बसपा के रवैये से मज़ाक बनी विपक्ष की एकता

सत्रहवीं लोकसभा के चुनावी नतीजों को आये अभी कुछ ही दिन हुए हैं कि सपा-बसपा गठबंधन टूट गया, वह गठबंधन जिसका होना उत्तर प्रदेश और अंतत: देश की राजनीति में विपक्षी एकता के लिए एक बड़ी बात मानी गयी थी, वह गठबंधन जो लोकसभा चुनावों के दौरान, भाजपा के विरुद्ध कांग्रेस रहित विपक्षी एकता के प्रतीक के रूप में उभरा था और उत्तर प्रदेश में भारी फेरबदल करने का दावा कर रहा था, वह गठबंधन जिसके बारे में सार्वजनिक मंच से मायावती ने ही कहा था कि यह महज इन चुनावों के लिए भर नहीं हुआ, यह देश में सामान उद्देश्यों वाले विचारों और लक्ष्यों का गठबंधन है, इसी ऐतिहासिक गठबंधन को बसपा सुप्रीमो बहनजी ने महज एक चुनाव और उससे भी ज्यादा महज कुछ दिनों की आजमाइश के बाद ही अखिलेश को नसीहतों की एक लंबी सूची पकड़ाकर तोड़ दिया।अपने इस कारनामें से अंतत: बहनजी ने साबित कर दिया कि सपा-बसपा गठबंधन के बारे में चुनाव प्रचार के दौरान, तमाम भाजपा नेता और खुद प्रधानमंत्री मोदी जो कुछ बोल रहे थे, उसमें जरा भी अतिरेक नहीं था। बल्कि सब कुछ अक्षरश: सही था। सच तो यह है कि मायावती ने जिस अंदाज में लिखा हुआ फैसला प्रेस कांफ्रैंस में पढ़कर सुनाया उसके बाद लगता है कि लोकसभा चुनाव के दौरान इस गठबंधन और इसके नेताओं खासकर बहन जी के लिए कही गयी तमाम बातें सिर्फ  सही ही नहीं थीं, बल्कि लग रहा है कि इस सबके बारे में तब तमाम लोग जो कुछ बोल रहे थे, शायद वह उस सबमें फिर भी थोड़ा लिहाज बरत रहे थे क्योंकि यूपी में मन-मुताबिक नतीजे न आने के महज दो हफ्ते में ही सपा-बसपा गठबंधन की जो सच्चाई सामने आयी, वह सच्चाई आशंकाओं से कहीं ज्यादा भोथरी साबित हुई।  ऐन चुनावों के समय हुए इस गठबंधन को अमर सिंह ने सही ही ‘गबंधन’ नाम दिया था क्योंकि अंतत: यह वही साबित हुआ। अमर सिंह चुनाव प्रचार के दौरान लगातार कह रहे थे कि यह गबंधन कैश और कास्ट की बदौलत हुआ है, जिसे मतदाता चुनाव में खारिज कर देगा। इसके बाद चुनाव होते ही ये आपस में खुद एक-दूसरे को खारिज कर देंगे, देखा जाय तो वैसा ही हुआ। हू-ब-हू आशंकाओं के मुताबिक लेकिन इतना जल्दी सपा-बसपा गठबंधन का इस तरह हास्यास्पद होना, महज राजनीतिक अपरिपक्वता की  निशानी नहीं है, उससे कहीं ज्यादा ये राजनीतिक बेशर्मी भी है। वास्तव में चुनावों में हारने या जीतने की भविष्यवाणी बहुत मायने नहीं रखती। चुनावों में किसी को हारना और किसी को जीतना ही होता है, क्योंकि कितना ही बड़ा राजनेता हो, उसका जीतना, उसके हाथ में नहीं, मतदाताओं के हाथ में होता है। लेकिन किसी के आचरण के बारे में अगर भविष्यवाणी की जाय और वह अक्षरश: सच निकले तो यह राजनीतिक मूर्खता है। चुनाव के दौरान बार-बार भाजपा सपा-बसपा गठबंधन को टेम्परेरी और सत्ता की भूख का नतीजा बताया गया था। इसलिए नतीजे आने के 15 दिनों के भीतर ही जब बहनजी ने गठबंधन तोड़ने का ऐलान किया तो यह उनकी राजनीतिक अपरिपक्वता से कहीं ज्यादा राजनीतिक बेशर्मी का द्योतक था बहनजी ने अपनी हरकतों से साबित कर दिया है कि वह बहुत ही प्रिडिक्टेबल हैं। कोई भी प्रिडिक्टेबल राजनेता कभी करिश्माई नहीं हो सकता। इसलिए 4 जून 2019 को जब बसपा सुप्रीमो सपा के साथ नवजात गठबंधन को तोड़ने में अपनी अधीरता दर्शा रही थीं तो उनके हर तर्क