क्या कांग्रेस की ज़मीन खिसकती जा रही है ?

जब 19 मई को मीडिया ने संसार के सामने एग्जिट पोल रखना आरम्भ किया तब समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय प्रधान अखिलेश यादव ने भारी मन से एक प्रतिक्रिया इलैक्ट्रानिक मीडिया के माध्यम से रखी थी कि कांग्रेस ने धोखा दिया। हम ऐसा नहीं मानते। भारत की सबसे पुरानी कई वर्षों तक सत्तासीन रहने वाली पार्टी आज ऐसी स्थिति से गुजर रही है कि उसे छोटे दलों द्वारा दिया गया इल्ज़ाम सुनना पड़ रहा है। 55 वर्षों तक सत्ता सुख भोगने वाली पार्टी पर संदेह का ग्रहण क्यों लगा यह विचारनीय विषय है। राजनीति में उतार-चढ़ाव अथवा हार-जीत तो होती ही रहती है। सन् 2004 से सन् 2014 तक कांग्रेस ने आर्थिक और सामाजिक उत्थान के लिए कई योजनाएं भारतीय समाज को दी। डा. मनमोहन सिंह के अनुभवों का भरपूर लाभ भी उठाया, फिर ऐसी दशा में उसे क्यों गुजरना पड़ रहा है? लोकसभा चुनावों के नतीजों ने हमारे जनमत सर्वेक्षणों को और एग्ज़िट पोल के अनुमानों को किसी हद तक सच सिद्ध कर दिया। इसके लिए गांधी परिवार को ही उत्तरदायी नहीं बनाया जा सकता, इसके लिए संगठनात्मक कलह और वैचारिक संकट को भी ज़िम्मेदार कहा जा सकता है। मणिशंकर अय्यर और दिग्विजय सिंह के बड़बोलेपन को नज़रअंदाज़ भी कर दें तो भी उन लोगों को तलाश करना होगा जो कांग्रेस के अनुशासन में रह कर अपने मुंह पर उंगली रखे एक तरफ बिठा दिए गए। क्यों खामोश रही अम्बिका सोनी, रेणुका चौधरी, मीरा कुमार, ए.के. एंटोनी, ओस्कर फर्नांडिस, सत्यव्रत चतुर्वेदी, जयराम रमेश इत्यादि। दर्जनों ऐसे नेता जिनका जन-साधारण में प्रभाव भी था और विश्वसनीयता भी। यह भी हकीकत है कि राहुल गांधी को सर्वमान्य नेता बनाने के लिए श्रीमती सोनिया गांधी ने भरसक प्रयास किए परन्तु जब ममता बैनर्जी ने यह कहा कि राहुल जी तो अभी बच्चे हैं, तब सब प्रयास विफल होते अनुभव होने लगे। तब मजबूरी में कुछ कांग्रेसजनों के सुझाव पर श्रीमती प्रियंका गांधी वाड्रा को उत्तर प्रदेश की 80 सीटों के चुनावों के लिए आगे लाया गया। परन्तु यहीं पर ही बस नहीं, सभी प्रादेशिक इकाइयों ने श्रीमती प्रियंका गांधी वाड्रा को अपनी रैलियों में रोड शो के लिए आमंत्रित करना शुरू कर दिया। प्रियंका की ज़ोरदार एंट्री ने कांग्रेस के निराश लोगों में जोश भरने का प्रयास किया, जिससे पार्टी में समन्वय बनता नज़र आया। इससे राहुल गांधी की राजनीति कुछ फीकी पड़ती अनुभव होने लगी। कांग्रेस में दो खेमे सक्रिय नज़र आए, एक राहुल गांधी के पक्ष में और दूसरा प्रियंका को आगे बढ़ाने की कोशिश में नज़र आने लगा। कांग्रेस दबे पावों दोराहे में आ गई। यह बात भी किसी से छिपी नहीं कि प्रियंका वाड्रा के पति रॉबर्ट वाड्रा पर कई तरह के आरोप लगे हैं। यह बात भी प्रियंका के समर्थकों में थोड़ी बहुत कमज़ोरी दिखाती रही। कांग्रेस के वफादार और मजबूर समर्थक भी कांग्रेस की इस दशा से परेशान नज़र आ रहे हैं। उत्तर प्रदेश में बने महागठबंधन जिसमें तीन दल मुख्यत: शामिल हुए सपा-बसपा और राष्ट्रीय लोक दल इसमें भी कांग्रेस को नज़रअंदाज़ किया गया। कांग्रेस समझौतों के लिए इधर-उधर भागती रही। केजरीवाल से समझौता न हो सका, ममता बैनर्जी ने भी कांग्रेस को बेकार वस्तु समझ कर निकट भी नहीं फटकने दिया। बिहार में कांग्रेस राष्ट्रीय जनता दल के रहमों-करम पर कुछ प्रत्याशी खड़े कर पाई। केरल में वायनाड की सीट पर राहुल गांधी को चुनाव लड़ने के लिए जाना पड़ा और वहां मुस्लिम लीग से समझौता करना पड़ा। दक्षिण भारत में डी.एम.