मॉब लिंचिंग के साथ पुलिस लिंचिंग भी रोकें

भारत के सांस्कृतिक एवं सामाजिक जीवन में मानवता, सहानुभूति और निष्पक्षता की जितनी चर्चा की जाती है वैसी आज हमारे सामाजिक विशेषकर सरकारी कार्य व्यवहार में नहीं मिलती। आजकल मॉब लिचिंग या पुलिस लिंचिंग के नाम पर जो रहा है रहा है उससे तो ऐसा लगता है कि हम अपने पुराने जीवन मूल्य भूल गए। मेरा संकेत अपने देश की कानून-व्यवस्था की ओर है। जिस विभाग से आम नागरिक सम्मान, संपदा की सुरक्षा की आशा रखता है, अधिकतर चोट भी उसी विभाग की ओर से आम जन विशेषकर कमजोर वर्ग को मिलती है। सच तो यह है कि आज किसी भी दृष्टि से कमजोर होना गुनाह है। प्रतिदिन समाचार मिलते हैं कि निर्दोषों को दंड दिया जाता है अथवा छोटे-मोटे अपराध करने वालों को पुलिस पकड़ती है, पीटती है और वही पुराने पत्थर युग के ढंग से पीट-पीट कर अपराध कबूल करवाती है। पुलिस संस्कृति के विषय में पूरे देश में एक सी ही हालत है। इसी कारण देश के किसी न किसी भाग से हिरासती मौतों की खबर मिलती है। पुलिस वही घिसा-पिटा तर्क देती है कि आरोपी ने आत्महत्या कर ली और परिवारों का यह कहना कि पुलिस ने अमानवीय यातनाएं दीं, जिस कारण उनका परिजन मारा गया या फांसी पर लटक गया। अधिकतर सरकारें हिरासती मौतों की संख्या को छिपाती हैं और लीपापोती करके अपराधी कर्मियों को बचाती हैं। पुलिस के एक साधारण कर्मचारी, कांस्टेबल या ए.एस.आई. अगर गैर-इंसानी ढंग अपनाते हैं तो इसके लिए दोषी पुलिस की अपसंस्कृति अथवा वही गुलामी के दिनों का व्यवहार है। कुछ सप्ताह पहले गुजरात के मुख्यमंत्री श्री रूपाणी ने सदन को बताया कि पिछले दो साल में गुजरात पुलिस की हिरासत में 133 लोगों की मौत हुई। सीधा अर्थ हर साल 60 से ज्यादा और एक महीने में औसतन 5, 6 व्यक्ति पुलिस हिरासत में मारे गए। निश्चित ही उनकी मौत गैर-कानूनी निर्मम पिटाई से हुई। आत्महत्या भी वही करता है जिसे अत्यधिक अपमानित किया जाए, टॉर्चर किया जाए अथवा निर्दोष होते हुए भी उसके माथे पर अपराध का कलंक लगा दिया जाए। विडंबना देखिए कि पुलिस हिरासत में मारे गए 133 लोगों के परिजनों को सिर्फ 23 लाख 50 हजार का मुआवजा दिया गया। आदमी बहुत सस्ता हो गया है हमारे लोकतंत्र में। पंजाब में भी पुलिस हिरासत में मौतों की संख्या बढ़ती जा रही है। यद्यपि हम दर्जनों मानवाधिकार आयोगों, सैकड़ों समाजसेवी संस्थाओं और संतों, फकीरों के साथ रहते, उनके उपदेश सुनते हैं। अमृतसर के बस स्टैंड की पुलिस चौकी की हवालात में बंद किया गया बलजिंदर सिंह पुलिस के अनुसार आत्महत्या कर गया। बिना पर्चा उसे हिरासत में रखा था, जबकि कानून कहता है कि जैसे ही किसी को गिरफ्तार किया जाए, उसके परिवार को सूचना दी जाए, आरोप बताया जाए, हस्ताक्षर लें और 24 घंटे के अंदर उसे अदालत के समक्ष पेश किया जाए। बलजिंदर के केस में किसी नियम का पालन नहीं किया गया। कुछ सप्ताह पहले फरीदकोट पुलिस की हिरासत में भी एक युवक मारा गया। पुलिस ने शव दरिया में फैंक दिया और परिवार तड़पता रह गया। ठीक है कि दो कांस्टेबल गिरफ्तार कर लिए, पर इससे किसी का बेटा वापस नहीं आ सकता।  अमृतसर के एक व्यापारी गुरिपंदर सिंह की मौत भी जेल में किन वजहों से हुई यह तो न्यायिक जांच से ही पता चलेगा, पर उसे बीमारी में इलाज नहीं दिया गया, यह सर्वविदित है। राजन उप्पल भी कुछ साल पहले इसी लापरवाही का भरी जवानी में शिकार हुआ था। सवाल यह नहीं कि कितनी घटनाएं हुईं, बल्कि यह है कि प्रशासन क्यों सोया हुआ है? यह भी कि इस देश की न्यायपालिका और कार्यपालिका क्यों खामोश है?   ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निर्देशक मीनाक्षी गांगुली के अनुसार यातना देने के लिए जब तक अफसरों पर मुकद्दमा न चलाया जाए तब तक भारत में पुलिस यह नहीं सीखेगी कि संदिग्धों से मारपीट कर अपराध कबूलवाने का तरीका अस्वीकार्य है, अमानवीय है। श्रीमती गांगुली के अनुसार शोध से पता चला है कि जो पुलिस अफसर हिरासत में मौतों की जांच कर रहे होते हैं, वे अक्सर अपने सहकर्मियों को बचाने की फिराक में ही रहते हैं। इससे खाकी का अपराध बढ़ता जा रहा है। यह ठीक है कि न्यायालय की तरफ से आवश्यक निर्देश दिए गए हैं, पर उनका पालन होता है या नहीं यह देखने के लिए तो कोई एजेंसी शायद है ही नहीं। बाल अपराधियों के साथ भी पुलिस थानों में क्रूर व्यवहार होता है। मेरी जानकारी है, उन्हें करंट लगाना, उल्टा लटकाना, पटों, बेंतों से पिटाई करना आम बात है। कई दिनों तक अदालत में पेशी नहीं होती। बाल अधिकारों की दुहाई देने वाले देश में, पोस्को कानून बनाने वाले देश में एक अंधा कानून है कि सात वर्ष से अधिक उम्र के बच्चे पर आरोप-पत्र दायर हो सकता है। उसे बाल जेल में भेजा जा सकता है। क्या कभी किसी ने सोचा कि सात वर्ष का बच्चा तो मां की गोद में बैठ कर रोटी खाता है। ये बच्चे गरीब के हैं और गरीब का कोई मानवाधिकार है? 
देश की न्यायपालिका को विशेष रूप से पुलिस की अपसंस्कृति, राजनेताओं का अनुचित हस्तक्षेप और बिना किसी कानून, न्याय के चल रहा पूछताछ के नाम पर टॉर्चर का डंडा रोकना होगा अन्यथा कई ऐसे प्रवीण गुप्ता अमृतसर मरने को मजबूर होंगे, झूठे केसों में फंसाए जाने के नाम पर। हम सब भूल जाते हैं, इसलिए दिल्ली के बंसल परिवार के आत्महत्या करके पुलिस तंत्र से छुटकारा पाने के नाम पर देश में कोई हलचल नहीं। मॉब लिचिंग तो नया शब्द आ गया, पर पुलिस लिंचिंग रोकने के लिए कानून बहुत शीघ्र चाहिए देश को।

(पूर्व कैबिनेट मंत्री पंजाब)