जगन्नाथ पुरी की रथयात्रा का ऐतिहासिक महत्त्व

 पुरी और भगवान जगन्नाथ एक दूसरे के पर्याय हैं। भारतीय मनीषा का विश्वास है कि यह चौथा परम धाम है। शेष तीन धाम क्र मश: बद्रीनाथ सत्युग का, रामेश्वर त्रेता का तथा द्वापर का द्वारका धाम है जबकि वर्तमान कलियुग का पावनकारी धाम तो जगन्नाथ पुरी ही है। हर वर्ष आषाढ़ शुक्ल द्वितीया ं(इस बार आगामी 4 जुलाई को होने वाली विश्व प्रसिद्ध रथयात्रा में भाग लेने के लिए देश-विदेश के लाखों श्रद्धालु भक्त पुरी पहुंचते हैं। पूरे नगर में कहीं भी तिल रखने का स्थान शेष नहीं रहता।  रथयात्रा में मंदिर के तीनों मुख्य देवता, भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा भव्य और सुसज्जित रथों पर सवार होकर नगर की यात्रा को निकलते हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार द्वारका में एक बार सुभद्रा  ने नगर देखना चाहा, तो श्री कृष्ण और बलराम उन्हें अपने रथों के बीच अलग रथ में बैठा कर नगर दर्शन के लिए ले गए। बस इसी घटना की याद में भगवान के इस परम धाम में भव्य रथयात्रा का आयोजन किया जाता है।पहले रथयात्रा  केवल पुरी में होती थी लेकिन अब पूरे भारत में स्थान-स्थान पर पूरे उत्साह और धूमधाम से आयोजित की जाती है। इस दौरान श्रद्धालु भक्त नाचते-गाते भगवान के रथ को खींचते हैं।  इसके साथ ही यह उत्सव भारत के अनेक वैष्णव कृष्ण मंदिरों में मनाया जाता है, एवं यात्रा निकाली जाती है। यह मंदिर वैष्णव परम्पराओं और संत रामानंद से जुड़ा हुआ है। यह गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के लिये खास महत्त्व रखता है। इस पंथ के संस्थापक श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान की ओर आकर्षित हुए थे और कई वर्षों तक पुरी में रहे भी थे।  जगन्नाथ जी के इस मंदिर को लेकर कई विश्वास प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार सर्वप्रथम एक सबर आदिवासी विश्वबसु ने नील माधव के रूप में जगन्नाथ की आराधना की गई थी। इस तथ्य को प्रमाणित बताने वाले आज भी जगन्नाथ पुरी के मंदिर में आदिवासी मूल के अनेक सेवक हैं जिन्हें दैतपति नाम से जाना जाता है। विशेष बात यह है कि भारत सहित विश्व के किसी भी अन्य वैष्णव मंदिर में इस तरह की कोई परम्परा नहीं है।  बेशक जगन्नाथ जी को श्री कृष्ण का अवतार माना जाता है लेकिन जहाँ तक जगन्नाथ पुरी के ऐतिहासिक महत्त्व का प्रश्न है,  पुरी  का उल्लेख सर्वप्रथम महाभारत के वनपर्व में मिलता है। इस क्षेत्र की पवित्रता का बखान कूर्म पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण आदि में यथेष्ट रहा है। आदि शंकराचार्य की आध्यात्मिक भारत यात्रा इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण और निर्णायक अध्याय है। इस विजय यात्र के दौरान पुरी भी आदि शंकराचार्य का पड़ाव रहा। अपने पुरी प्रवास के दौरान उन्होंने अपनी विद्वत्ता से यहां के बौद्ध मठाधीशों को परास्त कर उन्हें सनातन धर्म की ओर आकृष्ट करने में सफलता प्राप्त की। शंकराचार्य जी द्वारा यहां  गोवर्धन पीठ भी स्थापित किया गया। इस पीठ के प्रथम जगत्गुरु के रूप में शंकराचार्य जी ने अपने चार शिष्यों में से एक पद्मपदाचार्य (नम्पूदिरी ब्राह्मण) को नियुक्त किया  था। यह सर्वज्ञात है कि शंकराचार्य जी ने ही जगन्नाथ की गीता के पुरुषोत्तम के रूप में पहचान घोषित की थी। संभवत: इस धार्मिक विजय के स्मरण में ही श्री शंकर एवं पद्मपाद की मूर्तियां जगन्नाथ जी के रत्न सिंहासन में स्थापित की गयीं थीं। मंदिर द्वारा ओडिया में प्रकाशित अभिलेख मदलापंजी के अनुसार पुरी के राजा दिव्य सिंहदेव द्वितीय (1793 से 1798) के शासन काल में उन दो मूर्तियों को हटा दिया गया था। 