मौसम चक्र में बदलाव से बिगड़ता प्रकृति संतुलन

समूचे भारत में भीषण गर्मी और लू का प्रकोप बढ़ता जा रहा है। इस बार तापमान ने सभी रिकार्ड तोड़ दिये हैं। कई राज्यों में पारा 48 से 50 डिग्री तक पहुंच गया है। झुलसा देने वाली गर्मी से लोग बेहाल हैं। आखिर ऐसा क्यों हो रहा है कि कभी हमें अधिक सर्दी का सितम सहन करना पड़ता है और कभी भीषण गर्मी का प्रकोप और कभी बाढ़ और सूखे से लड़ना पड़ता है। यह सब मौसम चक्र में बदलाव से बिगड़ रहे प्राकृतिक संतुलन का ही परिणाम है। कुछ समय से मौसम के तेजी से बिगड़ते मिजाज के मद्देनज़र उसकी अनदेखी करना उचित नहीं। हालांकि हर साल भीषण गर्मी के बाद विभिन्न स्थानों पर मौसम का ऐसा बदलाव देखा जाना कोई नई बात नहीं है। हमें अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि मौसम चक्र के बदलाव के चलते प्रकृति संतुलन पर जो विपरीत प्रभाव पड़ रहा है, उसकी अनदेखी के कितने भयावह परिणाम होंगे। हमें यह भी समझ लेना होगा कि यह सब प्रकृति के साथ बड़े पैमाने पर हो रही मानवीय छेड़छाड़ का ही दुष्परिणाम है। विडम्बना यह है कि हम यह समझना ही नहीं चाहते कि मनुष्य प्रकृति की गोद में एक अबोध शिशु के समान है किन्तु आधुनिकता की अंधी दौड़ में वह स्वयं को प्रकृति का स्वामी समझने की भूल कर बैठा है और मानवीय गतिविधियों के चलते प्रकृति के बुरी तरह से दोहन का नतीजा बार-बार प्रकृति के प्रचण्ड प्रकोप के रूप में हमारे सामने आता रहा है। न सिर्फ  भारत में बल्कि वैश्विक स्तर पर तापमान में निरन्तर हो रही बढ़ोतरी और मौसम का लगातार बिगड़ता मिजाज गहन चिंता का विषय बना है। हालांकि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए पिछले कुछ वर्षों में दुनियाभर में दोहा, कोपेनहेगन, कानकुन इत्यादि बड़े-बड़े अंतर्राष्ट्रीय स्तर के सम्मेलन होते रहे हैं और वर्ष 2015 में पेरिस सम्मेलन में तो 197 देशों ने सहमति पत्र पर हस्ताक्षर करते हुए अपने-अपने देश में कार्बन उत्सर्जन कम करने और 2030 तक वैश्विक तापमान वृद्धि को 2 डिग्री तक सीमित करने का संकल्प लिया था किन्तु उसके बावजूद इस दिशा में अभी तक कोई ठोस कदम उठते नहीं देखे गए हैं। दरअसल वास्तविकता यही है कि राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर प्रकृति के बिगड़ते मिजाज को लेकर चर्चाएं और चिंताएं तो बहुत होती हैं, तरह-तरह के संकल्प भी दोहराये जाते हैं किन्तु सुख-संसाधनों की अंधी चाहत, सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि, अनियंत्रित औद्योगिक विकास और रोजगार के अधिकाधिक अवसर पैदा करने के दबाव के चलते इस तरह की चर्चाएं और चिंताएं अर्थहीन होकर रह जाती हैं। मौसम चक्र में बदलाव का आलम यह है कि वर्षा ऋतु में आसमान में बादलों का नामो-निशान तक नजर नहीं आता, वहीं बसंत ऋतु में बादल झमाझम बरसने लगते हैं, सर्दियों में मौसम एकाएक गर्म हो उठता है और गर्मियों में अचानक पारा लुढ़क जाता है। अचानक ज्यादा बारिश होना या