चश्मे की शुरुआत कब हुई?

‘दीदी, मैं जब भी देर तक टीवी देखता हूं तो मम्मी कहती हैं ज्यादा टीवी देखेगा तो चश्मा चढ़ जायेगा। इसका क्या मतलब है?’ ‘इसका मतलब यह है कि आंखें कमज़ोर हो जायेंगी और तब साफ देखने के लिए चश्मे का सहारा लेना पड़ेगा। चश्मा दरअसल वह उपकरण है जिससे धुंधली दिखाई देने वाली चीज़ हमें साफ दिखने लगती है। 
‘दीदी, चश्मे की शुरुआत कब हुई?’
‘चश्मे की शुरुआत लगभग 700 साल पहले हुई। सन् 1266 में इंग्लैंड के रोजर बेकन नामक व्यक्ति ने किताब पर लिखे अक्षरों को बड़ा करके देखने के लिए कांच के एक टुकड़े का इस्तेमाल किया। कांच का यह टुकड़ा एक गेंद के आकार के शीशे में से काटा गया था। लेकिन निश्चय पूर्वक यह नहीं कहा जा सकता कि ऐसे कांच के टुकड़ों को चश्मे के रूप में कब इस्तेमाल किया गया।’ 
‘दीदी, चश्मे से साफ कैसे दिखता है?’
‘वास्तव में हमारी आंख कैमरे की तरह काम करती है। आंख की काली पुतली के बीच से प्रकाश की किरणें अंदर प्रवेश करती हैं। आंख के अंदर एक कॅनवैक्स लेंस होता है और इस लेंस के पीछे एक पर्दा होता है जिसे रेटिना कहते हैं। वस्तु से आने वाली प्रकाश की किरणें लेंस की सहायता से वस्तु का प्रतिबिम्ब रेटिना पर बनाती हैं। मस्तिष्क इस प्रतिबिम्ब को सीधा कर देता है और वस्तु हमें साफ-साफ दिखाई पड़ जाती है। जब इस प्रक्रिया में साफ नहीं दिखता तो चश्मे की ज़रूरत पड़ती है। चश्मा वही काम करता है जो प्राकृतिक रूप से आंख करती है। जब किसी को दूर की चीज़ धुंधली दिखने लगती है तो अवतल लेंस वाला चश्मा लगाया जाता है जिससे दूर की वस्तुओं का प्रतिबिम्ब रेटिना पर अच्छी तरह से बनने लगता है। जब किसी को निकट की वस्तुएं धुंधली दिखने लगती हैं तो उनकी आंख में उत्तल लेंस से बने चश्मे का इस्तेमाल किया जाता है जिससे वस्तुओं का प्रतिबिम्ब रेटिना पर सही तरह से बनता है और हमें दिखने लगता है। इस तरह कमज़ोर आंखों को चश्मा फिर देखने लायक बना देता है।’