क्या कैप्टन-सिद्धू टकराव और बढ़ेगा ?

बेशक पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह पंजाब की 13 की 13 लोकसभा सीटें जीतने का दावा पूरा नहीं कर सके परन्तु फिर भी कांग्रेस का जो हाल शेष सारे देश में हुआ है और खासतौर पर कुछ महीने पूर्व ही कांग्रेस द्वारा जीते तीन राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जैसे कांग्रेस की कारगुज़ारी इन लोकसभा चुनावों में नज़र आ रही है। उसके मुकाबले कैप्टन अमरेन्द्र सिंह द्वारा पंजाब में दिखाई जा रही कारगुज़ारी से कैप्टन का कद कांग्रेस में और ऊंचा हो गया है। इन परिणामों से कांग्रेस अध्यक्ष होने के बावजूद राहुल गांधी की कांग्रेस पर पकड़ मजबूत नहीं हो सकेगी। इसका सीधा और स्पष्ट प्रभाव यह दिखाई देता है कि अब पंजाब कांग्रेस में कैप्टन अमरेन्द्र सिंह की पकड़ ही मजबूत नहीं होगी अपितु उनकी मर्ज़ी भी पूरी तरह से चलेगी। इसलिए आने वाले दिनों में कैप्टन समर्थक मंत्री और विधायक कैप्टन पर कैबिनेट मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने के लिए दबाव अवश्य बढ़ायेंगे। उन्होंने अपने एक ताज़ा बयान में यह कहा भी है कि वह सिद्धू की अनुशासनहीनता का मामला राहुल गांधी के पास उठायेंगे। यह मामला उप-चुनावों से पूर्व हल करवाना आवश्यक है। इस समय पंजाब कांग्रेस की प्रभारी आशा कुमारी और पांच मंत्री ब्रह्म महिन्द्रा, सुखजिन्दर सिंह रंधावा, तृप्त राजिन्द्र सिंह बाजवा, साधु सिंह धर्मसोत और भारत भूषण तो खुलकर नवजोत सिंह सिद्धू के खिलाफ कार्रवाई करने पर जोर दे रहे हैं। आगामी दिनों में सिद्धू के खिलाफ बोलने वालों की संख्या और भी बढ़ेगी। बेशक इन चुनाव परिणामों के परिणामस्वरूप पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष सुनील जाखड़ की अपनी स्थिति भी कमज़ोर पड़ी है, परन्तु हमारी जानकारी के अनुसार सुनील जाखड़ अभी भी कैप्टन अमरेन्द्र सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू के बीच समझौता करने की कोशिश ही करेंगे। यह देखने वाली बात ही होगी कि आगामी दिनों में कैप्टन-सिद्धू लड़ाई क्या मोड़ लेती है, परन्तु कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी बेशक कैप्टन अमरेन्द्र सिंह को नाराज़ करने की स्थिति में नहीं रहे परन्तु फिर भी वह पंजाब कांग्रेस में कैप्टन-सिद्धू लड़ाई को बढ़ने से रोकने और दोनों में समझौता करवाने की कोशिश करेंगे। वैसे ही पंजाब के राजनीतिक हालात के मद्देनज़र यह लड़ाई बढ़ाना या सिद्धू को पंजाब कांग्रेस से बाहर निकलवाना स्वयं कैप्टन अमरेन्द्र सिंह की राजनीति को भी सही नहीं बैठता, क्योंकि लोकसभा के चुनावों के बाद अगले कुछ महीनों में ही कैप्टन को पंजाब में कई विधानसभा उप-चुनावों का सामना करना पड़ेगा। इसलिए यदि इन मध्यकालीन चुनावों से पूर्व कांग्रेस आपसी फूट का शिकार हो गई तो यह पंजाब कांग्रेस के लिए आत्मघाती कदम हो सकता है। इसलिए यह प्रभाव ही बनता है कि अगले कुछ दिनों में कैप्टन-सिद्धू लड़ाई ठण्डी पड़ जायेगी। 
पंजाब विधानसभा के कुछ उप-चुनाव
अगले 6-7 महीनों में लगभग आधा दर्जन विधानसभा के उप-चुनाव होने के आसार हैं। फिरोज़पुर लोकसभा सीट की जीत के बाद अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल की जलालाबाद विधानसभा सीट और होशियारपुर लोकसभा सीट तथा भाजपा उम्मीदवार सोम प्रकाश की जीत के बाद फगवाड़ा विधानसभा सीट का खाली होना तो तय हो ही गया है। फिर आम आदमी पार्टी के पांच विधायकों जिनमें दाखा क्षेत्र से एडवोकेट हरविन्द्र सिंह फूलका, भुलत्थ क्षेत्र से सुखपाल सिंह खैहरा, जैतो क्षेत्र से मास्टर बलदेव सिंह, मानसा क्षेत्र से नाजर सिंह मान शाहिया और रोपड़ क्षेत्र से अमरजीत सिंह सदोआ शामिल हैं, ने विधानसभा से इस्तीफे दिए हुए हैं। गौरतलब है कि इनमें से कोई भी सीट किसी कांग्रेसी विधायक द्वारा खाली नहीं की जा रही इसलिए स्वभाविक है कि इन सीटों पर होने वाले सम्भावित उप-चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस को अधिक जोर लगाना पड़ेगा।  प्राप्त जानकारी के अनुसार पंजाब की नई राजनीतिक स्थिति में कांग्रेस की मजबूरी बन जायेगी कि वह पंजाब विधानसभा के स्पीकर को आम आदमी पार्टी के विधायकों के इस्तीफे स्वीकार करने के लिए कहे, क्योंकि यदि विधानसभा की सिर्फ दो सीटें जलालाबाद और फगवाड़ा पर ही उप-चुनाव होता है तो यह दोनों सीटें जीतना कांग्रेस के लिए बहुत मुश्किल होने के आसार हैं। इसलिए कांग्रेस यही चाहेगी कि विधानसभा के लिए उप-चुनाव ‘आप’ के विधायकों के इस्तीफे स्वीकार करवाकर ही करवाए जाएं। इस तरह उप-चुनाव में कांग्रेस में कुछ सीटों पर जीत प्राप्त करके पंजाब की राजनीति में अपनी चढ़त बनाये रख सकती है। 
मजीठिया होंगे और मजबूत
जिस तरह के राजनीतिक समीकरण बनते जा रहे हैं, उनके अनुसार यदि आम आदमी पार्टी के पांच विधायकों के इस्तीफे स्वीकार कर लिए जाते हैं, तो स्थिति ऐसी बनती जा रही है कि पंजाब विधानसभा के उपचुनावों के बाद अकाली दल और भाजपा के पास इतनी सीटें हो सकती हैं कि विक्रम सिंह मजीठिया विधानसभा में विपक्ष के नेता बन जाएं। वैसे भी यह समझा जा रहा है कि यदि केन्द्र में भाजपा ने कोई अकाली मंत्री लिया तो ज्यादा सम्भावना इस बात की ही है कि इस बार अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल स्वयं मंत्री बनने को प्राथमिकता देंगे। ऐसी स्थिति में चाहे सुखबीर सिंह बादल ही अकाली दल के अध्यक्ष बने रहेंगे परन्तु विक्रम सिंह मजीठिया की स्थिति अकाली दल में और मजबूत अवश्य हो जायेगी।
चलते-चलते
हालांकि कांग्रेस और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की लोकसभा चुनावों में हार के कारणों की सूची बहुत लम्बी है, जिनमें भारत के चुनाव प्रचार की कांग्रेस के मुकाबले विशेषताएं, राहुल गांधी और नरेन्द्र मोदी की प्रचार शैली, बहुसंख्या का ध्रुवीकरण जैसे पता नहीं कितने कारण शामिल हैं। परन्तु दिल्ली, हरियाणा, चंडीगढ़ और पंजाब के परिणाम कुछ और होते यदि पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह और दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित आम आदमी पार्टी के साथ समझौते का खुलकर विरोध न करते और इसके खिलाफ न अड़ते। 
बेशक आम आदमी पार्टी इन 31 सीटों में सिर्फ एक संगरूर में अपने पंजाब के अध्यक्ष भगवंत मान को जिताने की स्थिति में रही है, परन्तु यदि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच समझौता हो जाता तो इस क्षेत्र में जीत-हार का संतुलन बदल सकता था और हवा इस सम्भावित गठबंधन के पक्ष में चल सकती थी। परन्तु हैरानी की बात है कि आम आदमी पार्टी के प्रमुख अरविंद केजरीवाल द्वारा धरातल की वास्तविकताओं के अनुसार कांग्रेस को बार-बार समझौते के लिए कहने के बावजूद इन दोनों नेताओं ने यह समझौता नहीं होने दिया। 

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