के साथ उनकी विश्वसनीयता खत्म हो रही थी। गठबंधन तोड़ने के लिए बहनजी ने चुन चुनकर जितने भी तर्क रखे हैं, वे सब बेहद हलके और फायदे के गणित की बहुत छोटी संख्याओं के माफिक हैं, अपनी इस हरकत से उन्होंने साबित कर दिया है कि उन पर जो बहुत स्वार्थी होने का आरोप लगता है, वह गलत नहीं है। बसपा के बारे में मशहूर है कि वह जिस भी पार्टी से गठबंधन करती है, उसका अपने लिए इस्तेमाल करने भर के लिए करती है। अपना मकसद पूरा होते ही वह जिसके साथ गठबंधन करती है उसे दूध की मक्खी की तरह निकालकर फेंक देती हैं। वैसे बसपा पर यह आरोप लगाने की कोई बात नई नहीं है क्योंकि यह तो बसपा के संस्थापक कांशीराम जी की बुनियादी नीति ही थी। बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक मान्यवर कांशीराम ने इन पंक्तियों के लेखक से एक नहीं बल्कि कई बार दिए गए साक्षात्कारों में बहुत साफ तौर पर अपनी इस नीति के बारे में खुलासा किया था। पिछली सदी के नब्बे के दशक में बसपा ने जब भाजपा के साथ मिलकर यूपी में सरकार बनायी थी, उस समय मैंने उनसे यह  सवाल किया था, ‘क्या अब आपकी नजरों में भाजपा मनुवादी पार्टी नहीं रही।’ इस पर उन्होंने कहा था, ‘मैं ऐसा नहीं मानता था जैसी कांग्रेस, वैसी ही भाजपा एक नागनाथ है तो दूसरी सांपनाथ। हम किसी मुगालते में नहीं हैं। लेकिन मौका मिलेगा तो हम किसी से भी गठबंधन करेंगे। हमें इनको यूज एंड थ्रो करना है।’ वैचारिकता के इस आईने में बसपा प्रमुख मायावती का यह गठबंधनतोड़ कारनामा देखा जाये तो यह कोई अप्रत्याशित व्यवहार नहीं था, लेकिन इसके लिए उन्होंने जो तर्क दिए हैं वे राजनीतिक रणनीति के लिहाज से भी ईमानदार नहीं हैं। मायावती ने भले बहुत स्पष्ट शब्द न दिया हो लेकिन उनके इस गठबंधन तोड़ने के पीछे जो सबसे अहम धारणा है, वह यह है कि इस गठबंधन से उन्हें कोई फायदा नहीं हुआ, लेकिन यह सोच पूरी तरह से गलत है, सच्चाई यही है कि इस सपा-बसपा गठबंधन से अगर किसी को कोई फायदा हुआ है तो वह बसपा को ही हुआ है। इन चुनावों में बसपा को उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 10 सीटें और 19.86 फीसदी मत हासिल हुए हैं’ जबकि साल 2014 के लोकसभा चुनावों में उसका खाता भी नहीं खुला था, हां, वोट उसे तब भी 19.77 फीसदी मिले थे। इस लिहाज से देखें तो इन चुनावों में बसपा को 09 फीसदी मतों का फायदा हुआ है। यह फायदा इस लिहाज से मामूली दिखता है, जब हम सीधे-सीधे कुल मिले मतों का मिलान करते हैं। लेकिन हम यह बात भूल जाते हैं कि भाजपा को इस बार सीटें भले पिछली बार से कम मिली हों लेकिन उसे वोट पिछली बार से ज्यादा मिला है। साल 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को उत्तर प्रदेश में कुल मतों का 42.63 प्रतिशत मत मिले थे। जबकि इस बार उसे पिछली बार से 10 सीटें कम मिलते हुए भी मत 49.56 फीसदी मिले हैं जो कि पिछली बार से करीब 7 फीसदी ज्यादा है। भाजपा के मतों में भारी इजाफे के बाद भी अगर बसपा के मत कम नहीं हुए बल्कि मामूली ही सही लेकिन बढ़े ही हैं तो ये बढ़े हुए मत कहाँ से आये? वे इसी गठबंधन के कारण सपा और लोकदल के मत थे जो बसपा को मिले, क्योंकि इन दोनों पार्टियों के मतों में साल 2014 के मुकाबले इस बार कमी आयी है। 

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