कौशल विकास की चुनौती में निहित है बेरोज़गारी की समस्या

नई सरकार के सामने एक तरफ  आर्थिक विकास में तेजी लाने की चुनौती है तो दूसरी ओर बेरोजगारी दूर करने के लिए युवाओं में नई टेक्नोलाजी के अनुसार कौशल विकास की जान भी फूंकनी है । कौशल विकास योजनाओं को गतिशील बनाने की राह में आड़े आने वाली बाधाएं हटानी हैं। क्योंकि नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार कहते हैं कि कौशल विकास की योजनाओं का स्वरूप युवाओं की महत्वाकांक्षा पूरी करने और रोजगार का अच्छा अवसर मिलने में सहायक की होनी चाहिए। क्योंकि इसका संबंध देश की अर्थ-व्यवस्था से भी है इसलिए श्री कुमार का यह भी कहना है कि प्रोफेशनल, प्रतिभाशाली और कुशल युवाओं की बदौलत ही हमारा आर्थिक विकास होता है । ये कुशल लोग ही विदेशी मुद्रा अर्जित करते हैं। हमारे कई क्षेत्रों में कुशलता का बड़ा अभाव है । 
इसमें कोई संदेह नहीं है कि मौजूदा सरकार के पिछले कार्यकाल में कौशल विकास को लेकर की गई पहल के ठोस नतीजे नहीं निकल पाए । इसका अंदाजा तीव्र्र हो चुकी बेरोज़गारी के हाहाकर से भी लगाया जा सकता है। राजग की नई सरकार गठन के अगले रोज ही उसके द्वारा जारी की गई पहली सार्वजनिक रिपोर्ट के अनुसार बेरोज़गारी की वर्तमान दर 6.1 फीसदी है जो कि पिछले 45 सालों में एक रिकार्ड है । बेरोजगारी के हाहाकार का नजारा केंद्र सरकार द्वारा 2015 में रोज़गार देने वाले पोर्टल करियर सर्विस सेंटर पर रजिस्टर्ड बेरोज़गारों की संख्या को देखकर भी लगाया जा सकता है , जो कि एक करोड़ को पार कर चुकी है। चौंकाने वाले इन आंकड़ों के पीछे एक बड़ा कारण कंपनियों की मांग के मुताबिक  योग्य उम्मीदवारों का उपलब्ध न होना भी है । निजी कंपनियों को तो ज्यादातर बेरोजगारों की योग्यता पर कोई भरोसा ही नहीं है । उनके द्वारा प्लेसमेंट का तरीका सरकारी विभागों से अलग और अत्याधुनिक है। 
दरअसल कहने को तो देश में व्यापक प्रशिक्षण नेटवर्क बनाने के लिए नई शिक्षा की शुरूआत वर्ष 1950 से ही हुई । उद्देश्य नए कल-कारखानों के लिए कुशल कामगारों का विकास करना था । लेकिन सच्चाई यही है कि यह व्यवस्था कभी परवान नहीं चढ़ पायी । इसे बुनियादी और सामान्य विषयों की शिक्षा के साथ जोड़कर कभी नहीं देखा गया बल्कि इसे अलग से व्यावसायिक शिक्षा का ढांचा बना दिया गया । यहां प्रशिक्षण लेने और देने वालों के बीच कई कारणों से तारतम्यता नहीं बन पाई। जिन्होंने कौशल हासिल किया, उनमें बदलावों के अनुरूप सुधार की संभावना नहीं बनी । दूसरी तरफ  सामान्य शिक्षा और प्रशिक्षण वाली व्यावसायिक शिक्षा के बीच की खाई बिल्कुल एक ‘अमीर’ और ‘गरीब’ व्यक्ति जैसी बनी रही । सभी पिछली सरकारें और शिक्षाविदों ने यह मान लिया था कि मैट्रिक, इंटर, ग्रेजुएट या पोस्ट ग्रेजुएट करने वालों में व्यावसायिक शिक्षा एक ऐच्छिक कोर्स है । इसकी जरूरत सब को नहीं है । 
नतीजा यह हुआ कि दफ्तर में पानी पिलाने वाले, दरवाजा खोलने वाले, खाता-बही लिखने वाले और उन्हें सहेजने-संभालने वाले या उनका प्रबंधन करने वाले पूरी नौकरी के दौरान एक ढर्रे पर ही बने रहे । उस दरम्यान जब तकनीकी बदलाव की बात आयी तो उन्हें उसके अनुरूप बनाने की कोशिश नहीं हुई। दूसरे तकनीक और मशीनीकरण को व्यावसायिक शिक्षा के साथ जोड़ दिया गया। यानी कि कर्मचारियों का प्रशिक्षण ढाक के तीन पात बनकर रह गया, जबकि इसके लिए वर्ष 1961 में नेशनल अप्रेंटिसशिप कानून भी बना । इसका मकसद कर्मचारियों को  प्रशिक्षण देना था । इसमें प्रशिक्षु भत्ता की बात तो की गई, लेकिन शिक्षा के साथ जोड़ने पर विचार तक नहीं किया गया, ताकि दफ्तरों को पहले से प्रशिक्षित कर्मचारी मिल सकते ।
बहरहाल अब तकनीक का दौर न केवल काफी बदल चुका है बल्कि इसमें वैश्विक गतिशीलता भी आ गई है। एक तरह से यह नई चुनौती बनकर उभरी है। इससे निपटने के लिए एक प्रयोग देश में पहला सुपर कम्प्यूटर परम विकसित करने वाला विभाग सीडैक ने किया है। पुणे में पीपीपी आधार पर 2001 में स्थापित महाराष्ट्र नालेज कारपोरेशन लिमिटेड ने वर्ष 2012 में अप्रेंटिशिप और शिक्षा को साथ जोड़ने का एक प्रयोग किया था। इसके तहत प्रशिक्षुओं को नौकरी के लिए तैयार करने के साथ उन्हें अंग्रेजी, डिजिटल कौशल और अन्य जरूरतों का प्रशिक्षण दिया जाता है। वे सप्ताह में पांच दिन पुणे की कंपनियों में बतौर प्रशिक्षु काम भी करते हैं । बदले में प्रशिक्षण भत्ता मिलता है । ऐसे प्रशिक्षु युवाओं को बहुराष्ट्रीय और देशी कंपनियों में योग्यता के अनुसार आसानी से जगह मिल जाती है। 
 इससे अगर शिक्षा हासिल करने वाले युवाओं को कौशल विकास और कार्यकुशलता की दक्षता जरूरी होने की सीख मिलती है, तो सरकारों को भी इस संदर्भ में विशेष ध्यान देने की जरूरत है। वैसे निजी सार्वजनिक भागीदारी के आधार पर केंद्र सरकार द्वारा 2008 में राष्ट्रीय कौशल विकास निगम बनाया गया है, जिसे 2015 में कौशल विकास एवं उद्यमिता मंत्रालय के अधीन कर दिया गया है । इस प्रयास के पर्याप्त नतीजे नहीं आने की वजह प्रशिक्षुओं की निर्भरता केवल 19 मंत्रालयों के सरकारी विभागों की नौकरियों पर होना है । जबकि दूसरी तरफ उन्हीं विभागों के अधिकतर कामकाज आउटसोर्स किए जा चुके हैं या फिर निर्माण और सर्विस के बड़े प्रोजेक्ट बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों में हैं। वे आधुनिक तकनीक से लैस हैं, उनमें आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और आटोमेशन के जरिए कई बदलाव भी किए जा रहे हैं । ऐसे में घिसे-पिटे ढंग से कौशल विकास प्राप्त युवाओं की पहुंच उन तक कैसे बने, यह अहम सवाल है। 
अब देखना यह है कि नई सरकार उभरते भारतीय युवाओं को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, मशीन लर्निंग और इंटरनेट आफ थिंग्स जैसी तकनीकों के अनुरूप कितना प्रशिक्षित कर पाती है? उनका स्किल कितना विकसित हो पाता है? साथ ही यह प्रशिक्षण किस तरह से सामान्य शिक्षा के साथ जुड़ पाता है? हिंदी पढ़ें या नहीं, इसे लेकर विरोध जताने वाले तकनीकी प्रशिक्षण को स्कूली स्तर से जोड़ने के लिए क्यों नहीं आंदोलन छेड़ते हैं? जबकि इसका आधार कंप्यूटर की पढ़ाई ग्रामीण स्तर तक के स्कूलों में उपलब्ध नहीं है, न ही इसे किसी भी बोर्ड ने एक आवश्यक विषय के रूप में लागू करना जरूरी समझा है। 
  -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर