धर्मावतार व अप्रतिम योद्धा महाराजा दशरथ

रामायण के महानायक श्री राम के जन्मदाता व अयोध्या के चक्र वर्ती सम्राट महाराजा दशरथ का नाम अपने आप में प्रात: स्मरणीय व पुण्यदायी माना जाता है। कहा जाता है कि जिसके ऊपर राम कुपित हों, उसे बस दशरथ नाम का जाप करना मात्र ही पर्याप्त है और वह समस्त पापों से छुटकारा पा कर मोक्ष को प्राप्त होता है। दशरथ नाम की महिमा है ही ऐसी कि सौ बार राम नाम का जाप न करके बस एक बार दशरथ नाम का जाप कीजिए और बैकुण्ठ धाम की राह पकड़िये। राम के भक्त कवि व विद्वान ही नहीं अपितु कबीर जैसे अद्वैतवादी भी अपने तरीके से दशरथ नाम की महिमा का बखान करते हैं। वे कहते हैं :
राम राम तो सब जपै, दशरथ जपै न कोय,
एक बार दशरथ जपै, तो सहस्र राम जप होय।
वस्तुत: यहां दशरथ केवल राम के पिता दशरथ मात्र नहीं हैं अपितु दशरथ से अभिप्राय: दसों इंद्रियों से है।  रामायण में जिस दशरथ का जिक्र  व वर्णन आता है, वह कौशलराज व अयोध्यापति दशरथ हैं। वही दशरथ जो न केवल राम के पिता हैं अपितु उनके राम सहित चार बड़े ही होनहार पुत्र भरत, लक्ष्मण व शत्रुघ्न के रूप  में अपनी और अपने पिता की ख्याति को चार चांद लगाते हैं। ये वही दशरथ हैं जिनकी कौशल्या, केकैयी व सुमित्रा जैसी तीन अति सुंदर व शीलवान रानियां हैं। कहा जाता है कि कौशलराज ने दशरथ की अप्रतिम वीरता को देखते हुए व अयोध्या तथा कौशल प्रदेश  में रणनीतिक संबंध स्थापित करने के लिए अपनी पुत्री का विवाह उनसे किया था व उनके बाद दशरथ ही कौशल प्रदेश के भी राजा बने।  महाराजा दशरथ के अप्रतिम शौर्य से प्रभावित होकर ही देव व दानव युद्ध के समय इंद्र ने उनसे देवताओं की सहायता करने का आग्रह किया था। दशरथ अपने पूरे युद्ध कौशल के साथ देवताओं की ओर से युद्ध में शामिल हुए व देवताओं की विजय में उन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका निबाही थी। इसी युद्ध में उनकी मझली रानी कैकेयी उनके सारथी के रूप  में युद्ध में गई थी व एक अवसर पर जब दशरथ के रथ की धुरी टूट गई, तब केकैयी ने अपनी उंगली को धुरी की जगह लगाकर उनकी प्राण रक्षा की थी। इससे प्रसन्न होकर ही दशरथ ने कैकेयी को दो वरदान देने का वचन दिया था जिनका उपयोग उसने राम को होने जा रहे राजतिलक को रुकवाने व अपने पुत्र भरत को राजगद्दी दिलवाने के लिए किया था। बाद में यही वरदान दशरथ की मृत्यु का कारण बने। दशरथ राम को प्राणों से भी ज्यादा चाहते थे। वे चाहते तो अपने वचन से मुकर जाते व राम को अयोध्या का राजा बना देते पर, ‘रघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जाए पर वचन न जाई’ की समृद्ध परंपरा का निर्वहण करते हुए दशरथ ने प्राण देना, वचन भंग करने का अपयश लेने से कहीं ज्यादा श्रेयस्कर समझा। वास्तव में ऐसा करके दशरथ भारतीय समाज में एक वचनबद्धता व उच्च मूल्य छोड़ गए। 

-घनश्याम बादल