विपक्ष को ले डूबी विकल्पहीनता 

चुनाव प्रचार को कवर करते हुए उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश सीमा पर सुनवारा गांव में 65 वर्षीय किसान अशोक कुमार से मुलाकात हुई जो पूरी रात आवारा पशुओं से अपने खेत की रखवाली करके लौटे थे। आवारा पशुओं की बहुत बड़ी समस्या है, जिसके लिए अशोक कुमार सीधे तौर पर उत्तर प्रदेश की योगी सरकार को दोषी मानते हैं, लेकिन जब उनसे यह मालूम किया गया कि लोकसभा चुनाव में वह किसको समर्थन देंगे तो उनका तपाक से जवाब था, ‘मोदी को’ इसकी वजह जानने पर उनका सवाल था कि केंद्र में विकल्प क्या है। हालांकि बेरोज़गारी, नोटबंदी, जीएसटी आदि मुद्दों को लेकर मोदी सरकार के खिलाफ  लोगों में काफी आक्रोश था, लेकिन उसका कोई विकल्प नहीं था। जनता नरेंद्र मोदी को एक और अवसर देना चाहती थी। सवाल है क्या एनडीए की शानदार जीत का एकमात्र यही कारण है। नहीं, यह तस्वीर का एक ही रुख है। इन नतीजों का एक पहलू यह भी है कि जनता ने विपक्ष को पूरी तरह से नकार दिया है बल्कि विपक्ष की महत्वकांक्षा को पराजित कर दिया है। ऐसा अकारण नहीं, अब कुछ तथ्यों को देखिये। 2014 में भाजपा की बड़ी जीत उत्तर प्रदेश में हुई थी कि उसे 80 में से 73 सीटें हासिल हुई थीं। इसका बड़ा कारण यह था कि विपक्ष सपा, बसपा व कांग्रेस में बंटा हुआ था। इस साल सपा व बसपा ने अपनी 25 वर्षीय पुरानी दुश्मनी को भुलाया और गठबंधन किया, इसमें अजित सिंह की रालोद को भी शामिल कर लिया, लेकिन कांग्रेस को इससे दूर रखा। नतीजा यह हुआ कि विपक्ष के मत फि र विभाजित हुए और भाजपा को वह नुकसान नहीं हुआ जो कांग्रेस के गठबंधन में शामिल होने से हो सकता था। कांग्रेस को गठबंधन से दूर रखने की जिद्द बसपा की सुप्रीमो मायावती की थी, क्योंकि उनकी महत्वकांक्षा संभावित खिचड़ी सरकार में प्रधानमंत्री बनने की थी। उनको लगता था कि अगर वह बड़ी पार्टी के रूप में उभरेंगी तो उनकी दावेदारी मज़बूत होगी। अपनी महत्वकांक्षा में मायावती को ‘न खुदा ही मिला न विसाले सनम’। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की महत्वकांक्षा भी कुछ मायावती जैसी ही थी, उन्होंने न तो अपने राज्य में कांग्रेस से गठबंधन किया और न ही दिल्ली व अन्य जगहों पर ‘आप’ को कांग्रेस से गठबंधन करने दिया। अब यह खबर किसी से छुपी हुई नहीं है कि ममता बनर्जी ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर दबाव बनाया था कि वह कांग्रेस से हाथ न मिलाएं। हुआ यह कि दोनों तृणमूल कांग्रेस और ‘आप’ को भारी पराजय का सामना करना पड़ा। पश्चिम बंगाल में एक और किस्म की महत्वकांक्षा काम कर रही थी। वामपंथ का उद्देश्य बल्कि महत्वकांक्षा भाजपा को पराजित करना नहीं था, बल्कि वह ममता को हारते हुए देखना चाहता था। दूसरे शब्दों में वह जो काम स्वयं कुछ नहीं कर पा रहा था, वही वह भाजपा को करते हुए देखना चाहता था। इसलिए पश्चिम बंगाल में बड़ी मात्रा में वामपंथी वोट भाजपा की तरफ  