क्या भविष्य पर भारी पड़ रहा है भूत ?

संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक पिछले साल यानी साल 2018 में दुनिया में 65 साल से ज्यादा उम्र के बूढ़ों की तादाद करीब 70.5 करोड़ हो गयी है, जबकि इस दौरान शून्य से चार साल तक के बच्चे करीब 68 करोड़ थे। सवाल है आखिर इस डाटा के क्या मायने हैं? क्या इसके वाकई कई डरावने मायने हो सकते हैं ? क्या वाकई इससे कई गंभीर आशंकाएं पैदा हो गयी हैं ? या फि र कुछ भी नहीं और चूंकि पहली बार इस तरह का आंकड़ा सामने आया है, महज इसीलिये यह हम सबको चौंका रहा है ? संयुक्त राष्ट्र की ही एक अन्य रिपोर्ट बताती है कि सन 2050 तक दुनिया की आबादी बढ़कर 9.7 अरब हो जाएगी।  सवाल है आखिर इस विरोधाभास के मायने क्या हैं ? वास्तव में इन आंकड़ों में कोई असहजता पैदा करने वाला विरोधाभास नहीं है। जनसांख्यिकी विशेषज्ञ पिछले कई दशकों से जनसंख्या संबंधी तमाम आंकड़ों पर नजर रखे हुए हैं। ऐसे में इस रिपोर्ट का मतलब यह है कि दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में इंसान की जीवन प्रत्याशा बढ़ रही है। लोग लंबे समय तक जी रहे हैं, साथ ही यह भी सच है कि वे बच्चे कम पैदा कर रहे हैं। लोगों में बच्चे कम पैदा करने के मामले में घटती दिलचस्पी के कई कारण हैं। कुछ लोग इतना कमा नहीं पाते कि वे कई कई बच्चों को  पाल सकें। कई लोगों की लाइफ स्टाइल इतनी व्यस्त है कि उसमें किसी भी बात के लिए समय नहीं है न तो सेक्स के लिए और न ही बच्चे पालने के लिए।
डेनमार्क जैसे समृद्ध देश में भी यही संकट है इसलिए चार साल पहले यहां की सरकार ने आगे आकर लोगों को ज्यादा बच्चे पैदा करने के लिए अपील करनी शुरू की थी। इसके लिए डेनिस सरकार ने एक विज्ञापन, ‘डू इट फ ॉर मॉम’ का सहारा लिया। वास्तव में चार साल पहले जब डेनमार्क सरकार ने ये विज्ञापन शुरू किया था तब यहां की जनसंख्या दर पिछले 27 सालों में सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई थी। इसलिए सरकार ने डेनमार्क वासियों से जनसंख्या बढ़ाने की अपील की। यह एक अकेले डेनमार्क  की कहानी नहीं है, उत्तर यूरोपीय देशों में ज्यादातर की यही समस्या है। यहां लोगों की कोशिशों के बाद भी बहुत कम बच्चे पैदा हो रहे हैं। जबकि इतिहास में लंबे समय तक ये देश अपनी मजबूत प्रजनन दर के लिए जाने जाते रहे हैं। मगर वर्तमान सच्चाई यही है कि यहां की आबादी तेजी से बूढ़ी हो रही है जबकि बच्चे पैदा नहीं हो रहे।  नार्वे, डेनमार्क की ही कहानी फि नलैंड और आइसलैंड में अपने को दोहराये जाने की तरफ  बढ़ रही है। यहां भी जन्म दर में भारी कमी आ चुकी है। साल 2017 में यह 1.49-1.71 बच्चे प्रति महिला तक आ गई जो ऐतिहासिक रूप से सबसे कम है। जबकि महज कुछ हाल पहले तक इनकी जन्मदर 2.1 के आस पास थी जो उनकी आबादी को स्थिर बनाए रखने के लिए जरूरी थी।  गौरतलब है कि मरे ने साल 2018 में एक पेपर भी लिखा था जिसमें उन्होंने कहा था कि दुनिया के लगभग आधे देशों में आबादी के मौजूदा आकार को बरकरार रखने के लिए पर्याप्त बच्चे नहीं हैं। वह अपने इस पेपर में लिखते हैं, ‘पोते-पोतियों से अधिक दादा-दादी वाले समाज में इसके सामाजिक और आर्थिक परिणामों के बारे में सोचिए।’  
साल 2017 में जीवन प्रत्याशा बढ़कर 72 साल हो गई है। हम लंबे समय तक जी रहे हैं। जैसे-जैसे हमारी उम्र बढ़ रही है हम ज्यादा संसाधनों की मांग कर रहे हैं। इससे पेंशन और स्वास्थ्य सेवा क्षेत्रों पर दबाव बढ़ रहा है। घटती जनसंख्या वाले देशों के मुकाबले जिन देशों में अभी भी जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है क्या उन्हें इस स्थिति का फायदा मिलेगा ? पहले बहुत सरलीकृत ढंग से भारत और चीन जैसे देश सोचा करते थे कि इसका उन्हें फायदा मिलेगा। लेकिन ऐसा नहीं होने वाला। चीन तो वैसे भी जनन प्रतिबंध के कारण अपनी जनन दर प्रभावित कर चुका है। इसलिए वहां भले उत्तरी यूरोपीय देशों जैसी जनन दर की समस्या न हो लेकिन उसी दिशा में बढ़ रहा है। भारत की समस्या दूसरी है। भारत में जनसंख्या दर में भले ज्यादा गिरावट न आयी हो। लेकिन अभी भी हमारी बहुत बड़े पैमाने पर जनसंख्या मानव संसाधन नहीं है। दूसरे शब्दों में भारत की बहुसंख्यक जनसंख्या अभी संसाधन नहीं बोझ है। इसलिए हम भी इसका फायदा नहीं उठा पायेंगे। ऐसे में बेहतर यही है कि दादा-दादी, पोता-पोती की कीमत पर न बढ़ें।               -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर