पहले से कम हुई हैं संवेदनाएं

महारी बड़ी दिक्कत मान्यता को व्यवहारिक स्तर पर ढालने की है। हम अच्छी तरह जानते हैं सड़क पर चलने के नियम क्या हैं? दुपहिया वाहन या कार चलाते हुए किन नियमों का पालन ज़रूरी है। तब भी हम जल्दबाज़ी में रेड लाइट जम्प करते हैं। वेबजह दूसरे चलते वाहन से रेस लगा बैठते हैं और दुर्घटनाओं को आमंत्रित कर बैठते हैं। कई बार भयानक हादसे का शिकार भी हो सकते हैं। एक जल्दबाज़ी जो दिमाग में बसी रहती है उसको थाम नहीं पाते और नुक्सान करवा बैठते हैं। हम और भी अच्छी तरह जानते हैं कि पानी अनमोल है। यह भी सुनते हैं कि अगर हम पानी बचा नहीं सकते तो हमें फालतू में बहाने का कोई अधिकार नहीं। तब भी घर की सफाई के वक्त मेरी बहनें, मेरी बेटियां खूब पानी फैंकती हैं। घर के दरवाजे, फर्श, गेट, गली धोनों या गाड़ी धोने/धुलवाने के वक्त खूब पानी व्यर्थ लुटाते हैं। धर्म-स्थलों पर मोटे अक्षरों में लिखा देखते हैं ‘पवन गुरु पानी पिता’ हम पढ़ते हैं और फिर व्यवहार में उसके प्रभाव को भूले रहते हैं। जो सोच, जो चेतना इससे मिलती है जीवन व्यवहार में उसे भूले रहते हैं। टी.वी. के एक चैनल पर ‘कौन बनेगा करोड़पति’ कार्यक्रम काफी बड़ी संख्या के लोगों द्वारा देखा गया है। जिसके एक अंक में राजेन्द्र सिंह को बुलवाया गया था। देश में वह पानी बाबा ‘वाटरमैन’ के नाम से पुकारे जाते हैं। राजेन्द्र सिंह के काम का बड़ा केद्र पानी संचयन का है। वह ऐसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हैं जिन्होंने लगभग एक हज़ार गांवों को पानी संचयन सिखाया है। बता रहे थे कि किस तरह गांव वालों को संगठित करके पानी संग्रहित किया जा सकता है। सूर्य की किरणों से पानी को बचाना कभी भी आसान नहीं होता। व्यंग्य के लहज़े में कह रहे थे कि नेताओं के सिर के ऊपर पानी संचयन करें तो यह सम्भव है कि संचयन किये पानी के कारण ही सही परन्तु साधनहीन वर्ग के लिए उनकी आंख से आंसू तो बहेगा। एक और नाम यहां उल्लेखनीय है। वह है अनुपम मिश्र का। लगभग अढ़ाई दशक पहले उनकी उल्लेखनीय किताब आई थी ‘आज भी खरे हैं तालाब’ जीवन जल की सम्भाल के लिए उपयोगी। कहते थे भाषा मन और माथा दोनों हैं। -एक बड़े समुदाय का मन और माथा जो अपने आस-पास के और दूर  से भी संसार को भी देखने-परखने और बरतने के संस्कार अपने में सहज संजो लेता है। ये संस्कार उस समाज को मिट्टी, पानी और हवा में अंकुरित होते हैं, पलते हैं और बढ़ते हैं। अक्सर हम उनसे सुन पाते थे पूरा देश ही मेरा घर है। उनके उस संकल्प को नमन है कि राजस्थान के अलवर में मृतप्राय अरवरी नदी को पुनर्जीवित करने के लिए किया। अरवरी नदी को नई पहचान दी गई। राजस्थान के ही लोपोडिया और उत्तराखंड में परम्परागत जलस्रोतों को दोबारा जीवित में भी बड़ा योगदान है। योगिता शुक्ल के पर्यावरण संबंधी एक प्रश्न के उत्तर में कहा- मेरा अपना छोटा-सा अनुभव है उस आधार पर यह कह सकता हूं कि पर्यावरण के प्रति संवेदना आज बढ़ने के बदले घटी है। दिखती है बढ़ी हुई, लेकिन परिणाम नहीं दिखते उस अनुपात में। अपने सभी पुराने समाजों में इससे ज्यादा संवेदना थी। उन्होंने अपनी पूरी जीवनशैली उस अपने पर्यावरण के इर्द-गिर्द ढाली थी। उन दोनों में कोई अंतर नहीं था। ऐसा नहीं था कि पर्यावरण की शिक्षा देने में पर्यावरण मजबूत होगा या पर्यावरण के कारण शिक्षा मजबूत होगी। फिर एक बिल्कुल भिन्न किस्म की शिक्षा प्रणाली अंग्रेज़ों के कारण आई। वो अपने इलाके के पर्यावरण से कटी हुई है। वो बिल्कुल एक-सा काम सिखाती है लोगों को। अब चाहे कोई नागालैंड में रहता हो उसको पढ़ने वाला, या मरु भूमि में रहता हो, उसको अपने इलाके में कोई मतलब नहीं। सिर्फ साधारण शिक्षा ही नहीं। भूगोल की शिक्षा भी वही है। विविधता को नष्ट करना भी उन्हें कतई नापसंद था। सांस्कृतिक विविधता को ज़रूरी समझते थे। राजेन्द्र सिंह को आशंका है कि भारत के सांस्कृतिक महत्त्व की प्रतीक गंगा विलुप्त हो सकती है। वाटरमैन राजेन्द्र सिंह के हाथ हम क्यों मजबूत नहीं करते। राजनीतिक पार्टियों में से कोई आगे बढ़ कर उनके काम को ज्यादा बढ़ावा नहीं देती? ताकि उन्हें खुल कर काम करने का अवसर तो मिले।