बेहद दुर्गम एवं कठिन है श्रीखण्ड महादेव यात्रा 

 मैंने  जितनी यात्रायें इस समय तक की हैं, उनमें दुर्गम श्रीखण्ड महादेव की वर्ष 2000 में रही है। अमरनाथ, केदारनाथ, यमनोत्री, हेमकुण्ट , मणिमहेश इस सदृश कठिन नहीं है। श्रीखण्ड यात्रा मानसरोवर से भी कठिन है परन्तु रोमांचक, जान-जोखिम और सीधी  चढ़ाई और उतराई वाली है। यहां पालकी, घोड़ा खच्चर, किडनू  नहीं जा सकता है। श्रीखण्ड महादेव यात्रा जुलाई में दो सप्ताह हेतु होती है। सरकार और न्यास द्वारा प्रबन्ध है। जून के अंतिम सप्ताह पंजीकरण किया जाता है। यात्रा के समय पुलिस, स्वास्थ्य एवं सरकारी अधिकारी जांच कर आगे की अनुमति देते हैं। दवाइयों आदि का प्रबंध होता है। आक्सीजन तक दी जाती है। आपदा किसी भी समय आ सकती है, यह अलग बात है। कई कठिन यात्राओं के मार्ग अच्छे बना दिये गये हैं।  यात्रा समय  लंगर तथा ठहरने की व्यवस्थाएं हैं। दानवीर  सेवा कर रहे हैं। उनका धन्यवाद है। श्रीखण्ड महादेव  यात्रा में उत्साह, ऊर्जा शिवभक्तों में अधिक देखी। यात्रा  समय जलपान और खाने-पीने की दुकानें  लगती हैं। अधिकतर शिमला, कुल्लू और अन्य प्रदेशों से लोग आते हैं।  दोनों मार्ग एक स्थान पर पहुंचते हैं। निर्मुण्ड से 24 कि.मी. पर ज्यौं गांव है और वाहन यहां तक ही हैं। मार्ग को लाल पीले रंग से मार्क किया है। यहां से पैदल यात्रा शुरू होती है। आगे चार कि.मी. पर संघाड़ है। यहां लंगर व्यवस्था नादौन वालों की है। सीधा पहाड़ है। दायें पार्वती नद वेग से बहता है। देवदार के घने वृक्ष हैं। मार्ग चढ़ाई और उतराई वाला है। दो कि.मी. वराटी नाले तक मार्ग ठीक है। आगे जोखिम वाली अर्थात  सीधी चढ़ाई और दूसरी ओर नीचे  पार्वत नदी और ऊपर विशाल चट्टानें दिखती हैं। मार्ग युवकों के अतिरिक्त अन्य हेतु कठिन है। तीखे मोड़ हैं। जनसंख्या नहीं है। आगे दो नालों का संगम है और डण्डीधार की तलहटी देखने को मिलती है। डण्डीधार नाम ठीक है। सीधी चढ़ाई लगभग आठ कि.मी. हो गई। फिर खम्बा, खाचडू नामक स्थान आते हैं। खाचडू से श्रीखण्ड के दर्शन होते हैं। आगे कालीघाटी तीन किमी है। यहां काली मां की स्थापना है। भक्त पूजा-अर्चना करते हैं। सागर तल से इस स्थान की ऊंचाई 11600 फु ट है। नाम उचित है। हर समय  धुंध की काली घटाओं से सब काला  दिखाई देता है और आगे भीम डवारी और आठ कि.मी. सीधी चढ़ाई व उतराई का मार्ग है । कहीं कहीं पानी के झरने हैं। छोटे बड़े ग्लेशियर बीच में हैं। यहां रहने को स्थान हैं और श्रीखण्ड के पुजारी  रहते हैं।  आगे नयनसरोवर है। कुछ लोग स्नान करते हैं। जल हिम सदृश है और स्नान करना कठिन है। हमारे समय  वहां बर्फ  थी। आगे सीधी चढ़ाई  है मानो शिवभक्तों की परीक्षा है। जनश्रुति के अनुसार नयनसरोवर के किनारे भस्मासुर दैत्य ने शिव की आराधना की थी। वर में शिव ने एक कंगन दिया और कहा, जिसके सिर पर रखेगा। वह भस्म हो जायेगा। उसे  अहंकार हो गया। एक बार बाग में पार्वती को देखा और उनके सौंदर्य पर मोहित हो गया। उसने विवाह की इच्छा प्रकट की। पार्वती ने शिव की पत्नी बताया। उसने शिव को भस्म करने का विचार बनाया।  