के. प्रधान स्टालिन ने कांग्रेस की मजबूरी का लाभ उठाते हुए अपनी मज़री के मुताबिक समझौता किया। बिहार के लालू प्रसाद यादव जेल में हैं। शरद पवार महाराष्ट्र में कांग्रेस से समझौता तो कर गए, परन्तु स्वयं चुनाव में उतरने से परहेज कर दिया। मशहूर मुहावरा है कि जब एक जरनैल फौज के पीछे होकर लड़ना चाहे तो फौज कभी जोश से नहीं लड़ सकती। इस पर शरद पवार का सारा ध्यान अपनी बेटी सुप्रिया सुले के चुनाव की ओर लगा रहा। वह यहां तक कह गए कि यदि सुप्रिया चुनाव में पराजित हुई तो यह ई.वी.एम. की गड़बड़ी से ही होगी। एक बात यहां और कहना चाहेंगे कि जब दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल यह कहते हैं कि मुस्लिम वोट कांग्रेस की तरफ चला गया तो यह बात केवल दिल्ली के लिए नहीं कही जा सकती सारे देश में ही मुस्लिम मतदाता कांग्रेस की ओर चला गया है। एक अनुमान के अनुसार मात्र आठ प्रतिशत मुस्लिम मतदाता भाजपा को समर्थन दे पाए।राजनीतिक दलों में अजीब हालत देखी जा रही थी कि कुछ लोग इधर गए और कुछ लोग उधर। साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर प्रात: भाजपा में शामिल हुई और दोपहर ढलते-ढलते भाजपा की ओर से चुनाव में उतार दी गई, जबकि इस पर आतंकवाद का बहुत गम्भीर आरोप भी लगा था। इसी तरह लगभग दो दर्जन के करीब दल-बदलू नेता किसी न किसी पार्टी का टिकट प्राप्त करने में कामयाब रहे। परन्तु कांग्रेस के पास ऐसे प्रत्याशियों को आगे लाने के अतिरिक्त कोई और रास्ता शायद नहीं बचा था। पंजाब में शेर सिंह घुबाया अकाली दल से कांग्रेस में आकर फिरोज़पुर से चुनाव लड़ने का टिकट ले गए। हमें यहां केवल यही करना है कि निष्ठावान और कर्मठ कांग्रेस  के कार्यकर्ता जो कभी आगे आने के लिए पंख खोल रहे थे, वे बेबस और मायूस नज़र आए। ऐसी हालत में देश भर के कई कांग्रेसी कार्यकर्ता जो कभी कहा करते थे कि डट कर लड़ेंगे वे बच के लड़ने लगे। क्या इस बात की कांग्रेस के हाईकमान को जानकारी नहीं होगी, अवश्य होगी। कांग्रेस ने आज से पहले जो भी संघर्ष किया उसमें समर्पित कार्यकर्ता देखे जाते थे, परन्तु अब ऐसा नहीं। खेद की बात है कि कभी वाम दलों को ऐसे समर्पित कामरेडों का बहुत बड़ा खेमा समझा जाता था, परन्तु धीरे-धीरे अपने चरमराते गढ़ों में कम्युनिस्ट अपना परम्परागत सामाजिक आधार नई चुनौतियों के समक्ष खो रहे हैं। इसके लिए उनकी बुढ़ाती लीडरशिप भी ज़िम्मेदार है। सन् 2019 के चुनाव के नतीज़ों ने कांग्रेस की बची-खुची  साख भी समाप्त कर दी। हम उनसे सहमत नहीं जो यह कहते हैं कि कांग्रेसमुक्त भारत होना चाहिए। कांग्रेस में यदि नई सोच न आई तो स्वयं कांग्रेस ही उन लोगों के कथन को सच कर देगी। अब देश के लगभग 22 राज्यों में कांग्रेस नामात्र को भी अपने कुछ प्रत्याशियों को जीत न दिला सकी। सन् 2014 के चुनाव में कांग्रेस अपने लिए लोकसभा में विपक्षी दल के नेता होने तक की संख्या भी न जुटा पाई थी। कुछ यही हाल इस बार के चुनाव में भी दिखाई दे रहा है। राजनीति में कहा जाता है कि मन के हारे है, मन के जीते जीत। भारत भर के निष्ठावान और अनुभवी नेताओं को आगे लाना होगा और क्षेत्रीय कार्यकर्ताओं को प्रोत्साहित करना होगा। यही नींव के पत्थर होते हैं जो संगठन के मजबूत स्तम्भ बन सकते हैं। हमें मालूम है कि कांग्रेस में निराशा व्याप्त होगी जिससे कुछ नेता अपना त्यागपत्र देने की घोषणा करेंगे, परन्तु इससे संगठन की चूलें ढीली होंगी। इस तरह के पग उठाने से बचना होगा और पूरा ध्यान कांग्रेस की खिसकती ज़मीन को संभालने में लगाना होगा।