वनों की रक्षा हम सभी का नैतिक कर्तव्य

वन हमारी अमूल्य धरोहर हैं. वन ही जीवन हैं। इन शब्दों की गहराई को आज हमें यथार्थ में  समझने की आवश्यकता है। इस तथ्य से हम विमुख नहीं हो सकते कि वनों का हमारे जन्म से लेकर मृत्यु तक गहरा सम्बन्ध है। वनों का उपयोग हम मानव सभ्यता के उदगम से लेकर आज तक करते आ रहे हैं। हमने इनका सदियों से बिना योजना के  निवास स्थान, खेती- बाड़ी , ईंधन, औद्योगिक विकास के लिए ,चारे के लिए, भवन  निर्माण आदि के लिए अपनी सुविधा के मुताबिक उपयोग किया है। वन अपने आप में ही, वर्षा लाने, बाढ़ को नियंत्रित करने ,मिट्टी के संरक्षण में , भूमिगत पानी के स्तर को बनाये  रखने के लिये , हवा को स्वच्छ रखने में ,मिट्टी की सतह को बहने से रोकने के लिए हमारी कुदरती तौर पर मदद करते हैं। मिट्टी का निर्माण एक धीमी प्रक्रिया है। वैज्ञानिकों का मत है कि मिट्टी के एक इंच कैप/ 2.5  सेंटीमीटर  के निर्माण में 500 से 1000 साल तक का  समय लग जाता है । संसार में 50,000  वर्ग मील वन प्रतिदिन अपना  हरा आवरण खो रहे हैं, जो कि  खतरे का सूचक है। पृथ्वी के अंदर मौजूद रेडीयोधर्मी तत्व भी धरती के ताप को बढ़ाते हैं, जिससे ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ावा मिलेगा। अंटार्कटिक, ग्रीनलैंड और हिमखंडों की बर्फ पिघलनी शुरू हो जाएगी। समुद्र का जल स्तर बढ़ जायेगा जिससे  तटीय क्षेत्र पानी में डूब जायेंगे। यदि हम प्रकृति को  बचाना चाहते हैं तो वनों को बचाना जरूरी है, अन्यथा हम किसी भी प्रकार से पृथ्वी को सुरक्षित नहीं रख सकते । भारत उन चंद मुल्कों की श्रेणी में है, जिनकी 1894  से फारेस्ट पालिसी है। वन नीति - स्टेट फारेस्ट ऑफ़ इंडिया 2013 के मुताबिक, भारत के जंगलों और पेड़ों से ढकी धरती का क्षेत्रफल 78.92 मिलियन हैक्टेयर है, जो कि हमारे कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 24.09  है। राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार हिमाचल जैसे पहाड़ी इलाके  में सुरक्षात्मक और उत्पादक दोनों कार्यों के लिए  60 प्रतिशत जंगलों का होना जरूरी है। हिमाचल प्रदेश का 36,986  वर्ग किलोमीटर  इलाका वन श्रेणी में आता है, जो कि कुल क्षेत्रफल का 66.4 है। 1988 की फारेस्ट पलिसी का मुख्य उदेश्य वनों का बचाव, संरक्षण और विकास करना है। हिमाचल ने 1980 में राष्ट्रीय वन नीति, 1952 की बनावट को संशोधित किया, इस नई नीति के अनुसार 2000 तक कम से कम 50  प्रतिशत इलाका जंगल के दायरे में आ जाना चाहिए था। इसके लिए 20 साल की योजना बनाई गयी थी। इन 20 सालों में काफी धन इस योजना में लगाया गया परन्तु प्रदेश में जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण के लिए पेड़ों को काटा  गया जिससे लगभग जंगल उतने ही रहे जितने पहले थे।  हिमाचल सहित देश के अन्य राज्यों में मई और जून महीने में अक्सर जंगल आग की चपेट में आ जाते हैं। प्रतिवर्ष सरकारी आंकड़ों के अनुसार अरबों रुपए की सम्पत्ति राख में बदल जाती है। इस प्रकार  जीव- जन्तुओं की दुर्लभ प्रजातियों का अस्तित्व खतरे में है । हिमाचल में भी जंगलों में आग की घटनाएं हो रही हैं। प्रशासन  के पास इन परिस्थितियों से निपटने के प्रभावी उपाय नहीं हैं, जिसका कारण जंगलों का दुर्गम और पहाड़ी क्षेत्रों में होना है। नागरिकों का वनों के महत्व को कम आंकना, अन्य गैर सरकारी संगठनों का इसमें रूचि न लेना, पर्याप्त साधनों का अभाव मुख्य कारणों में से हैं? लेकिन सामूहिक जानकारी और सहयोग से हम इस पर नियंत्रण रख सकते हैं।प्रशासन को चाहिए कि संवेदनशील इलाकों को चिन्हित कर पहाड़ी क्षेत्रों और जंगलों के आस-पास मौजूद प्राकृतिक स्त्रोतों के पानी को जलाश्य के रूप में एकत्रित कर,  इस प्रकार की स्थिति से निपटने के लिए योजना बनाये। पानी का संग्रहण जंगली जीव जन्तुओं के लिए भी उपयोगी होगा। ईंधन के रूप में जंगलों में  फैले हुए पत्ते , झाड़ियों ,घास आदि को प्राकृतिक खाद बनाने के लिए उपयोग में लाया  जा सकता है वहीं इन पर शोध करके नये उपयोगी चीजों के लिए विकसित किया जा  सकता है , जिससे आग लगने की सम्भावनाओं को कम किया जा सकता है । सरकारी  तंत्र और वन विभाग के कर्मचारी विस्तृत क्षेत्र होने के  कारण हर समय सभी घटनाओं पर नज़र नहीं रख सकते लेकिन  आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल से इलाके और कर्मचारियों के कार्य पर निगरानी रख  सकते हैं । समय-समय  पर लोगों को जागरूक करने के लिए अभियान चलाया जाना भी लाजिमी है। वनों को बचाना प्रशासन या वन विभाग का ही कार्य नहीं अपितु  समस्त मानव जाति का प्राथमिक कर्तव्य है। सभी को मिलकर जीवनदायी वनों,  अमूल्य जीव-जन्तुओं को सुरक्षित रखने के लिए सहयोग करना होगा ताकि हम पृथ्वी को सुरक्षित और स्वच्छ रख सकें । वनों के बिना, जीवन की मात्र कल्पना ही रह जाएगी। 

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