रोप्लास्टिक की ज्यादा मात्रा बेशक नुकसानदेह हो सकती है। लगातार इसका संपर्क कैंसरकारक हो सकता है। 
एक डच फाऊंडेशन ओशन क्लीनअप समुद्र में 100 किलोमीटर लंबा तैरने वाले बांध जैसी संरचना बनाकर कचरे को छानने का प्रयास कर रहा है। मैड्रिड स्थित स्पेन की एक कंपनी इकोआल्फ  मछुआरों को समुद्र से प्लास्टिक कचरा निकलवा कर खरीदती है और इसे पीस कर पॉलिएस्टर फाइबर बनाती है। इससे वह जैकेट, बैकपैक और दूसरी फैशनेबल चीजें बनाती है। दुनिया के कई हिस्सों में बेकार प्लास्टिक कचरे से सड़कें बनाई जा रही हैं। ईरान सहित कुछ दूसरे देश प्लास्टिक को छोटे टुकड़ों में तोड़कर उन्हें भवन निर्माण में इस्तेमाल कर रहे हैं। प्लास्टिक की जगह बांस के पौधे से टूथब्रश से लेकर बाथरूम के पर्दे, बर्तन यहां तक कि कंप्यूटर के की-बोर्ड, माउस और मॉनिटर भी बनाए जा रहे हैं। पायरोलाइसिस की प्रक्रिया के तहत प्लास्टिक को ईंधन के रूप में बदलने का प्रयास है।
वनस्पति पदार्थों से पैकेजिंग के सामान बनाना भी जारी है। यह सब हो रहा है पर जिस तरह हर साल तकरीबन एक किलो नया प्लास्टिक प्रत्येक व्यक्ति के लिये बनता जा रहा है। इसका मतलब ये सारी कोशिशें नाकाफी हैं। माइक्रोप्लास्टिक न बने इसलिये प्लास्टिक को जला दें पर तब ग्रीन हाउस गैस का मसला आयेगा। उच्च कोटि का इंसिरेटर या भस्मक इस्तेमाल हो तो बात और है। पर एक प्लास्टिक से सस्ते में दूसरा प्लास्टिक बनाने वाली इंडस्ट्री ऐसा कब चाहेगी। सरकार घरेलू कचरे से कंपोस्ट बनाने की बात कह रही है,स्वच्छता अभियान में घर-घर से कूड़ा उठाया जा रहा है पर जर्मनी ने इसी घरेलू कचरे में माइक्रोप्लस्टिक पाया गया है। यह कम्पोस्ट खाद खेतों और फसलों को माइक्रोप्लास्टिक बांटेगी। दुनिया का एक तिहाई प्लास्टिक ही रीसाइकिल हो पा रहा है, जरूरत है बड़े और दूसरे रूपों में इस्तेमाल हो। फिलहाल आप तो माइक्रो प्लास्टिक वाले समुद्री नमक से बचने के लिये सेंधा या लाहौरी नमक खाइये। 
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर