संवैधानिक संस्थाओं पर क्यों उठती हैं उंगलियां ?

देश की संवैधानिक संस्थाओं में जब तक राजनीतिक आधार पर नियुक्तियां होती रहेंगी तब तक उनकी नेकनियति पर उंगलियां उठती रहेंगी। केंद्रीय चुनाव आयोग में मचे घमासान से अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश में संवैधानिक संस्थाओं की नब्ज कैसी चल रही है। लोकसभा चुनाव के मतदान के आखिरी चरण के दिन आयोग के सदस्य अशोक लवासा ने मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा पर मनमानी करने का आरोप लगाकर सनसनी फैला दी। चुनाव आयोग के तौर-तरीकों से उसकी निष्पक्षता और कार्यप्रणाली पर संदेह उत्पन्न हो रहा था। विपक्षी दलों ने चुनाव आयोग पर सीधे केंद्र सरकार के हाथों में खेलने का आरोप लगाया था। तब तक यही माना जाता रहा कि विपक्षी दलों को हर अच्छे काम में भांजी मारने की आदत हैं। विपक्षी दलों की आदत बन चुकी है कि जहां कहीं भी हार का खतरा नजर आए, वही दूसरों पर ठीकरा फोड़ने का प्रयास करते हैं, किन्तु चुनाव आयोग के सदस्य के खुलासे से विपक्षी दलों को केंद्र की मोदी सरकार और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के खिलाफ  एक बड़ा हथियार मिल गया है। चुनाव आयोग की नीयत में संदेह तभी उत्पन्न हो गया था जब समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान, बसपा प्रमुख मायावती और यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ पर कुछ घंटों का प्रतिबंध लगाया था। सपा-बसपा और कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों ने इस मुद्दे पर खूब हाय-तौबा मचाई पर चुनाव आयोग ने उनकी एक नहीं सुनी। आयोग पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के विवादित बयानों पर कार्रवाई नहीं करने का आरोप लगाया। आयोग पर भाजपा के इशारे पर चलने का आरोप लगाया गया। ऐसे आरोप कई बार लगाए गए। हालांकि इस पर आयोग ने सफाई भी पेश की। इसके बावजूद आयोग की निष्पक्षता पर संदेह कायम रहा। लग यही रहा था कि आयोग सभी दलों के नेताओं के मामले में निष्पक्षता नहीं बरत रहा है। चूंकि प्रधानमंत्री मोदी के राष्ट्रीय सुरक्षा को चुनावी मुद्दा बनाने से देश के लोगों का मनोविज्ञान बदल दिया, इसीलिए यही लगा कि विपक्षी दल फि जूल में मोदी की घेराबंदी करने में जुटे हुए हैं। यही वजह भी रही कि विपक्षी दलों के आरोपों को गंभीरता से नहीं लिया गया। यह पहला मौका नहीं है जब संवैधानिक संस्थाओं में सत्तारूढ़ दल के गुपचुप एजेंडों को लागू करने के आरोप लगे हैं। ऐसे ही हस्तक्षेपों के आरोपों के चलते नीति आयोग से अरविन्द पानगड़िया रूखसत हो गए। रिजर्व बैंक ऑफ  इंडिया में लंबे अर्से तक घमासान चलता रहा। आखिरकार रघुराम राजन को गर्वनर पद से इस्तीफा देना पड़ा। राजन ने केंद्र सरकार पर आरबीआई की स्वायत्ता पर हस्तक्षेप करने का आरोप लगाया। इसके बाद आरबीआई के डिप्टी गर्वनर विरल आचार्य ने भी सरकार पर ऐसे ही आरोप लगाए। सुप्रीम कोर्ट के जजों ने प्रेस कांफ्रेंस करके कोर्ट की स्वतंत्रता को गिरवी रखने के आरोप लगाए थे। हालांकि ये आरोप सीधे केंद्र सरकार पर नहीं लगाए गए किन्तु जजों की नियुक्ति पर केंद्र और सुप्रीम कोर्ट में टकराव जारी रहा। आरबीआई, चुनाव आयोग, सुप्रीम कोर्ट जजों की नियुक्ति, और अन्य ऐसी संवैधानिक संस्थाएं जिनके पास प्रशासनिक या न्यायिक शक्तियां हों, उनसे टकराव होता रहा है। केंद्र सरकार यह भूल गई कि बेशक इन संस्थाओं में नियुक्ति उसी का अधिकार है, पर हर किसी को जड़ खरीद गुलाम नहीं बनाया जा सकता। बेशक उनकी नियुक्ति राजनीतिक आधार पर ही क्यों न होती हो। संस्थाओं के सभी सदस्यों और पदाधिकारियों का अपना भी जमीर होता है। इससे बढ़कर भी उनका प्रोफेशनल दृष्टिकोण होता है, जिसे एक हद तक ही बदला जा सकता है। इसके बाद बदलने के प्रयास विद्रोह की नौबत लाते हैं। लवासा का लावा यही साबित करता है कि हर किसी को दबाया नहीं जा सकता।