महिमा गायन


भारतीय रेलों की महिमा अपरम्पार है। इसे दुनिया की सबसे बड़ी रेल-व्यवस्था कहा जाता है, क्योंकि इस देश की लम्बाई-चौड़ाई का अंत कहीं नज़र नहीं आता। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक  हज़ारों किलोमीटर की यात्रा प्रतिदिन कांपते और कराहते भारतीय रेलें पूरी कर लेती हैं। इनकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि इन्हें दूर से देखो या नज़दीक से ये हमेशा सवारियों से लदी-फदी नज़र आती हैं। जितने यात्री केबिन के अन्दर, उससे अधिक छत पर और बाकी रेल डिब्बों के पायदान पर लटक कर रोज़ यात्रा पूरी करते हैं। इन सबको अवश्य यात्रा शौर्य चक्र से नवाज़ा जाना चाहिए।
आजकल युग बदलने के लिए इस देश में नित्य नई क्रांतियां घोषित करने का फैशन हो गया है। खेतीबाड़ी से हरित क्रांति घोषित करते हैं, तो देश की कृषि और भी मरणासन्न दशा की ओर चल निकलती है। औद्योगिक शहरों में न जाने कब से कल-कारखाने बंद हो रहे हैं। आजकल कारखानों की चिमनियां धुआं नहीं छोड़ती। पूंजी पलायन करने पर आमादा हैं, लेकिन इनके मजदूर बरसों फैक्टरी की बस्तियां छोड़ कर नहीं जाते। सरकार फैक्टरी मालिक को काम-धंधा बदलने की इजाज़त नहीं देती, मजदूर भला अपना डेरा-बिस्तर ऐसे ही सस्ते में समेट लें।  उधर भारत की बढ़ी रेलों पर तेज़ी से आधुनिकता की कलई हो रही है। कोयले की भाप से छुक-छुक चलने वाली गाड़ी न जाने कब की बंद हो गई। डीज़ल इंजन आ गये। कहीं-कहीं बिजली इंजन भी चलने लगे। घोषणाओं का क्या है? घोषणाएं तो बुलेट और सैमी-बुलेट चलाने की भी हो रही हैं। राजधानी में  लकदक मैट्रो रेलें भी चल रही हैं, लेकिन इन आधुनिक गाड़ियों के चलने का अंदाज़ वही ठेठ भारतीय है। दिल्ली-बम्बई तेजस गाड़ी चलाई तो पहले दिन ही विलम्ब से चली, और दूसरी बार रास्ते में दो बार बिगड़ी।
मैट्रो गाड़ी ठीक-ठाक चलने लगी, तो उसे राजनीति का मज़र् हो गया है। चुनाव करीब आते देख कर इलाके के मुख्यमंत्री महोदय ने औरतों के लिए सफर मुफ्त कर दिया। भई आधी आबादी है, इनके वोट भी तो कम नहीं होते। यही आलम रहा तो लगता है कि आदमियों में बुर्के  की मांग बढ़ जाएगी, वे भी अपनी पत्नियों के पहचान-पत्रों पर यात्रा करते मिल जाएंगे। अहा, महिला सशक्तिकरण।
रोज नई से नई उड़ान भरती हैं ये हमारी रेलें। आज़ादी के पचहत्तर वर्ष होने को आये तो भी आप टिकट खरीदो तो कोई गारंटी नहीं कि आपको बैठने की सीट मिल जाएगी? बल्कि यह भी हो सकता है कि आजकल की ‘उड़ती गाड़ियों’ में आपको चढ़ाने आये साथी आपके सामान के साथ डिब्बे में चढ़ जाएं और आप भीड़ की धक्का-मुक्की की वजह से प्लेटफार्म पर ही छूट उन्हें बॉय-बॉय करते नज़र आएं। लीजिये रेल क्रांति के साथ-साथ इनके डीज़ल इंजनों का हुलिया भी कोयला इंजनों-सा हो गया। सवारियों का मिज़ाज तनिक नहीं बदला। आज भी वे ब्रांच लाइन की गाड़ियों में अपनी भेड़-बकरियों के साथ सफर करती मिल जाती हैं। निजी अनुभव बताएं तो हमने कई बार भेड़-बकरियों को अपने बेटिकट मालिकों से बेहतर और सभ्य व्यवहार करते देखा है। कम से कम वे टी.टी. आने पर बाथरूम बंद करके तो नहीं बैठ जातीं।
