क्या सफल हो सकती है बेल्ट रोड योजना ?


हालांकि चीन ने एक भारी-भरकम इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजना दुनिया के सामने कुछ साल पहले रख दी थी, लेकिन इस बाबत बीआरआई फोरम का पहला सम्मेलन वर्ष 2018 में बुलाया गया था, जिसमें 100 से ज्यादा मुल्कों ने भाग लिया था और ऐसा लगने लगा था कि चीन को अपनी इस परियोजना के लिए शेष दुनिया से भारी समर्थन मिल रहा है। हालांकि भारत ने इस सम्मेलन का तब भी बहिष्कार किया था, क्याेंकि ‘चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा’ (सीपीईसी) इसी बड़ी योजना का हिस्सा बताया गया है। लेकिन पिछले माह के अंत में जब बीआरआई फोरम का दूसरा सम्मेलन आयोजित किया गया तो दुनिया भर से इस परियोजना के संदर्भ में कई प्रश्न चिन्ह लगने शुरू हो गए हैं और यही नहीं, चीन का आत्मविश्वास भी पहले के मुकाबले कुछ कम दिखाई दे रहा है। इससे बीआरआई की सफलता की संभावना पर सवालिया निशान लगना शुरू हो गया है। 
क्या है बीआरआई?
इस योजना के अनुसार दुनिया के अधिकांश हिस्से को सड़क, रेल और जल मार्ग के माध्यम से जोड़ते हुए, व्यापार को विस्तार दिया जाएगा। इस प्रस्ताव को ऐतिहासिक ‘सिल्क मार्ग’ की अवधारणा से जोड़कर दिखाने का प्रयास किया जा रहा है। इसके अलावा बीआरआई विश्व में कई गलियारों के मार्ग को प्रशस्त करेगी। इस बैल्ट रोड पहल में प्राथमिक तौर पर सिल्क रोड इक्नॉमिक बेल्ट है जो चीन को मध्य एवं दक्षिण एशिया और उसके बाद यूरोप से जोड़ेगी। इसके साथ ही एक नई समुद्री सिल्क रोड होगी, जो चीन को दक्षिण-पूर्व एशिया, खाड़ी के देशों, उत्तरी अफ्रीका और यूरोप तक से जोड़ेगी। इसके अतिरिक्त 6 अन्य आर्थिक गलियारों की बात की गई है, जो इस बेल्ट और रोड को दूसरे देशों से जोड़ेंगे। अभी यह प्रयास कहां तक जाएगा और यह क्या आकार लेगा, उस पर बात चल ही रही है। 
बताया जा रहा है कि इस योजना के पूरे होने से विभिन्न मुल्कों के बीच सड़क, रेल और जल मार्ग की कनेक्टिविटी तो सुधरेगी, जिससे सामान की आवाजाही आसान और सस्ती होगी। साथ ही साथ इससे समय की भी बचत होगी। देखा जाए तो चीन से मध्य यूरोप तक जलमार्ग से सामान पहुंचने में अभी 30 दिन से ज्यादा का समय लगता है, जो अब रेल के द्वारा आधे समय में ही पहुंच जाएगा। फैक्टरी से गंतव्य तक सामान पहुंचने में देरी के कारण व्यापार बाधित होता है और उसमें कमी आ जाती है। व्यापार को बढ़ावा देने से दुनिया में ग्रोथ बढ़ेगी, ऐसा माना जा रहा है। बीआरआई की सफलता दुनिया के महत्वपूर्ण गलियारों (कारिडोरों) में व्यापार को आसान कर देगी।
जैसा कि प्रस्ताव है इस योजना में चीन समेत 66 देशों की भागीदारी अपेक्षित है। चूंकि यह योजना अभी पूरा आकार नहीं ले पाई, इसलिए यह बता पाना मुश्किल है कि वास्तव में इस पर कुल कितना निवेश होगा। लेकिन एक मोटे अनुमान के अनुसार इस पर चीन का निवेश 1 खरब डालर से 8 खरब डालर यानि 1000 से 8000 अरब डालर, तक हो सकता है। इसके साथ दुनिया के अन्य मुल्कों की सरकारों और निजी क्षेत्र द्वारा भी इसमें निवेश होगा, इसलिए कुल कितना निवेश इस परियोजना में हो सकता है, इस पर टिप्पणी करना आसान नहीं है। लेकिन यह निवश इतना ज्यादा है कि इसके वित्त पोषक (फाइनेंसिंग) पर चीनी सरकार समेत कोई भी टिप्पणी करने के लिए तैयार नहीं है। 