शिव अन्तर्यामी थे और समझ गये। हे समाधान हेतु  विष्णु के पास गये। भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर बाग में विचरना आरम्भ किया। दैत्य से विवाह की शर्त लगाई कि तुम मेरे साथ नृत्य करो। दैत्य मान गया और नृत्य करते करते विष्णु ने अपने सिर पर हाथ किया और दैत्य ने भी वैसा किया और भस्म हो गया। कहते हैं, दैत्य के दुख से यहां पार्वती के आंसू गिरे थे। उससे नयनसरोवर बना है। यहां एक झरने का जल लाल है। कहते है, भस्मासुर के खून का है। पहले शिव  गणों से युद्ध हुआ और खून ही खून बहा था। उस कारण यह जल लाल है। इस स्थान को पार्वती बाग कहते हैं। बहुत ही सुन्दर है और कई प्रकार के पुष्प और ब्रहम कमल खिलते हैं मानो फूलों की घाटी हो। ठहरने को मन करता है। आगे का मार्ग आठ किमी दुर्गम है। रास्ता नहीं अपितु चट्टानें काटी हैं। यहां बड़ी-बड़ी शिलायें हैं। इनको भीम शिलायें  या भीम की बहिया बताते हैं। एक प्रकार से रेंग कर चलना होता है। श्रीखण्ड महादेव हिमाच्छादित हिमालय की शृंखला के एक ऊंचा शिखर पर 18500 फुट पर चट्टान के रूप में  प्राकृतिक आकृति से सीधा खड़ा है। चट्टान खण्डित त्रिशूलाकार लगती है। इसकी ऊंचाई 75 फुट बताई। देखने में एक जैसे किसी स्त्री ने बच्चे को गोदी में लिया हो। ऐसी हमारी कल्पना है। पुजारी ने पार्वती और गणेश बताया। शिवलिंग पर यात्रा  समय हिम नहीं होती। अन्य स्थानों पर हिम दृष्टि में आती है। इस शिव लिंग की परिक्रमा नहीं की जाती। श्रीखण्ड महादेव की चट्टान के चारों ओर  हिम रहता है। यहां पूजा-अर्चना कर वापिस लौटते हैं। एक अन्य कहानी में कहा गया है कि जब भस्मापुर को शिव भगवान ने वर दिया तो वह दैत्य उन के पीछे उन्हें भस्म करने हेतु भागा। शिव भगवान एक छोटी कंदरा के मार्ग से ऊपर इस शिलाखण्ड पर पहुंचे थे। बाहर मकड़े ने जाल बुना। उस कारण शिव उसे नहीं मिले। कई वर्र्ष शिव यहां रहे। गणेश , पार्वती और कार्तिक इन को ढूंढ़ते यहां पहुंच गये थे। तव भगवान प्रकट हुये। चारों ओर पर्वतों पर नाना प्रकार की जड़ी बूटियां व पुष्प हैं। उनकी सुगन्धि से कई बार सिर में पीड़ा और  दिल घबराना  शुरू हो जाता है। यात्रा में हंटर शू और छड़ी ज़रूर होनी चाहिये अन्यथा कठिनाई होती है। दूसरी ओर पूर्व में कठिन और सबसे ऊंचे दिखाई देने वाले शिखर पर कार्तिक हैं। यहां पर जाना कठिन  ही नहीं अर्थात मौत को बुलावा देने के बराबर है। गडरिये वहां जा सकते हैं। श्रीखण्ड में रहने हेतु स्थान भी नहीं है। वापसी  उसी प्रकार है। अंतिम पड़ाव में कुलदीप की दुकान है। वह छड़ी आदि किराये परदेता है। यहां कई देव, देवियों के मंदिर हैं और एक गुफा में परशुराम की मूर्ति है।  इसको कालकाम कहते हैं। मार्कण्डेय आश्रम और अन्य मंदिर भी हैं।  

—सुदर्शन अवस्थी
मो. 98165-12911