आगामी बजट की चुनौतियां बेरोज़गारी का कुआं, विनिवेश की खाई

पांच सप्ताह के भीतर नई वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण अपना पहला बजट पेश करेंगी। अब तक रक्षा मंत्रालय की ज़िम्मेदारी संभाल रहीं सीतारमण के समक्ष नया विभाग संभालते ही चुनौतियों का अम्बार लग गया है। एक साथ तीन बुरी खबरें आई- आर्थिक मंदी, बेरोजगारी की बढ़ती दर और भारत को अमरीका से जो तरजीही व्यापार लाभ मिल रहा था, उस पर विराम। इसलिए सीतारमण को अपना बजट न सिर्फ  इन संदर्भों में ड्राफ्ट करना होगा बल्कि जो नई कल्याण योजनाएं घोषित की गईं हैं, उनके खर्चे के लिए भी गुंजाइश निकालनी होगी। इन सबके लिए साहसिक कदम उठाने होंगे। साल 2018-19 के लिए जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) विकास मात्र 6.8 प्रतिशत था, जो पिछले पांच वर्ष में सबसे धीमा है। क्वार्टरली जीडीपी डाटा (जनवरी-मार्च) तो इससे भी अधिक निराशाजनक है- 5.8 प्रतिशत। एनएसओ द्वारा 31 मई को जारी किये गये डाटा से मालूम होता है कि पिछले चार क्वार्टरों से लगातार आर्थिक मंदी देखने को मिल रही है। पिछले क्वार्टर में आर्थिक मंदी मुख्य रूप से कृषि, मैन्युफैक्चरिंग व कंस्ट्रक्शन के क्षेत्रों में थी, यही सैक्टर अधिकतर भारतीयों को जीविका उपलब्ध कराते हैं।
जून 2018 के अंत में बेरोजगारी 6.1 प्रतिशत थी, जो पिछले 45 वर्ष में सबसे ज्यादा है। हालांकि बेरोजगारी की यह दयनीय स्थिति लीक रिपोर्ट के जरिये इस साल जनवरी में ही मालूम हो गई थी, लेकिन तब लोकसभा चुनावों को मद्देनजर रखते हुए मोदी सरकार ने इसे अफवाह बताते हुए एक किनारे कर दिया था। अब एनएसओ ने अपनी रिपोर्ट में यही आंकड़ा जारी करते हुए कहा है कि नये श्रम बल सर्वे को वार्षिक आधार पर रोजगार व बेरोजगारी मापने के नये डिजाइन के रूप में देखना चाहिए और इसकी अतीत से तुलना नहीं करनी चाहिए। 
लेकिन इस बात से इन्कार करना कठिन है कि आर्थिक गति के पटरी से उतरने के कारण भी बेरोजगारी में वृद्धि हुई है। गौरतलब है कि पिछले पांच वर्ष में भारत के आर्थिक विकास की निर्यात तीव्रता का भी पतन हुआ है और अब ट्रम्प प्रशासन के निर्णय ने चुनौती में इजाफा कर दिया है। 31 मई को ही अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने एक वक्तव्य के जरिये घोषणा की कि 5 जून से भारतीय निर्यात को ड्यूटी में मिल रहे लाभ पर विराम लग जायेगा। जनरलाइज्ड सिस्टम ऑफ  पफरेंसेज (जीपीएस) प्रोग्राम के तहत अमेरिका कम विकसित देशों को टैरिफ  ब्रेक देता है। जीपीएस के तहत भारत को 6.35 बिलियन डॉलर तक का ड्यूटी फ्री निर्यात करने का अवसर मिल रहा था। 