इस योजना में प्रस्तावित भागीदार मुल्कों का हिस्सा दुनिया के कुल व्यापार और जीडीपी में हालांकि लगभग एक तिहाई ही है, लेकिन यहां दुनिया की दो तिहाई जनता रहती है। इनमें कई मुल्क तो ऐसे हैं जहां गरीबी का अनुपात 20 प्रतिशत से भी ज्यादा है। ऐसा बताया जा रहा है कि ऐसे में व्यापार के अवरोध कम होने से न मुल्कों की जनता के कल्याण में वृद्धि होगी। इन्फ्रास्ट्रक्चर के अभाव में अधिकांश मुल्कों के संसाधनों का पूरा उपयोग नहीं हो पाता, इसलिए वे विकास में पिछड़ जाते हैं। इसकी भरपाई बीआरआई से हो सकती है।
लेकिन देखा जाए तो बीआरआई के जो फायदे गिनाए जा रहे हैं, वे आसानी से मिलने वाले नहीं हैं। यदि योजना के अनुसार सड़कें और रेल बन भी जाएं और उनको जलमार्ग से जोड़कर आवाजाही हो भी जाए तो जरूरी नहीं है कि व्यापार बढ़ जाए। विश्व बैंक का मानना है कि टैरिफ  और अन्य बाधाओं के कारण व्यापार अवरुद्ध ही रह सकता है। साथ ही साथ खरबों की लागत से इतने बड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर को बनाना, चीन के बूते की बात तो है नहीं और यह काम इतना जोखिम भरा है कि बाकि देश इसमें हामी भरने के लिए भी तैयार नहीं है। जिन मुल्कों में यह इन्फ्रास्ट्रक्चर बनता है, वे अधिकांशत: संसाधनों की दृष्टि से इतने कमजोर हैं कि वे दूसरे मुल्कों (जैसे चीन) पर इस बाबत निर्भर हो जाएंगे। उन पर भारी कर्ज उन्हें और गरीब बना सकता है। बीआरआई के कारण लिए जाने वाला प्रस्तावित कर्ज का बीआरआई देशों पर उधार/जीडीपी अनुपात को भारी रूप से बढ़ा सकता है जो इन देशों की संप्रभुता को ही खतरे में डाल सकता है। इसलिए वे इसमें भागीदारी से कतरा रहे हैं। विश्व बैंक का कहना है कि अधिकांश बीआरआई देशों में विधि (लीगल) व्यवस्था इतनी मजबूत नहीं है कि वह निवेशकों के अधिकारों का संरक्षण कर सके। इसलिए इस योजना के क्रियान्वयन हेतु अलग-अलग मूल्कों को इस संबंध में कदम उठाने पड़ेंगे, जो आसान काम नहीं होगा।
गरीब मुल्कों पर बढ़ सकता है कर्ज का बोझ
इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाने का निर्णय संप्रभु देशों द्वारा स्वयं लिया जाता है। लेकिन जब यह निर्णय दूसरे (या यूं कहें प्रभावशाली) मुल्कों के दबाव में लिया जाता है तो उसका प्रभाव देशों की संप्रभुता पर पड़ता है और उन्हें अपने देश के हितों के खिलाफ फैसले लेने पड़ सकते हैं। अभी इसका एक उदाहरण श्रीलंका में देखने को मिला। जब चीन ने श्रीलंका के हबनटोटा बंदरगाह का निर्माण अपने हाथ में लेकर श्रीलंका पर अरबों डालर के कर्ज का बोझ डाल दिया। ऋ ण न चुका पाने की स्थिति में श्रीलंका  को अपना बंदरगाह चीन को 99 साल की लीज पर देना पड़ा।
भारत ने इस योजना का बहिष्कार करते हुए यह कहा है कि इस योजना से अधिकांश बीआरआई देशों पर कर्ज असहनीय स्तर को पार कर जायेगा। हालांकि भारत का मुख्य विरोध चीन द्वारा पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाले कश्मीर में सीपीइसी का निर्माण है, भारत ने इस बाबत यह कहा है कि इस प्रकार की कनेक्टिविटी की कोई भी योजना सार्वभौमिक रूप से स्वीकार्य अंतर्राष्ट्रीय मानकों, नियमाधारित, खुलेपन, ट्रांसपिरेंस और बराबरी पर आधारित होना चाहिए। ऐसे प्रयास वित्तीय दायित्व पर आधारित हों और ऐसी योजनाओं को लागू न किया जाये, जो असहनीय कर्ज का बोझ बढ़ाये। 
जितने जोश से बीआरआई का प्रस्ताव आया था, दुनिया के बड़े मुल्कों, खासतौर पर जहां से निवेश अपेक्षित है, की बेरूखी इस योजना की सफलता पर प्रश्नचिन्ह लगा रही है।
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