इन बरसों में गाड़ियों में सौदा सुल्फ बेचने वालों और ‘चाय गर्म पकौड़े खस्ता’ कहने वालों की भीड़ कम हो गई है। पैंट्री कार या रसोई वाहन बन्द हो रहे हैं। हुक्म है, मोबाइल उठाइए और आते स्टेशन के तीन तारा या पांच तारा होटल, रेस्तरां को हुक्म कीजिये। जोमैटो और स्वीगी दल भागे आएंगे। खाना आपको गर्म और ताज़ा मिलेगा। जेब में दाम हो और हाथ में एपल का मोबाइल तो रेलों के इस नये युग का स्वागत करना कितना अच्छा लगता है, लेकिन हमारी जेब में तो टिकट नहीं, भला यह मोबाइल और भरा हुआ पर्स कहां होगा? क्या ़गम है प्यारे। पूरी यात्रा उपवास करते चलें। आखिर प्राकृतिक उपचार वाले विट्ठलदास मोदी से लेकर हमारी गली के पंडित जी मानव देह के लिए उपचार के कितने लाभ बताते हैं। भला ऐसे उपवास करने के लिए भारतीय रेलों से बेहतर जगह और कौन-सी हो सकती है।
भारतीय रेलों को रेल-फाटकों से अलग करके सोचा ही नहीं जा सकता। जब से इन्हें बंद करने और खोलने की स्वचालित व्यवस्था हो गई, तब से यह मुरम्मत के लिए कई-कई दिन बन्द रहने लगे हैं। हां, कुछ बार नहीं बंद रहते। अभी हमारे शहर का रेलवे फाटक केवल तीन दिन बन्द रह कर खुल गया। लोगों को बड़ी हैरानी हुई। क्योंकि उन्होंने इसके अधिक दिन बन्द रहने की उम्मीद में ज्यादा धीरज रखने का संकल्प कर लिया था।
अभी हमारी लाडली रेलों ने आम जनता को एक और अच्छी खबर दे दी है। आपको प्लेट फार्म पर बासी पकौड़े मिलें या नहीं। आपके रेल डिब्बे में चाय गर्म की आवाज़ सुनायी दे या नहीं, आपके पांव और सिर की तेल मालिश करने वाले चम्पू अवश्य मिल जाएंगे। सुना है हर मुख्यालय में इनकी भर्ती करने के कार्यक्रम बनने शुरू हो गये हैं। मालिश के रेट अधिक नहीं हैं। पैरों की मालिश करवानी है तो सौ रुपया और सिर की मालिश के लिए तीन सौ रुपया। सरसों का तेल तो कम दाम, और जैतून तेल या बादाम रोगन अधिक दाम। हमने सोचा था गरीबों के निचले डिब्बों में कम दाम की पैरों की मालिश अधिक होगी और ऊंचे वातानुकूलित डिब्बों में सिर की महंगी मालिश। लेकिन हजूर चम्पुओं को बड़ी हैरानी हुई जब ऊंची क्लास के डिब्बों से भी बड़े लोग पैरों की मालिश की मांग करने लगे। किसी नेता का चाटुकार साथ नहीं आ पाया, तो वह पैर की मालिश करने वाले चम्पू के बगैर रह नहीं पाता, क्योंकि ‘छुटती नहीं है काफिर मुंह को लगी हुई। सिर की मालिश करने वालों को बड़ी मुश्किल आई। क्योंकि सिर की मालिश की ज़रूरत तो उन भद्रजनों को थी, जो देश को नित्य नई ऐसी नीतियां बना कर पेश कर रहे हैं, लेकिन यहां एक बड़ी कठिनाई है। इन्हें तो इन रेल कोचों में फ्री पास पर यात्रा करने की आदत है। अब वे इस सिर की मालिश करने वालों को भी अपना भुगतान ऊपरी खाते से लेने के लिए कह रहे हैं। हमारे चम्पू अपना माथा पीट रहे हैं।