विवेकानन्द : तूफानी हिन्दू, राष्ट्रानुरागी संत!

स्वामी विवेकानन्द को उनके प्रखर व्यक्तित्व, विचारों, दर्शन, चिंतन व देश के प्रति समर्पण ने उस श्रद्धा व आदर का पात्र बनाया है जो बहुत कम को मिल पाता है। वेदान्त के विख्यात आध्यात्मिक गुरु स्वामी विवेकानन्द के मन में बचपन से ही धर्म एवं अध्यात्म के गहन संस्कार पड़ गए। माता-पिता के संस्कारों और धार्मिक वातावरण के कारण बालक नरेन्द्र के मन में बचपन से ही ईश्वर को जानने और उसे प्राप्त करने की लालसा दिखाई देने लगी थी। ईश्वर के बारे में जानने की उत्सुकता में महज 25 वर्ष की आयु में वह संन्यासी हो गए। गुरु की खोज में दर दर भटकते हुए वह कभी-कभी ऐसे प्रश्न पूछ बैठते थे कि वृद्धजन तक  चक्कर में पड़ जाते थे। गुरु की तलाश में वह जिससे भी मिले, निराशा ही हाथ लगी क्योंकि एक भी संत महात्मा उन्हें यह विश्वास नहीं दिला पाता था कि उसने स्वयं ईश्वर को देखा है या वह उन्हें भगवान के दर्शन करा देगा । केवल स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने ही उन्हें विश्वास दिलाया। कहते हैं कि ईश्वर के दर्शन भी कराए। बस विवेकानंद फिर तो उन्हीं के हो लिए व आजीवन उन्हीं के रहे।युवावस्था में उन्हें पाश्चात्य दार्शनिकों के निरीश्वर भौतिकवाद तथा ईश्वर के अस्तित्व में दृढ़ भारतीय विश्वास के कारण गहरे द्वंद्व से गुजरना पड़ा। रामकृष्ण परमहंस ने इस रत्न को परखा। इस दिव्य महापुरुष के स्पर्श ने नरेन्द्र को बदल दिया। उन्होंने उन्हें विश्वास दिलाया कि ईश्वर वास्तव में है और मनुष्य ईश्वर को पा सकता है। रामकृष्ण परमहंस ने सर्वव्यापी परमसत्य के रूप में ईश्वर की सर्वोच्च अनुभूति पाने में उनका मार्गदर्शन किया। कहा जाता है कि उस शक्तिपात के कारण कुछ दिनों तक नरेन्द्र उन्मत्त-से रहे। उन्हें गुरु ने आत्मदर्शन करा दिया था।  विवेकानंद ने ऐसे नये समाज की कल्पना की जिसमें धर्म या जाति के आधार पर मनुष्य-मनुष्य में कोई भेद नहीं रहे। उन्होंने अध्यात्मवाद बनाम भौतिकवाद के विवाद में पड़े बिना समता के सिद्धांत के आधार समाज निर्माण का आंदोलन खड़ा किया। विवेकानन्द को युवकों से बड़ी आशाएं थीं। वह कहते थे ‘उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्यवरान्निबोधियत’ उनका युवकों से आह्वान था कि वे ही भारत को बदलने को आगे आएं, तभी भारत बदलेगा। विवेकानंद देश के पुनर्निर्माण के लिए भारत भ्रमण पर निकले। भूखे भी रहे व छह वर्षों के भ्रमण काल में राजाओं और दलितों, दोनों के अतिथि रहे। उनकी यह यात्रा कन्याकुमारी में समाप्त हुई जहां ध्यानमग्न विवेकानंद को ज्ञान प्राप्त हुआ कि राष्ट्रीय पुनर्निर्माण की ओर रुझान वाले नए भारतीय वैरागियों और सभी आत्माओं, विशेषकर जनसाधारण की सुप्त दिव्यता के जागरण से ही इस मृतप्राय देश में प्राणों का संचार किया जा सकता है। भारत के पुनर्निर्माण के प्रति उनके लगाव ने ही उन्हें अंतत: 1893 में शिकागो धर्म संसद में जाने के लिए प्रेरित किया। उनके भाषण से सभी ने स्वीकार किया कि वस्तुत: भारत ही जगद्गुरु था और रहेगा। स्वामी विवेकानन्द ने वहां भारत और हिन्दू धर्म की भव्यता स्थापित करके जबरदस्त प्रभाव छोड़ा। संन्यास लेने के बाद उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। वह देश को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे। उनकी वक्तृत्व-शैली तथा ज्ञान को देखते हुए उन्हें ‘साइक्लोनिक हिन्दू’ का नाम दिया गया।  योग, राजयोग तथा ज्ञानयोग जैसे ग्रंथों की रचना करके विवेकानन्द ने युवा जगत को एक नई राह दिखाई, जिसका प्रभाव जनमानस पर युगों-युगों तक छाया रहेगा। कन्याकुमारी में निर्मित उनका स्मारक आज भी उनकी महानता की कहानी कह रहा है। उन्तालीस वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में स्वामी विवेकानंद जो काम कर गए, वे आने वाली अनेक शताब्दियों तक पीढ़ियों का मार्गदर्शन करते रहेंगे। तीस वर्ष की आयु में स्वामी विवेकानंद ने शिकागो, अमेरिका में विश्व धर्म सम्मेलन में हिन्दू धर्म का प्रतिनिधित्व किया और उसे सार्वभौमिक पहचान दिलवाई। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगौर ने एक बार कहा था, ‘यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानंद को पढ़िए। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पाएंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं।’ विवेकानन्द एक महान् देशभक्त, वक्ता, विचारक, लेखक और मानव-प्रेमी थे। अमेरिका से लौटकर उन्होंने देशवासियों का आह्वान करते हुए कहा था, ‘नया भारत निकल पड़े मोदी की दुकान से, भड़भूंजे के भाड़ से, कारखाने से, हाट से, बाजार से, निकल पड़े झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से।’ जनता ने उनका अनुसरण किया। वह गर्व के साथ निकल पड़े। गांधी जी को आजादी की लड़ाई में जो जन-समर्थन मिला, वह विवेकानंद के आह्वान का ही फल था। वह भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम के एक प्रमुख प्रेरणा-स्रोत बने।  उनका विश्वास था कि पवित्र भारतवर्ष धर्म एवं दर्शन की पुण्यभूमि है। यहीं बड़े-बड़े महात्माओं व ऋ षियों का जन्म हुआ, यही संन्यास एवं त्याग की भूमि है तथा केवल यहीं आदि काल से लेकर आज तक मनुष्य के लिए जीवन के सर्वोच्च आदर्श एवं मुक्ति का द्वार खुला हुआ है। उन्होंने कहा था, ‘उठो, जागो, स्वयं जाग कर औरों को जगाओ। अपने नर-जन्म को सफल करो और तब तक रुको नहीं जब तक कि लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।’ धर्म एवं तत्वज्ञान के समान भारतीय स्वतंत्रता की प्रेरणा का भी उन्होंने नेतृत्व किया। स्वामी विवेकानन्द कहा करते थे- मैं कोई तत्ववेत्ता नहीं हूँ। न मैं संत या दार्शनिक ही हूँ। मैं तो गरीब हूँ और गरीबों का अनन्य भक्त हूँ। मैं तो सच्चा महात्मा उसे ही कहूँगा, जिसका हृदय गरीबों के लिये तड़पता हो।अरबिंदो घोष, सुभाषचंद्र बोस, सर जमशेदजी टाटा, रबींद्रनाथ टैगोर तथा महात्मा गांधी जैसे महान व्यक्तियों ने स्वामी विवेकानन्द को भारत की आत्मा को जागृत करने वाला और भारतीय राष्ट्रवाद के मसीहा के रूप में देखा। विवेकानंद सार्वभौमिकता के मसीहा के रूप में उभरे।  रोमां रोलां ने उनके बारे में कहा था, ‘उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असंभव है। वह जहां भी गए, सर्वप्रथम हुए। हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता। वह ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी। हिमालय प्रदेश में एक बार एक अनजान यात्री उन्हें देखकर ठिठककर रुक गया और आश्चर्यपूर्वक चिल्ला उठा, ‘शिव !’ यह ऐसा हुआ मानो उस व्यक्ति के आराध्य देव ने अपना नाम उनके माथे पर लिख दिया हो।जीवन के अंतिम दिन भी उन्होंने ध्यान किया। उन्हें दमा और शर्करा के अतिरिक्त अन्य शारीरिक व्याधियों ने घेर रखा था। 4 जुलाई, 1902 को बेल्लूर में रामकृष्ण मठ में उन्होंने महासमाधि धारण कर प्राण त्याग दिए। कहा जाता है कि कुछ लोगों ने षड्यंत्रपूर्वक एक वेश्या के हाथों उन्हें जहर दिलवा दिया था। उनकी स्मृति में वहां एक मंदिर बना है और विश्वभर में विवेकानंद तथा उनके गुरु रामकृष्ण के संदेशों के प्रचार के लिए 130 से अधिक केंद्रों की स्थापना की गई है। वास्तव में विवेकानन्द भारत की आत्मा को जगाने का लक्ष्य ले कर चले थे जिसमें वह कामयाब रहे। काश, वह एक पूरी सदी तक जी पाते तो भारत चरित्र व नैतिकता के मामले में आज जैसी दुर्दशा को प्राप्त न होता। उनका अमेरिका में दिया गया भाषण सच हो गया होता कि ‘भारत ही विश्व गुरु था, है, और रहेगा।’ (युवराज)

 —घनश्याम बादल