अब के सजन सावन में

बरसात का मदमस्त महीना चल रहा है। पवन कुछ अधिक ही शोर कर रही है। ऐसे हसीन मौसम में हमारी प्रेमिका हम से रूठी हुई है। अत: हमें मौसम के बेमतलब ही सुहावने होने या अकारण बेईमान होने में कोई खास दिलचस्पी नहीं है। टी.वी. पर गाना आ रहा है, ‘अब के सजन सावन में, आग लगेगी बदन में, घटा बरसेगी मगर तरसेगी नज़र, मिल न सकेंगे दो मन एक ही आंगन में...।’ सोलह आने सच बात है कि सावन दिलों में आग लगाता है। उम्र के इस मोड़ तक आते-आते हम प्रेम में अन्धे तो हैं मगर सावन के अन्धे भी नहीं हैं, हरा ही हरा देखते रहें। प्रेमिका के नाज-नखरे उठाते-उठाते हलकान हो गए हैं। हमें अपना प्रेम-संसार कभी लाल, पीला व नीला दिखाई दे रहा है। सिचुऐशन बहुत ही तनावपूर्ण है...सावन का जानलेवा महीना और उधर रूठी हुई प्रेमिका। चुल्लू भर पानी में डूब मरने वाली स्थिति है। साहित्य या हिन्दी फिल्मों में ऐसी बेढब स्थिति नहीं दिखाई जाती। वहां तो सावन के आगमन पर प्रेमी पागल हो जाते हैं। प्रेमिका गीले कपड़ों में और भी हसीन लगती है जब वह गाती है, ‘हाय हाय ये मजबूरी, ये मौसम और ये दूरी... तेरी दो टक्केयां दी नौकरी, मेरा लाखों का सावन जाए।’ हम किस्मत के मारे गा रहे हैं, ‘मेरे नैना सावन भादों, फिर भी मेरा मन प्यासा।’ कवि कहता है, ‘बरसात का बादल तो आवारा है, क्या जाने, किस राह से बचना है, किस छत को भिगोना है।’ बादल का क्या भरोसा। कहीं झूम के बरसते हैं तो कहीं उमड़-घुमड़ कर छंट जाते हैं। सच ही कहा है, जो गरजते हैं वे बरसते नहीं। लोग तो यह भी कहते हैं कि सपेरा सांप के काटने से ही मरता है और घर बरसात में ही जलते हैं। यह घर का मामला है बहुत नाजुक। बहुत ध्यान रखना पड़ता है। प्रेम करना तो तलवार की धार पर चलने के समान है। सावन के आते ही प्रेमी पागल हो जाते हैं। प्रेम रूपी पागलखाना ठसाठस भर जाता है। सारा साल जिसका दिल शून्य रहा, जो बही-खातों को भरवाने और इन्कम-टैक्स बचाने के हेर-फेर में रहा वह नालायक भी सावन आने पर गुनगुनाने लगता है-बदरा छाए कि पड़ गए झूले मच गई धूम रे, आया सावन झूम के’ सब तरफ हरियाली छा जाती है। यहां तक कि तालाबंद दिलों में भी उन्माद हिलोरें मारने लगता है। उमड़-घुमड़कर बादल बरसते हैं, गरजते हैं, इतराते हैं। बिजली चमकती है और विरह के डर से कांपती हुई नायिका नायक से लिपटकर गुहार लगाती है, ‘बरखा रानी जरा झूम के बरसो, मेरा दिलबर जा न पाए, झूम के बरसो।’ बरसात के और भी लोकल फायदे हैं। बच्चों को स्कूल से छुट्टी करने का बहाना मिल जाता है। बाढ़ हो या सूखा, नेता देश के खजाने को चूना लगाने में सफल होता देखा गया है। लेट-लतीफ बाबू अपने बॉस से कहता है, ‘क्या करें साहब, सुबह से ही ताबड़-तोड़ बरसात हो रही है कि गली में निकलना मुश्किल हो गया।’ मेरा पड़ोसी छेदीलाल बरसात को देखकर मायूस हो जाता है। उसे भीगने से डर लगता है। वह जरा-भी रोमांटिक नहीं है। मेरा दूसरा मित्र विनोदी लाल सावन-प्रेमी है। वह रोज चाहता है कि दिन में ही बरसात के कारण घटाटोप अंधेरा हो और वह दारू पीकर मस्त हो जाए।
अब अपनी राम कहानी पर आता हूं। बाहर बारिश में पीपल के पत्ते सैंकड़ों बार नहा चुके हैं। ठंडी हवाएं चल रही हैं। हमारा प्रियतम रूठा हुआ है। बात इतनी सी है कि हमने उसे फिल्म दिखाने का वायदा किया था और बरसात है कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही। जब से महाकवि कालिदास ने मेघदूत की रचना की है तब से बादलों के नाज़-नखरे बहुत बढ़ गए हैं तथा इन नखरों को उठाने के लिए हम जैसे दब्बू प्रेमी ही बचे हैं। सड़कों पर तीन-तीन फुट पानी है। ऐसे में हम न इधर के रहे न उधर के। नायिका कहती है-सावन बीता जाए। अर्थात् कल फिल्म बदल जाएगी। बहुत ऐंठ में रहते थे हम। रोजाना कहते थे, सावन को आने दो। अब वह आ गया है तो हमें उस पर ‘खुंदक’ आ रही है। अब सोचते हैं कि इस कमबख्त को जाने ही दो। वैसे जाएगा भी कहां ? अगले साल फिर आकर हमारे सिर पर सवार हो जाएगा।

-जसविन्द्र शर्मा
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