आदिवासियों के लिए लड़ने वाली महिला


इस सरजमीं पर लाखों लोगों ने जन्म लिया और अपनी ज़िन्दगी जी कर चले गये। सिर्फ वही अपने कदमों के निशां छोड़ पाये जिन्होंने जीवन से कुछ बड़ा (रुद्गठ्ठद्दद्गह्म् ह्लद्धद्गठ्ठ द्यद्बद्घद्ग) रचा या किया। ‘आपहुंदरी’ आत्मकथा की लेखिका ‘युद्धरत आम आदमी पत्रिका की लेखिका रमणिका गुप्ता ऐसे ही कुछ गिनेच-चुने लोगों में से एक थीं। ‘दलित साहित्य’, ‘जन-जातिय साहित्य’ के लिए किया गया उनका काम खास मायने रखता है। गोया वह हाशिए पर पड़े आदमी, जन-जातीय उपेक्षित लोगों, कबीले के लोगों की अनसुनी आवाज़ को सुनाने के लिए प्रतिबद्ध नहीं हैं।
आदिवासी समाज के लिए उन्होंने समर्पित भाव से अभियान चलया। उस समाज के लोगों के बीच जाकर घुल-मिल गईं। उनके झौपड़े में रहीं। उनके मुद्दों को मुख्य धारा में लेकर आईं। आन्दोलन किया। धरने-प्रदर्शन में साथी बन कर रहीं, जल गईं, उच्चतम न्यायालय में जाकर दस्तक दी। दलित, स्त्री और अल्प-संख्यक विषय पर साहित्य का काम 1985 से ही आरम्भ कर दिया था। आदिवासी साहित्य पर 1998 से आरम्भ किया था। नूतन कुमारी ने उनसे एक साक्षात्कार में दलित साहित्य और जन-जातीय साहित्य में अंतर के विषय में जब पूछा तो उनका उत्तर था कि दोनों में कुछ मुद्दे समान हैं। बाकी मुद्दों में केवल अंतर ही नहीं, वे विपरीत भी हैं। उनकी नज़र में समान मुद्दे थे- हिन्दुओं की नज़र में दलित और आदिवासी का समय होना। वे दोनों अछूत हैं। दोनों अपना फैसला खुद नहीं ले सकते। उनके फैसले स्वर्ण, अभिजात समाज या आगे बढ़ी हुई जमातें ही करती हैं। अर्थात् दोनों जमातें परजीवी हैं। यानी दूसरों पर आश्रित हैं। जीवन-यापन यहां तक निर्जीव के लिए या जीने की दिशा निर्धारण करने के लिए भी थे, दूसरों पर निर्भर हैं। एक अदृश्य है अच्छूत है। दूसरी बहिष्कृत-निष्कासित दोनों को अलजित रखा गया। दोनों अपनी पहचान और आत्म सम्मान की लड़ाई लड़ रहे हैं और दोनों की मुक्ति का रास्ता भी आत्म-सम्मान-पहचान और आत्म-निर्भरता का। लेकिन दोनों की समस्याएं भिन्न हैं। दलित स्थापित है- भले गांव के टोले के दक्षिण में ही नहीं पर आदिवासी जहां है - उन्हें वहां से विस्थापित किया जा रहा है।’
इसी अंतर को समझते हुए कहा- दलित के पास न ज़मीन है, न धन व अपनी भाषा है और न ही अपनी संस्कृति, उन लोगों को सारे अधिकारों से वंचित करके हिन्दू धर्म के पिछलग्गू बना कर रख दिया गया। दलितों को कुछ पाना है ताकि वे मनुष्यता का अधिकार प्राप्त कर सकें। वे पशुवत ज़िन्दगी जीते रहे चूंकि उनके सारे अधिकार छीन लिए गये। वे सवर्णों की बस्तियों के पास ही रहते हैं ताकि उनकी सेवा कर सकें। उन लोगों की अपनी कोई पहचान नहीं बनने दी गई। अदिवासियों की बावत कहा कि उनके पास अपनी ज़मीन थी और है। उनके पास जंगल हैं। अपनी भाषा है। अपनी संस्कृति है और उनकी अपनी जीवन शैली-आदिवासी न सिर्फ सदियों से बहिष्कृत किये जाते रहे बल्कि वे मुख्य धारा में उनसे दूर अपने बल पर जिंदा रहते आए हैं। अपनी भाषा-संस्कृति और अपनी जीवन शैली को उसने हज़ारों वर्ष से बचाए रखा है, उसे जंगलों में भगा दिया गया था। अब ़गैर आदिवासी समाज जंगल का दोहन करने के लिए उसके संसाधनों को छीनने जाता है, कुछ देने नहीं, यानी उसका सामाजिक और राजनीतिक शोषण करने जाता है।
रणमिका गुप्ता की (22 अप्रैल, 1930 से 23 मार्च 2019) का उपेक्षित दलित समाज जन-जातियों के प्रति समर्पित साहित्य का काम उल्लेखनीय है और रहेगा। मजदूर आन्दोलन को लेकर भी उत्साहित रही हैं। झारखंड के हज़ारीब़ाग के कोयतांचल से मजदूर आन्दोलनों को साहित्य के ज़रिये राष्ट्रीय फलक तक ले जाने का काम किया। वह विधायक भी नहीं हैं। ट्रेड यूनियन नेता भी। पिछले दो महीनों से वह बीमार होने के कारण बिस्तर में ही रहीं। पिछले पांच सालों में कई बार बीमार हुईं, कई बार वापिस लौटीं, परन्तु इस बार...? उनके सरोकार उनकी  पक्षधरता उनके काम करने के उत्साह के साथ-साथ उनकी विद्रोही आवाज़ को सलाम।