एकाएक ज्यादा सर्दी या गर्मी पड़ना और फिर तूफान आना, पिछले कुछ समय से जलवायु परिवर्तन के ये भयावह खतरे बार-बार सामने आ रहे हैं और मौसम वैज्ञानिक स्वीकारने भी लगे हैं कि इस तरह की घटनाएं आने वाले समय में और भी जल्दी-जल्दी विकराल रूप में सामने आ सकती हैं। हालांकि प्रकृति बार-बार मौसम चक्र में बदलाव के संकेत, चेतावनी तथा संभलने का अवसर देती रही है लेकिन हम आदतन किसी बड़े खतरे के सामने आने तक ऐसे संकेतों या चेतावनियों को नजरअंदाज करते रहे हैं, जिसका नतीजा अक्सर भारी तबाही के रूप में सामने आता रहा है। पर्यावरण प्रदूषण के कारण पिछले तीन दशकों से जिस प्रकार मौसम चक्र तीव्र गति से बदल रहा है और प्राकृतिक आपदाओं का आकस्मिक सिलसिला तेज़ हुआ है, उसके बावजूद अगर हम नहीं संभलना चाहते तो इसमें भला प्रकृति का क्या दोष? अगर पिछले वर्ष में प्रकृति के कहर को याद करें तो एक दर्जन से भी अधिक राज्यों में कुछ ही दिनों के भीतर प्रचण्ड धूल भरी आंधियों, बेमौसम बर्फ बारी, ओलावृष्टि, बादलों का फटना, भारी बारिश और आसमान से गिरती बिजली ने सैंकड़ों ज़िंदगियां लील ली थी, हज़ारों लोग घायल हुए थे, हज़ारों मकान बुरी तरह ध्वस्त हुए थे, हजारों मवेशी मारे गए थे और अरबों रुपये की सम्पत्ति तथा फसलें तबाह हुई थी। बदरीनाथ-केदारनाथ में बेमौसम बर्फबारी ने हर किसी को आश्चर्यचकित कर दिया था। हिमाचल के शिमला, मनाली, रोहतांग सहित कई इलाके गर्मी के मौसम में भी बर्फ  की सफेद चादर से ढक गए थे और जम्मू-कश्मीर में बेमौसम बर्फ बारी से कई इलाके एकाएक सर्दी की चपेट में आने से स्थिति विकराल हो गई थी। देश के इतिहास में पहली बार देखा गया था, जब करीब दो दर्जन राज्यों में बार-बार तूफान की आशंका के मद्देनज़र अलर्ट जारी किए जाते रहे। मानसून जाते-जाते केरल सहित कुछ पहाड़ी राज्यों में भी विकराल बाढ़ के रूप में जिस तरह की भयानक तबाही मचा गया था, उसके स्मरण मात्र से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। कुछ साल पहले तक पहाड़ी इलाकों का ठंडा वातावरण हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करता था किन्तु पर्वतीय क्षेत्रों में यातायात के साधनों से बढ़ते प्रदूषण, बड़े-बड़े उद्योग स्थापित करने और राजमार्ग बनाने के नाम पर बड़े पैमाने पर वनों के दोहन और सुरंगें बनाने के लिए बेदर्दी से पहाड़ों का सीना चीरते जाने का ही दुष्परिणाम है कि हमारे इन खूबसूरत पहाड़ों की ठंडक भी धीरे-धीरे कम हो रही है। स्थिति इतनी बदतर होती जा रही है कि अब हिमाचल की धर्मशाला, सोलन व शिमला जैसी हसीन वादियों और यहां तक कि जम्मू-कश्मीर में कटरा जैसे ठंडे माने जाते रहे स्थानों पर भी पंखों, कूलरों व ए.सी. की ज़रूरत महसूस की जाने लगी है। पहाड़ों में बढ़ती इसी गर्माहट के चलते हमें अक्सर घने वनों में भयानक आग लगने की खबरें भी सुनने को मिलती रहती हैं। पहाड़ों की इसी गर्माहट का सीधा असर निचले मैदानी इलाकों पर पड़ता है, जहां का पारा अब हर वर्ष बढ़ता जा रहा है। मानवीय करतूतों के चलते वायुमंडल में कार्बन मोनोक्साइड, नाइट्रोजन, ओजोन और पार्टिक्यूलेट मैटर के प्रदूषण का मिश्रण इतने खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है कि हमें सांस के जरिये असाध्य बीमारियों की सौगात मिल रही है। सीवरेज की गंदगी स्वच्छ जल स्रोतों में छोड़ने की बात हो या औद्योगिक इकाईयों का अम्लीय कचरा नदियों में बहाने की अथवा सड़कों पर रेंगती वाहनों की लंबी-लंबी कतारों से वायुमंडल में घुलते जहर की या फिर सख्त अदालती निर्देशों के बावजूद खेतों में जलती पराली से हवा में घुलते हज़ारों-लाखों टन धुएं की, हमारी आंखें तब तक नहीं खुलती, जब तक प्रकृति का बड़ा कहर हम पर नहीं टूट पड़ता। अधिकांश राज्यों में सीवेज ट्रीटमेंट और कचरा प्रबंधन की कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं है। पैट्रोल, डीजल से उत्पन्न होने वाले धुएं ने वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड तथा ग्रीन हाऊस गैसों की मात्रा को खतरनाक स्तर तक पहुंचा दिया है। पेड़-पौधे कार्बन डाईऑक्साइड को अवशोषित कर पर्यावरण संतुलन बनाने में अहम भूमिका निभाते रहे हैं लेकिन पिछले कुछ दशकों में वन-क्षेत्रों को बड़े पैमाने पर कंकरीट के जंगलों में तबदील कर दिया गया है। ब्रिटेन के प्रख्यात भौतिक शास्त्री स्टीफन हॉकिंग ने कहा था कि यदि मानव जाति की जनसंख्या इसी कदर बढ़ती रही और ऊर्जा की खपत दिन-प्रतिदिन इसी प्रकार होती रही तो करीब छह सौ वर्षों बाद पृथ्वी आग का गोला बनकर रह जाएगी। धरती का तापमान बढ़ते जाने का ही दुष्परिणाम है कि ध्रुवीय क्षेत्रों में बर्फ  पिघल रही है, जिससे समुद्रों का जलस्तर बढ़ने के कारण दुनिया के कई शहरों के जलमग्न होने की आशंका जताई जाने लगी है। प्रकृति बार-बार अपना रौद्र रूप दिखाकर हमें स्पष्ट चेतावनी देती रही है कि अगर हमने उसके साथ अंधाधुंध खिलवाड़ बंद नहीं किया तो उसके कितने घातक परिणाम होंगे लेकिन विडम्बना है कि अब लगातार प्रकृति का प्रचण्ड रूप देखते रहने के बावजूद हम हर बार प्रकृति की इन चेतावनियों को नजरअंदाज कर खुद अपने विनाश को आमंत्रित कर रहे हैं। प्रकृति कभी समुद्री तूफान, तो कभी भूकम्प, कभी सूखा तो कभी अकाल के रूप में अपना विकराल रूप दिखाकर हमें बारम्बार चेतावनी देती रही है कि हम यदि इसी प्रकार प्रकृति के संसाधनों का बुरे तरीके से दोहन करते रहे तो हमारे भविष्य की तस्वीर कैसी होने वाली है। दूसरी ओर हम हैं कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के नाम पर वैश्विक चिंता व्यक्त करने से आगे शायद कुछ करना ही नहीं चाहते। हम यह समझना ही नहीं चाहते कि पहाड़ों का सीना चीरकर हरे-भरे जंगलों को तबाह कर हम जो कंकरीट के जंगल विकसित कर रहे हैं, वह वास्तव में विकास नहीं है बल्कि विकास के नाम पर हम अपने ही विनाश का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं।

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