शिफ्ट हो गया। यहां यह बहस की जा सकती है कि वामपंथ ने अपने पैर में कुल्हाड़ी मार ली है। त्रिपुरा व पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हाशिये पर आने के बाद अब वामपंथी केरल में भी अपना जन प्रभाव खोते जा रहे हैं। वामपंथी भले ही अब अस्सी के दशक की तरह दर्जनों की संख्या में संसद में पहुंचने की स्थिति में न हों, लेकिन इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि वामपंथी विचार के लोग पूरे देश में हैं और बिहार की कुछ सीटों पर तो उनकी अच्छी तादाद है। इसलिए राजद का बिहार में वाम दलों को महागठबंधन में शामिल न करना पराजय को आमंत्रित करना ही था। अब इनके विपरीत उन क्षेत्रीय पार्टियों के प्रदर्शन को देखिये जिनके नेता बेकार की महत्वकांक्षा पाले हुए नहीं थे बल्कि अपनी सीमा में रहते हुए कार्य कर रहे थे। मसलन, ओडिशा में बीजू जनता दल को देखिये। उसके नेता  नवीन पटनायक को जनता ने लगातार पांचवीं बार मुख्यमंत्री बनने का अवसर प्रदान किया है। गौरतलब है कि ओडिशा में लोकसभा के साथ विधानसभा चुनाव भी हुए थे। पटनायक ने अपनी महत्वकांक्षा की बजाय जनता की महत्वकांक्षा को प्राथमिकता दी। वह देश के पहले नेता बने जिन्होंने लोकसभा चुनाव में महिलाओं को 33 प्रतिशत टिकट दिए। पटनायक के ही पदचिन्हों पर आंध्र प्रदेश में वाईएसआर जगन मोहन रेड्डी और तेलंगाना में के.चन्द्रशेखर राव के बारे में कही जाती है, जिन्होंने अपने-अपने राज्यों में अच्छा प्रदर्शन किया। रेड्डी पहली बार आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री बनेंगे। बहरहाल, अधिकतर क्षेत्रीय नेताओं की राजनीतिक महत्वकांक्षा तो थी, जो सियासत में होनी भी चाहिए थी, लेकिन अपने सपनों को साकार करने का उनका ज़मीनी स्तर पर कोई विशेष प्रयास नहीं था, बस ऊपरी स्तर पर हाथ मिला लिए गए। अब ज़मीनी स्तर पर दलितों का यादवों से और दलितों का जाटों से सीधा टकराव है जो उनकी राजनीतिक प्राथमिकताओं को भी प्रभावित करते हैं। दूसरे शब्दों में नेताओं के हाथ मिलाने से जातियां आपस में हाथ नहीं मिला लेतीं, बहुत अधिक जातिगत मतभेद हैं। यह मतभेद ज़मीनी स्तर पर काम करने से ही दूर होता है। लेकिन इस सबके बाद भाजपा की जीत में एक बात यह भी है कि वह राष्ट्रवाद के मुद्दे में न करते हुए भी ध्रुवीकरण करने में सफल रही।  हद तो यह थी कि विपक्षी दलों के नेता चुनाव प्रचार के दौरान अल्पसंख्यक समुदाय की बस्तियों में जाने से भी कतराते रहे कि कहीं उन पर एक विशेष समुदाय का समर्थक होने का आरोप न लग जाए। शायद इस वजह से इस बार अल्पसंख्यकों ने मतदान में कम दिलचस्पी दिखाई। अल्पसंख्यकों ने स्पष्ट कहा कि देश की धर्मनिरपेक्षता को बचाए रखने की केवल उन्हीं की ज़िम्मेदारी नहीं है। बहरहाल, 2019 के चुनाव का एक बड़ा संकेत यह है कि क्षेत्रीय पार्टियों के आधार पर राष्ट्रीय विकल्प उत्पन्न नहीं किया जा सकता। 

—इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर