बाढ़ के दिनों में प्यार

बहुत दिनों से औरतों के बारे में न सोचा है और न लिखा है। रोजी-रोटी के जुगाड़ में अफसरों की चाटुकारिता से लेकर ज़िन्दगी के बेशर्म समझौते करते-करते दृष्टि बिन्दू पर भोथरापुन कुछ इस तरह हावी हो गया, कि हर समय अमावस का अंधेरा ही आसमान में दिखाई देता है। भूल गये कि यहां कभी चांद भी खिलता है, और पूरे चांद की रात को ताजमहल कुछ इस कद्र दुधिया चांदनी से नहा उठता है कि पर्यटकों को उसे देखने के लिए कभी-कभी ब्लैक में भी टिकट खरीदनी पड़ती थी। लेकिन जा रे ज़माना, अब कसैलत पर्यावरण का धुंआ कुछ इस कद्र पलटी मार कर हमारी संगमरमरी संवेदना पर हावी हो गया कि देखते ही देखते यह संगमरमरी सौंदर्य काला लगने लगा, जब कि देखने वाली आंखों को अब मोतियाबिंद की शिकायत भी नहीं।
आसमान में चांद खो गया, और सड़कों पर बाली उम्र की लज्जा से पानी होती हुई वे लड़कियां, जिन्हें देख कर लगता था, ‘हाथ लगाओगे तो मैली हो जाएंगी।’ अब प्रेम निवेदन करने पर उनकी गालों पर उभरते यौवन की उल्लास अठखेलियां नहीं करता, बल्कि उनके हाथ में पकड़ा हुआ टिफिन कांपने लगता है।
अब उनके साथ खड़े होकर आसमान में घुमड़ते हुए बादल देखने को जी नहीं चाहता। बल्कि बादल घुमड़ता है तो केवल बारिश नहीं, अपने घर आंगन में सदसदा कर घुसते हुए जल ज्वार की तस्वीर उभरने लगी है। आजकल स्वच्छ भारत के पैरोकार आलसी सफाई कर्मचारी हो गये हैं। इसलिए चाहे बारिश ने दस्तक दे दी, शहर का सीवरेज इस बार भी साफ नहीं हुआ अब कैसे गा दें, ‘बरखा रानी ज़रा थम के बरसो। मेरे दिलवर को आने दो। फिर झूम के बरसना कि वह एक बार आये तो जल्दी जा न पाये वापिस।’
लेकिन इस सबके लिए गाना गाने की क्या ज़रूरत है? आज कल तो वैसे भी बारिश चक्रवात तूफान के अंदाज़ में बरसती है। इस बारिश में प्रेमिका हमारे द्वारे चली आई, तो बिन फेरे हम तेरे के अन्दाज़ में यही होकर रह जाएगी। देखते ही देखते हमारे घर आंगन में जल थल हो जाएगा। कमरों में पानी हरहरायेगा और हम अपनी प्रेमिका सहित कबूतर-कबूतरी का जोड़ा बन जाएंगे, जो किसी रोशनदान में बैठकर बारिश का मुआइना करेगा और अपना-अपना दिल हथेली पर देखने की बजाय गुटरगूं की भाषा में बतियायेगा कि स्थिति कब नियंत्रण में होगी।’
हम खुशनुमा मौसम का इंतजार कर रहे हैं, ताकि ब़ागों में जा कर चिल्ला सकें, ‘बागों में बहार है, फूलों का निखार है, है।’ लेकिन कौन सी बहार मियां क्या वह बहार जिन पर कूड़ों के डम्पतारी हो गये हैं। किन फूलों की तलाश में चले? वे तो न जाने कब के कांटे बन कर भद्रजनों की पोशाक का सरताज हो गये। कभी सूखे करौदों की माला पारो ने शरत के देवदास को पहनायी थी, आज तो रुपयों की माला की बात करो, वह भी प्रेमियों के गले में पहनायी नहीं जाती, नेताओं के गले की शोभा बनती है, जो चुनाव जीत कर राज मार्ग से अपनी शोभा यात्रा निकाल कर चले गये, हमारी उजड़ी बस्तियों में धन्यवाद के दो शब्द भी कहने नहीं आये।  लेकिन आजकल ‘धन्यवाद करना’ ‘कृतार्थ हो जाना, ‘कृत्य-कृत्य महसूस करना’ इत्यादि इतने पुरातन पंथी हो गया है, कि आज के शब्दकोष से ही बहिष्कृत हो गया है।
इसकी जगह पढ़ लेना ‘अपने वोटरों को टोपी पहना देना’ और ‘जुमलों’ से हथेली पर सरसों उगा देना, आज का प्रचलित  वार्तालाप है। इसी का प्रयोग आजकल नायिकायें भी अपने मजनुओं से करने लगी हैं। नज़र उठा कर जिधर भी देखता हूं सभी ओर नये मजनू टोपियां पहन कर घूम रहे हैं, और लड़कियां बॉय-बाय करके यह जा वह जा। ज़माना बदल गया साहिब आजकल लड़कियां सहमे-सहमे अन्दाज़ में, धीमें मखमली स्वर में धरती कुरेदते अपने पैर के अंगूठे से बात नहीं करती, बल्कि ऊंची आवाज़ में आप पर चिंघाढ़ती हैं।
अभी एक अदालत ने भी फैसला दिया है कि बीबी अगर सलज्ज मुस्कान की जगह आप पर निंघारती है तो इससे आप किसी दिवंगत सर्कस को याद चाहे कर लें, तलाक देने की अर्जी नहीं लगा सकते। इतनी सदियों तक आप उसे ‘पांव की जूती’ और ‘कमज़ोर लिंग’ बता उस पर चिल्लाते रहे। उसे अबला जीवन बता उसकी आंखों में पानी और आंचल में दूध तलाश करते रहे। अब उसने भी आपकी लवतरानियों पर चीखना सीख लिया, तो झल्ला कर उसे तलाक देने चले आये, इसलिए हे वंधु, अब ऊंची आवाज़ से चिल्लाने वाली बीवियों की आदत डाल लो, फुसफुसा कर जीने का ज़माना चला गया।