हालांकि भारत के वाणिज्य विभाग का मानना है कि आर्थिक संबंधों में समय-समय पर समस्याएं उत्पन्न होती रहती हैं, यह भी नियमित प्रक्रिया का हिस्सा है, जिसे जल्द हल कर लिया जायेगा, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि ट्रम्प निर्णय का प्रभाव कुछ खास नहीं पड़ेगा। एफआईईओ के अध्यक्ष गणेश कुमार गुप्ता के अनुसार, ‘जीएसपी योजना के तहत जो 6.35 बिलियन डॉलर का निर्यात हो रहा था, उसमें कुल लाभ 260 मिलियन डॉलर का ही था... इसलिए मैक्रो स्तर पर जीएसपी विराम का अमरीका को हमारे निर्यात पर प्रभाव बहुत मामूली पड़ेगा।’ गुप्ता की यह बात साहसभरी हो सकती कि विपत्ति में भी हौसला बना रहना चाहिए।  लेकिन तथ्य यह है कि जिन उत्पादों पर 3 प्रतिशत या उससे अधिक जीएसपी लाभ मिल रहा था, उनके निर्यातकों से यह नुकसान बर्दाश्त करना कठिन होगा। गौरतलब है कि 120 विकासशील देशों की मदद करने के लिए वाशिंगटन ने जीएसपी की कल्पना 1974 में की थी। इस योजना का भारत को सबसे अधिक लाभ मिला कि उसकी लगभग एक चौथाई गुड्स अमरीका में ड्यूटी-फ्री हो गईं। अब इस लाभ पर विराम लग गया है। जाहिर है, पहले से ही आर्थिक मंदी से जूझ रहे देश पर इसका गहरा असर पड़ेगा। वित्त मंत्रालय का मानना है कि पिछले नौ माह के दौरान नॉन-बैंकिंग फाइनेंस कम्पनीज (एनबीएफसी) पर जो दबाव (स्ट्रेस) पड़ा है, उसके कारण आर्थिक मंदी आई है। मुमकिन है कि ऐसा ही हुआ हो। लेकिन यह स्ट्रेस मंदी को जल्द दूर करने में बाधक बन सकता है। जिस स्ट्रेस के तहत एनबीएफसी हैं, उससे उनकी ऋण की लागत बढ़ गई है और साथ ही प्रपतन प्रभाव (कैस्केडिंग इम्पैक्ट) पड़ा है। फाइनेंशियल सैक्टर में इस स्ट्रेस का परिणाम यह हो सकता है कि हायर रिस्क प्रीमियम के आधार पर हर किसी के लिए ऋण अधिक महंगे हो जायें। नतीजतन, अगर आरबीआई अपनी पालिसी दर कम भी कर दे तो भी अर्थव्यवस्था में संचार मंदा ही रहेगा। ऐसी स्थिति में सवाल यह है कि उच्च आर्थिक विकास के लिए पुश कहां से आयेगा? सार्वजनिक निवेश एक क्षेत्र है जो अर्थव्यवस्था को गति प्रदान कर सकता है। लेकिन भारत अपना वित्तीय दृष्टिकोण ढीला करने की स्थिति में नहीं है। केंद्र व राज्यों का संयुक्त वित्तीय घाटा 2014 व 2018 के बीच लगभग अपरिवर्तित रहा है। इसके अतिरिक्त कैग की रिपोर्टों में कहा गया है कि केंद्र ने सब्सिडी पर अपने खर्च को कम करके बताया है। ऐसी स्थिति में निकास का रास्ता यही बचता है कि निजीकरण कार्यक्रम के मार्ग पर चला जाये। इससे न सिर्फ  बिना नये करों व अतिरिक्त ऋण के सरकार को राजस्व बढ़ाने में मदद मिलेगी बल्कि जनता में भी नया जोश आ जायेगा। निजीकरण के मिसाली प्रयासों जैसे एयर इंडिया की बिक्री से त्वरित चुनौतियों को पूर्ण किया जा सकता है और सरकार उत्पादन के लिए बाजारों में सुधार ला सकती है जैसे भूमि व श्रम नियमों में संशोधन करके। हालांकि किसानों के संकट को दूर करने के लिए कोई ठोस योजना लाने की बजाय सरकार लुभावनी योजना जैसे पीएम-किसान आय समर्थन योजना पर ही निर्भर कर रही है, जिसका अब विस्तार कर दिया गया है। लेकिन इससे पहले से ही कमजोर हो चुकी अर्थव्यवस्था पर अतिरिक्त दबाव पड़ेगा। इस स्थिति में साऊथ ब्लाक (रक्षा मंत्रालय) से नार्थ ब्लाक (वित्त मंत्रालय) में आने वाली सीतारमण पर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की बहुत बड़ी चुनौती है, और उनका पहला बजट संकेत देगा कि वह इस चुनौती का कैसे सामना करना चाहती हैं?

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर