जैसी सोच वैसा परिणाम

एक व्यवसायी के चार पुत्र थे। सभी मिलजुल कर रहते थे। व्यवसायी की मृत्यु के बाद पुत्र अलग-अलग हो गए और अपना अलग-अलग व्यवसाय करने लगे। चारों भाई अलग-अलग थे, लेकिन जब भी किसी संयुक्त पारिवारिक दायित्व को पूरा करने का अवसर आता सभी मिल-जुल कर उसे पूरा करते। सभी भाइयों का व्यवसाय अच्छा चल रहा था, लेकिन बड़े भाई का व्यवसाय सबसे ज्यादा अच्छा था। अलग होने के कुछ दिनों के बाद ही बड़े भाई ने कहना शुरू कर दिया कि उसकी आय कम है और खर्च ज्यादा। वह संयुक्त पारिवारिक दायित्वों से बचने के लिए कहने लगा, ‘हमारी आय में तो हमारा अपना खर्च ही मुश्किल से चल पाता है।’ बड़े भाई का कथन धीरे-धीरे वास्तविकता में बदलने लगा। बाकी सभी भाइयों के परिवार सीमित थे, लेकिन बड़े भाई का परिवार लगातार बढ़ता ही गया। एक बेटे की चाह में पहले ही पांच बेटियां हो चुकी थीं। अब एक और बेटे की चाह में दो और बेटियों ने आकर परिवार के आकार को अच्छा-खासा विस्तृत कर दिया।समय बीतता गया और सचमुच ऐसे हालात बन गए कि परिवार का खर्च चलना मुश्किल हो गया। ज़मीन-जायदाद बिकने लगी। समृद्धि का धीरे-धीरे लोप होता चला गया। आखिर ऐसा क्यों हुआ? ऐसा सब हुआ बड़े भाई की सोच के कारण। बड़ा भाई स्वार्थी हो गया था। उसकी सोच विकृत हो गई थी। विकृत सोच के कारण परिवार इतना बढ़ गया। हमारी सोच का हमारी परिस्थितियों पर सीधा असर पड़ता है। जैसा हम विचार करते हैं वे विचार उसी प्रकार के वातावरण का निर्माण करने लगते हैं। यदि हमारे विचार सकारात्मक और आशावादी होंगे तो हमारे लिए अच्छी परिस्थितियां निर्मित होंगी और अच्छी परिस्थितियां हमारे जीवन में सुख-समृद्धि, आरोग्य और दीर्घायु लेकर आती हैं। हमारी इच्छाएं हमारी सोच का परिणाम हैं। वस्तुत: अपनी सोच द्वारा ही हम अपने भाग्य का निर्माण करते हैं। सकारात्मक सोच द्वारा सौभाग्य को तथा नकारात्मक सोच द्वारा दुर्भाग्य को आमंत्रित कर हम स्वयं अपनी नियति के नियातम होते हैं।