12वीं सदी में पुरी में श्री रामानुजाचार्य जी के आगमन और उनकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर तत्कालीन राजा चोलगंग देव जिनके पूर्वज 600 वर्षों से परम महेश्वर रहे, उनकी आसक्ति वैष्णव धर्म के प्रति हो गयी। तत्पश्चात् अनेक वैष्णव आचार्यों ने पुरी को अपनी कर्मस्थली बना यहां अपने मठ स्थापित किये और इस तरह पूरा ओडीसा ही  धीरे-धीरे वैष्णव रंग में रंग गया। एक अन्य कथा के अनुसार राजा इन्द्रद्युम्न को स्वप्न में जगन्नाथ जी के दर्शन हुए और निर्देशानुसार समुद्र से प्राप्त काष्ठ (काष्ठ को यहां दारु कहा जाता है) से मूर्तियाँ बनाई गईं। उस राजा ने ही जगन्नाथ पुरी का मंदिर बनवाया था जबकि ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार  पुरी के वर्तमान जगन्नाथ मंदिर का निर्माण वीर राजेन्द्र चोल के पौत्र और कलिंग के शासक अनंतवर्मन चोड्गंग (1078-1148)  ने करवाया था। 1174 में राजा अनंग भीम देव ने इस मंदिर का विस्तार किया जिसमें 14 वर्षें लगे।  वैसे मंदिर में स्थापित बलभद्र, जगन्नाथ तथा सुभद्रा की काष्ठ मूर्तियों का पुनर्निर्माण 1863, 1931, 1950, 1969, तथा 1977 में भी किया गया था। बाहर से मंदिर किलेनुमा दिखता है जिसकी चारदीवारी  20 फुट ऊंची है। अत: मंदिर का ऊपरी हिस्सा ही बाहर से दिखार्द देता है। अंदर कैमरा ले जाना मना है। 182 फुट ऊंचाई  शिखर वाले जगन्नाथ जी के इस मंदिर को ओडिशा का सबसे ऊंचा मंदिर माना जाता है। यह  मंदिर लगभग 4 लाख वर्ग फुट क्षेत्र में फैला हुआ है। इस परिसर में 120 अन्य देवी देवताओं  के आवास भी हैं। लगभग हर मंदिर में मंडप और गर्भ गृह हैं।  एकदम बाहर की तरफ भोगमंदिर, उसके बाद नट मंदिर (नाट्यशाला) फिर जगमोहन मंडप जहां श्रद्धालु एकत्रित होते हैं और अंत में देउल (गर्भगृह) जहां जगन्नाथ जी अपने भाई बलभद्र (बलराम) और बहन सुभद्रा के साथ विराजे हुए हैं। जगन्नाथ पुरी  में बैशाख तृतीया से ज्येष्ठ कृष्ण अष्टमी तक 21 दिन की चन्दन यात्रा भी होती है लेकिन आषाढ़ शुक्ल द्वितीय को होने वाली रथयात्रा ही यहां का प्रधान उत्सव है जिसके अवलोकन के लिए देश-विदेश के लाखों लोग पुरी पधारते हैं। इस यात्रा में तीन विशाल रथ भव्य तरीके से सजाए जाते हैं जिनमें से पहले में बलराम, दूसरे में सुभद्रा तथा सुदर्शन चक्र  और तीसरे में स्वयं भगवान श्री जगन्नाथ  विराजते हैं। प्रथम दिन प्रभु का रथ संध्या तक जगन्नाथ पुरी स्थित गुंडीचा मंदिर जाता है तो दूसरे दिन भगवान को रथ से अगले 7 दिनों के लिए इस मंदिर में स्थापित किया जाता है। यह जानना आश्चर्यजनक है कि इस रथयात्र के अतिरिक्त शेष दिनों में गुंडीचा मंदिर में कोई मूर्ति नहीं रहती। इस रथ यात्रा महोत्सव के दौरान भगवान श्रीजगन्नाथ के दर्शन को आड़प दर्शन भी कहा जाता है जिसका पुराणों में बड़ा माहात्म्य बताया गया है। जगन्नाथ मंदिर का एक विशेष आकर्षण यहां की रसोई है जोकि भारत की सबसे बड़ी रसोई कही जाती है। इस विशाल रसोई में भगवान को चढ़ाने वाले महाप्रसाद को तैयार करने के लिए सैंकड़ों रसोइए लगे रहते हैं। (युवराज)

 —डा. विनोद बब्बर