आज़ादी के सात दशक पश्चात भी पेयजल को तरसते लोग

महाराष्ट्र के गांव में स्वास्थ्य विभाग का एक अधिकारी अपनी टीम के साथ पहुंचा। गांव के लोगों को इकट्ठा करके कहने लगा कि 80 प्रतिशत से ज्यादा शारीरिक बीमारियों का कारण पानी की कमी ही है, क्योंकि पानी शरीर के ज़हरीले तत्वों को शरीर से बाहर निकालने का काम करता है। इसलिए मनुष्य को दिन में कम से कम आठ गिलास पानी पीना चाहिए। यह सुन कर सभी देहाती एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे क्योंकि विधरमा का वह गांव एक-एक बूंद पानी को तरस रहा था। एक बूढ़े ने उठ कर कहा कि ‘हजूर सारे गांव भर के लिए आठ गिलास पानी नहीं एक व्यक्ति कहां से पीये, अढ़ाई-अढ़ाई कोस जा कर एक मटका पानी लाते हैं।’ हम नहीं जानते कि इसके बाद वह स्वास्थ्य अधिकारी शर्मसार हुआ अथवा नहीं। आज देश की हालत यह है कि भारत के कई राज्य जल संकट का सामना कर रहे हैं। सूर्य देव रोद्र रूप में आकाश से आग बरसा रहे हैं। कहीं-कहीं तो पारा 50 डिग्री से अधिक भी हो गया है। पानी का स्तर दिन-ब-दिन गिरता जा रहा है। कुएं सूख गए, जलाशय पानी की बूंद को तरस रहे हैं। टैंकर पानी भर-भर के प्यासे लोगों के लिए ले जा रहे हैं और पानी के लिए छीना-झपटी इस बात का प्रमाण है कि पानी कितना कीमती होता जा रहा है। आज़ादी के 72 वर्ष पश्चात भी हमारा देश अपने लोगों के लिए पेयजल का प्रबंध नहीं कर सका, इसे क्या कहिए। वर्षा का 15 प्रतिशत पानी ही देश के काम आता है। 85 प्रतिशत पानी नदियों-नालों से होकर सागर में चला जाता है। जोहड़, तालाब, झीलें, वर्षा ऋतु का पानी भी समेट नहीं सकी। वर्ष 2002 में तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी ने जब सड़कों का जाल देश में बिछाया तब उन्होंने एक योजना ऐसी भी बनाई थी, जिससे देश की नदियों को आपस में जोड़ा जा सके ताकि कहीं भी बाढ़ अथवा सूखा अपना विकराल रूप न दिखा सके, परन्तु वर्ष 2004 में जब डा. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तब भगवान जाने उस योजना की वो फाइल क्यों ठंडे बसते में डाल दी गई और नदियों को जोड़ने वाली योजनाएं यदि आज होती तो पेयजल को तरसते लोग देखने-सुनने को न मिलते। जल, जंगल, जानवर, ज़मीन और सभी का जीवन एक पर केन्द्रित है और वह है जल। कहा जाता है कि पेयजल के लिए साढ़े चार प्रतिशत पानी की आवश्यकता है और साढ़े दस प्रतिशत खेत-खलिहान वन-सम्पदा के हिस्से में आता है। ग्लोबल वार्मिंग की तरफ उंगली उठाने से क्या देश के लोगों को पेयजल उपलब्ध हो सका? कुछ लोग कहते हैं कि कुछ राज्य धान की फसल उगाने पर धरती से ज़रूरत से अधिक जल खींच रहे हैं। क्या हमने ‘रेन वाटर हारवेस्ंिटग’ की योजना कभी आगे बढ़ाने की कोशिश की? ऐसा लगता है कि हमारे देश की सरकारें भी वर्षा ऋतु की कृपा की प्रतीक्षा में लगी रहती हैं। गांव-देहात में कभी सुनने को मिलता था ‘अल्लाह मेघ दे पानी दे पानी दे गुड़ घानी दे’, लोग भगवान शंकर और इंद्र देव को प्रसन्न करने के लिए कई तरह के पूजा-पाठ करते देखे जाते हैं। यह भी हकीकत है कि पानी अमृत है परन्तु कड़वा सच यह है कि मानसून से आज तक