लोकसभा चुनावों में भाजपा की जीत का राज़ क्या है ?

लोकसभा चुनाव के नतीजों की व्याख्या करने वाले कई तरह के राजनीतिक और सामाजिक तर्क इस समय बौद्धिक हवाओं में तैर रहे हैं। लेकिन, हाल ही में एक सांस्कृतिक तर्क सामने आया है। इसके तहत दावा किया गया है कि भारतीय जनता पार्टी ने देश भर में मतदाताओं को जो कहानी सुनाई, उसके मर्म में संस्कृति थी, न कि राजनीति। यानी उसने सत्ता पाने के लिए एक सांस्कृतिक दावा किया, और एक तरह से लोकतांत्रिक राजनीति के दायरे में सांस्कृतिक पहलुओं का समावेश किया। यह तर्क सुनने में आकर्षक अवश्य लगता है, लेकिन जब पूछा गया कि आखिर वे कौन-सी बातें हैं जो भारतीय जनता पार्टी की राजनीति को दूसरी पार्टियों के म़ुकाबले अधिक स्पष्ट रूप से सांस्कृतिक बना देती हैं, तो जानकारी मिली कि राम मंदिर बनवाना, कश्मीर से धारा 370 हटवाना और समान नागरिक संहिता बनाना आदि बातें उस सांस्कृतिक मर्म की नुमाइंदगी करती हैं। यह तो खोदा पहाड़ निकली चुहिया जैसी बात हो गई। इस तरह की तथाकथित रूप से सांस्कृतिक बातें तो भाजपा अस्सी के दशक में अपने जन्म से ही कर रही है।  दरअसल, भाजपा का इतिहास इन प्रश्नों के इर्द-गिर्द राजनीति करने का न हो कर इन कथित सांस्कृतिक मांगों को तरह-तरह के तर्क देकर ठंडे बस्ते में डालने वाला रहा है। भाजपा अपने नेतृत्व में राष्ट्रीय स्तर पर गठजोड़ बना ही नहीं सकती थी, अगर वह अपनी कथित सांस्कृतिक राजनीति पर ज़ोर दे कर टिकी रहती। हां, सांस्कृतिक तर्क के पक्ष में इतना ज़रूर कहा जा सकता है जब भाजपा स्वयं को धर्म-निरपेक्ष कहने वाली पार्टियों के साथ गठजोड़ करने की खातिर अपनी विचारधारात्मक मुद्रा को कुछ स्थगित करने के लिए तैयार हो गई थी, उस समय भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल जैसे की संगठनों के प्रचार और अन्य कार्यक्रमों के ज़रिये उसने इन मांगों के साथ अपना संबंध लगातार ताज़ा बनाये रखा।  व्यावहारिक स्थिति यह है कि लगातार दो बार बहुमत प्राप्त करने के कारण पार्टी में इस बात की हिम्मत आ गई है कि वह अपने विचारधारात्मक आग्रहों को लेकर पहले की तरह बचाव की मुद्रा में नहीं रह गई है। इसका सबूत कश्मीर के मुद्दे पर संसद में दिये गए गृह मंत्री अमित शाह के वक्तव्य से मिलता है। ध्यान रहे कि अपने पिछले शासनकाल में भाजपा ने महबूबा म़ुफ्ती की पीपुल्स डेमोक्रैटिक पार्टी के साथ समझौता करके जम्मू-कश्मीर में सरकार गठित की थी।  इसके लिए उन दोनों ने एक संयुक्त कार्यक्रम तैयार किया था जिसमें भाजपा की तऱफ से स्पष्ट वायदा था कि वह धारा 370 के साथ छेड़छाड़ नहीं करेगी। आज वही भाजपा संसद के मंच से देश को संदेश दे रही है कि धारा 370 दरअसल एक अस्थायी प्रावधान है जिसे खत्म किया जा सकता है। यानी माहौल बनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है, और अगर राजनीतिक गतिशीलता और दिशा में कोई परिवर्तन न हुआ तो हो सकता है कि साल-दो साल में संसद में इस आशय का प्रस्ताव पेश कर दिया जाए। आज की ताऱीख में यह समझना आसान है कि भाजपा किस तरह से दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत का जुगाड़ करके यह संविधान संशोधन करवा ले जाएगी। और, अगर उसने ऐसा कर लिया, तो कश्मीर घाटी से बाहर उसकी टोपी में एक बड़ी और भव्य कलगी लग जाएगी। हो सकता है कि अगला लोकसभा चुनाव जीतने में उसका यह विधायी कदम उसी भूमिका का निर्वाह करे जो इस चुनाव में पुलवामा और बालाकोट की घटनाओं ने किया था।  ध्यान रहे कि मोदी और शाह जानते हैं कि कश्मीर में आतंकवाद धारा 370 की देन नहीं है। अस्सी के दशक के आखिरी दौर से आतंकवाद शुरू हुआ था, जबकि यह धारा तो शेख अब्दुल्ला के समय से है। इसलिए, संभवत: धारा ़खत्म करने से पहले उनका ़फोकस आतंकवाद की कमर तोड़ने पर ज़्यादा होगा।  इसी तरह से राम जन्मभूमि मंदिर का सवाल है। इसे बनवाना तो मोदी सरकार के लिए धारा 370 हटाने से भी ज़्यादा आसान है। धीरे-धीरे करके बहुसंख्यकवादी राजनीति हमारे लोकतंत्र की चालक-शक्ति बन गई है, और उसके रुतबे के तहत माहौल कुछ ऐसा बन गया है कि कोई भी राजनीतिक शक्ति राम मंदिर बनवाने का विरोध नहीं कर सकती। आज लोकतंत्र का मतलब ‘बहुसंख्यकों की इच्छा’ हो गई है, इसलिए कानून और अदालत का बहाना लेकर कुछ हीला-हवाला अवश्य किया जा सकता है, पर बहुसंख्यकों की प्रतिनिधि मानी जाने वाली यह सरकार इतनी त़ाकतवर है कि वह इस तरह की देरदार को बेअसर कर सके। अब देखना यह है कि मोदी सरकार यह काम कब और कैसे करती है, और सुप्रीम कोर्ट की भूमिका इस पूरे प्रकरण में किस प्रकार संसाधित होती है। मेरा विचार है कि अगर धारा 370 हटा दी गई, और राम मंदिर बनने की शुरुआत करवा दी गई, तो फिर नोटबंदी जैसी एक दर्जन गलतियां करने के बावजूद लोग मोदी को तीसरा कार्यकाल देने के लिए तैयार हो जाएंगे। ध्यान रहे कि अगर मोदी चाहते तो 2019 का चुनाव भी राम मंदिर के मुद्दे पर लड़ सकते थे। संघ परिवार उन्हें यह मुद्दा बना कर थमाने के लिए तैयार था।  पर, मोदी ने संघ की बात नहीं मानी और इस मुद्दे से जो काम लेना चाहिए था, वह उन्होंने बालाकोट एयर स्ट्राइक से लेना पसंद किया। इसीलिए कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि मोदी हिंदुत्व की राजनीति तो कर रहे हैं, पर उनकी शैली और उनकी प्राथमिकताएं वे नहीं हैं जो संघ परिवार उन्हें थमाना चाहता है। मसलन, मोदी के उभार से पहले अयोध्या हिंदुत्व की राजनीति के केंद्र में रहता था। पर मोदी पांच साल में एक बार भी अयोध्या नहीं गए। चुनाव के दिनों में भी नहीं। जबकि, अयोध्या से परे जाकर उन्होंने देश के राजनीतिक-धार्मिक मानस पर बनारस या वाराणसी या काशी की छवि अंकित करने की भरपूर कोशिश की। काशी वे अनगिनत बार गए। क्या केवल इसलिए कि वे वहां से चुनाव लड़ते हैं?  अगर अयोध्या की जगह काशी के बढ़ते हुए महत्व को हम महज़ इस निगाह से देखेंगे, तो शायद हम मोदी की संघ परिवार से भिन्न प्राथमिकताओं को डिकोड करने में चूक जाएंगे। गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर भी संघ को उनसे शिकायत रहती थी कि वे उसके बताये हुए रास्ते पर नहीं चलते। प्रधानमंत्री के तौर पर (बिहार के चुनाव के आसपास) जब संघ ने उनसे कहा कि संघ और सरकार के बीच कुछ समन्यवय होना चाहिए, तो मोदी का जवाब था कि संघ का समन्वय पार्टी के साथ होगा, सरकार के साथ नहीं। संघ के लिए यह चौंकाने वाली बात थी, क्योंकि प्रधानमंत्री के तौर पर अटल बिहारी वाजपेयी को भी इतनी जुर्रत कभी नहीं हुई थी।  मेरा मानना है कि भाजपा की सांस्कृतिक राजनीति के बारे में सोचते हुए हमें कुछ बातों पर निगाह रखनी चाहिए। पहली, सांस्कृतिक राजनीति तो भाजपा और संघ परिवार मोदी के पहले से कर रहे हैं, लेकिन उसे सफलता इस दौरान ही क्यों मिल रही है? दूसरी, मोदी और संघ परिवार के मित्रतापूर्ण अंतर्विरोध कौन-कौन से हैं? दोनों की प्राथकिताओं के बीच अंतर क्या है? दोनों के पास अपनी-अपनी रणनीतियां हैं लेकिन किस रणनीति को मैदान में आजमाया जा रहा है?