जल संकट : अपने पांव पर कुल्हाड़ी

जल संकट जितना सुनने में आता है, उससे कहीं अधिक गहरा और विस्फोटक है। पश्चिम के अंधानुकरण और उपभोक्तावादी, बाज़ारवादी रूझान में हमें पता ही नहीं चलता कि हम क्या कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं। कहीं हमारी उपेक्षा हमारे ही पांव पर कुल्हाड़ी मारने जैसी तो नहीं? ऐसे में कहीं हम न सुनना, या फिर सुन कर यह व्यवहार दिखाना कि कुछ नहीं, संकट तो अभी बहुत दूर है। हमारे लिए काफी घातक सिद्ध हो सकता है। क्योंकि सवाल हमारे जीने की महत्त्वपूर्ण इकाई से जुड़ा है। कितना कुछ खोने के साथ हमने अपने जन संसाधनों को खोया है, विकृत किया है, उपेक्षित रखा है। लिहाज़ा गांव ही नहीं, कस्बों, शहरों की पहचान बनते तालाब आज तबाह हुए नज़र आते हैं।
साम्राज्यवादी अंग्रेज ने हमारा सांस्कृतिक, वित्तीय, राजनीतिक नुक्सान करने में कोई कसर नहीं रखी। अपना राजस्व बढ़ाने और शोषण चक्र चलाने के लिए उन्होंने तालाबों को अपने हाथ में ले लिया था। इससे बड़ा नुक्सान यह हुआ कि तालाब सम्भालने के दायित्व से अवाम में दिलचस्पी कम होती चली गई। फिर इस दिशा में इतनी लापरवाही रही कि अपना तालाबों के प्रति कर्त्तव्य पथ ही भूल गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अपनी सरकार भी तालाबों के संरक्षण, सम्भाल और विकास की तरफ समुचित ध्यान नहीं दे पाई। इन सात दशकों में देश में लाखों उपेक्षित पड़े तालाब अनयायी मौत मारे गये। उनमें कूड़ा फैंक-फैंक कर बेअदबी की गई। उनके प्लाट काट कर कालोनियों में तकसीम किया गया। ऐसी नकारात्मक सोच उनकी बेमिसाल देन पर गहरा द़ाग लगा। गांव, कस्बे, शहर की जो ज़रूरतें इनसे पूर्ण होती थी। वे अनुपलब्धता की वजह से पानी के संकट में बदल गईं। जिसे हमारी आने वाली पीढ़ी अभिशाप की तरह देखेगी। अनुपम मिश्र का अध्ययन समाज सापेक्ष है। वह उस समाज की बात करते हैं जो नदियों के बाढ़ के पानी को रोक कर बड़े-बड़े तालाबों में डालता था। बाढ़ें पहले भी आती होंगी लेकिन उनकी मारक क्षमता ऐसी न थी।वह अढ़ाई हज़ार साल पहले के एक संवाद में बाढ़ का ज़िक्र करते हैं। संवाद महात्मा बुद्ध और एक ग्वाले के बीच है। किसी दिन ग्वाले के घर भगवान बुद्ध पहुंचे हैं। ‘काली घटाएं छाई हुई हैं। ग्वाला बुद्ध से कह रहा है कि उसने अपना छप्पर कस लिया है। गाय को मजबूती से खूंटे से बांध दिया है। फसल काट ली है। अब बाढ़ का कोई डर नहीं बचा है। आराम से जितना पानी बरसे। नदी देवी दर्शन देकर चली जाएगी। इसके बाद भगवान बुद्ध कहते हैं कि मैंने तृष्णा की नावों को खोल दिया है। अब मुझे बाढ़ का कोई डर नहीं। युग-पुरुष साधारण खाले की झोंपड़ी में नदी किनारे रात बिताएंगे। उस नदी के किनारे, जिसमें रात को कभी भी बाढ़ आ जाएगी। पर दोनों निश्चिंत हैं। आज क्या ऐसा संवाद बाढ़ से ठीक पहले से अब है यह सारी चीजें हमें बताती हैं कि लोग इस पानी से, इस बाढ़ से खेलना जानते थे।’ आज ऐसा भयानक जल संकट सामने है और हम आंखें मूंद कर उपेक्षा का भाव धारण किये हैं, जबकि आने वाले कुछ ही बरसों में जितना पानी आज हमें मिल रहा है, उसका आधा ही मिल पाएगी।आंकड़ों की मदद लें तो आज़ादी के समय 1947 में देश में कुल चौबीस लाख तालाब थे। तब देश की आबादी आज की आबादी से लगभग एक चौथाई थी। उपभोग भी एक चौथाई ही रहा होगा। 2017-18 में तालाबों की संख्या घट कर लगभग पांच लाख रह गई हैं, जिसमें से बीस प्रतिशत बेकार कर दिये गये हैं। कई गुना बढ़ गई जन-संख्या के सामने उनकी संख्या बहुत कम मानी जाएगी क्योंकि नये तालाब न बने, न बनेंगे। क्योंकि उन पर हम सोच ही नहीं पा रहे। हमारे यहां अतिक्रमण का सभी क्षेत्रों में ज़ोर चलता है। तालाबों का अतिक्रमण मामूली और नोटिस न लिए जाने वाला विषय माना जा चुका है। जहां सामान्य जन हमें क्या का भाव लिए रहते हैं। परन्तु भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 2006 में किसी एक मामले में व्यवस्था देते हुए कहा था कि गुणवत्ता जीवन हर नागरिक का मूलाधिकार है जिसे सुनिश्चित करने के लिए भारत सरकार का प्राकृतिक जल निकायों की सुरक्षा करना कर्त्तव्य है।नागरिक कर्त्तव्य भी सोये पड़े हैं। हमारी नहरों में इतना ज्यादा कचरा फैंका जाता है, जैसे वह नहर न होकर एक कचराघर हो। पढ़े-लिखे लोगों का समाज भी इसी अंधानुकरण का पालन कर रहा है। यही है अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारना जो वाकई दुखद है।