कभी भी सम्पूर्ण भारत की प्यास नहीं बुझी और न ही कभी बुझेगी। ऐसा मानने वाले भी बहुत से लोग हैं। लगभग आधा भारत पानी के लिए त्राही-त्राही कर रहा है। किसी-किसी राज्य में तो पानी सप्ताह में दो बार ही टैंकरों अथवा अन्य साधनों से आता है। इस पर सरकारें खामोश और मूक-दर्शक बनी क्यों दिखाई देती हैं? सरकारें जानती होंगी कि भारत में वर्षा के केवल 100 दिन ही होते हैं और भारत में जल संकट असमान्य वर्षा के कारण भी है। लोगों को 365 दिन पानी की ज़रूरत है। भारत नदियों के किनारों पर बसा देश है। नदियों को मां स्वरूप माना जाता है जो जीवन दायनी कही जाती हैं फिर भी पेयजल के लिए हमारे देश के बहुत से लोग तरस रहे हैं, क्योंकि नदियों का पानी भी पीने के लायक नहीं रहा। सरकार ने गंगा के अतिरिक्त कई अन्य नदियों की स्वच्छता की ओर ध्यान तो दिया है परन्तु इसके लिए समाज में जागृति क्यों नहीं आई? कौन गंदा करता है इन पावन नदियों को? यह भी कहा जाता है कि जहां पानी उपलब्ध है वहां के रहने वाले लोग पानी का दुरुपयोग करने में हिचकिचाते नहीं। देश में जल संकट हो तो देश वासियों को सभी की जलापूर्ति के लिए जल का कम से कम ज़रूरत के अनुसार प्रयोग करना चाहिए। क्या हमारे लोग ऐसा कर पाते हैं?जापान से हमें सीखना चाहिए कि जितना जल बचा लिया उतने जल संकट से राहत मिल जाती है। वह पानी बचाने के बहुत से तरीके अपना रहा है। भारत में घरेलू ब़ाग-बगीचों में पानी ज़रूरत से अधिक जाया किया जा रहा है, कार धोई जा रही है, फर्शों आदि सड़कों पर पानी फैंका जा रहा है, क्या हम वरुण देवता का सम्मान कर रहे हैं? क्या इससे हम वरुण देवता को नाराज़ तो नहीं कर रहे? आप सब जानते होंगे कि एक किलोमीटर पानी की आपूर्ति पर 17 रुपए से 20 रुपए तक खर्च आता है, जबकि नगर निगम बहुत कम पैसे वसूलते हैं। कुछ क्षेत्रों में पानी मुफ्त दिया जा रहा है। ऐसा नहीं होना चाहिए, क्योंकि मुफ्त में मिली वस्तु की कीमत नहीं होती। धार्मिक भावनाओं को यदि देखा जाए तो पारसी लोग जल, अग्नि और वृक्ष की पूजा करते हैं। इस्लाम धर्म में नमाज़ से पूर्व वुजू करते हैं, जिसमें कुछ थोड़ा-सा पानी कलाई में भर कर कोहनी तक ले जाया जाता है। नीचे नहीं गिरने दिया जाता, परन्तु हिन्दू धर्म में वरुण देवता इनके प्रत्येक पूजा प्रद्वति में ज़रूरी माना गया है। फिर भी चरणामृत देते समय तीन बार थोड़ा-थोड़ा जल देना पानी का महत्त्व दर्शाता है।  तालाब क्या फिर देश के लिए अनिवार्य होते जा रहे हैं, क्या मनरेगा के अधीन हम नए तालाब निर्मित नहीं करवा सकते? हर वर्ष गर्मियों की यही कहानी है। जल आपूर्ति मंत्री नितिन गडकरी ने पाकिस्तान को जाते भारत के हिस्से का पानी रोकने के लिए एक प्रयास आरम्भ किया है जिसे पूर्ण रूप में सामने आने में कुछ देर तो लगेगी, परन्तु गुजरात में जब मोदी जी वहां के मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने बहुत बड़ी पाइपों से नर्मदा का जल साबरमती तक पहुंचाने में सफलता हासिल की थी। क्या कुछ ऐसा अब नहीं हो सकता? सरकार और समाज सभी को जल के महत्त्व को पहचानना होगा और जल संकट से निजात पानी होगी।