विपरीत स्थितियों में उलझती और जूझती महबूबा मुफ्ती

कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री और पीपल्स डैमोक्रेटिक पार्टी की अध्यक्षा मोहतरमा महबूबा, मुफ्ती मोहम्मद सैय्यद साहिब की सपुत्री हैं, जिन्होंने आतंकवाद को काफी करीब से देखा था। मुफ्ती मोहम्मद सैय्यद जब भारत के गृह मंत्री थे। बात सन् 1989 की है, उनकी बेटी डाक्टर रुबाइया को अगवा कर लिया गया था, फिर कुछ आतंकवादियों की रिहाई के बदले रुबाइया को रिहाई मिली। यह घटना महबूबा साहिबा को भी याद होगी। यह भी याद होगा कि उनके अब्बा हजूर ने एक बार कहा था कि उन्होंने गृह मंत्री के तौर पर यही बड़ी भूल की कि अपनी बेटी की रिहाई के बदले कुछ आतंकवादियों को सुरक्षित रास्ता देकर जाने दिया। वे खुद को पूरे जम्मू-कश्मीर को मरहम लगाने वाला और उनकी अर्न्तात्मा का रखवाला जो मानते थे। वे कहा करते थे कि उनका एक सपना था कि कश्मीर को दुनिया का सबसे बड़ा पर्यटन स्थल बनाना जहां लोकतंत्र फले-फूले। अब प्रश्न उठता है कि उनकी बेटी क्या ऐसा चाहती है, ऐसा लगता तो नहीं। कई बार ऐसा अनुभव होता है कि जैसे सत्ता के लिए उनका सब्र टूट रहा है। इसके लिए वह जनता को भड़काने और गुमराह करने से भी परहेज़ नहीं करती। कश्मीर पर 3 सितम्बर सन् 1947 में रावलपिंडी से कश्मीर पर कबाइलियों के वेश में पाकिस्तानी फौज ने हमला कर दिया। अब कोई पूछे कि महबूबा मुफ्ती चाहती हैं कि हमलावर से बात की जाए, यह तो वही बात हुई कि किसी घर में कोई डाकू आ जाए और लोग एक साथ उसका मुकाबला करने की बजाय उससे बातचीत करनी आरम्भ कर दे, समझौता करें। अब तो कोई पर्दा भी नहीं रहा। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जनाब इमरान खान ने खुल्लम-खुल्ला कहा कि पाकिस्तान में चालीस हज़ार आतंकवादी हैं। क्या ऐसे देश से भारत को बात करनी चाहिए? इससे महबूबा जी लोकतंत्र की अप्रिय नायिका ही नहीं कहलाएंगी तो और इन्हें क्या कहें? यह कहती हैं कि भारत ने जो दस हज़ार नई सुरक्षा सेना भेजी है उसका भाव यह है कि कश्मीर में कोई बड़ी घटना होने वाली है अर्थात् संविधान की धारा 35-ए जिसे उच्चतम न्यायालय में हटाने के लिए मुकद्दमा है, वह भारत की सरकार हटाने जा रही है। इस पर महबूबा जी ने अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं में जो भाषण दिया उसे क्या कहें, उसमें कहा गया कि जो धारा 35-ए को छूयेगा, वह जल जायेगा। कोई भी कानून चंद नेताओं के दमगजों से न तो रुकता है और न ही लागू होता है। हम महबूबा जी के दर्द को समझते हैं कि पिछले संसदीय चुनाव में कश्मीर की जनता ने उनके बड़बोलेपन की हवा निकाल दी और उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा। पंडित जवाहर लाल नेहरू के सुझाव पर महाराजा हरि सिंह ने भारतीय फौज की जो सहायता मांगी तो उसके लिए मुस्लिम कांफ्रैंस के बड़े नेता शेख अब्दुल्ला की रिहाई ज़रूरी कही गई। शेख अब्दुल्ला ने बाद में अपनी इस पार्टी का नाम नैशनल कान्फ्रैंस कर लिया। कश्मीर का विलय तभी हुआ जिस पर महाराजा हरि सिंह, पंडित जवाहर लाल नेहरू, स. बलदेव सिंह और शेख अब्दुल्ला के हस्ताक्षर हुए थे। 22 अक्तूबर सन् 1947 को पाकिस्तानी फौज ने कश्मीर पर कब्ज़ा करने के लिए धावा बोल दिया। भारतीय फौज पाकिस्तानी फौज को खदेड़ रही थी, तभी भगवान जाने क्यों पंडित जवाहर लाल नेहरू यू.एन.ओ. में चले गए और कश्मीर की समस्या दिन-प्रतिदिन उलझती गई। 
हमने यहां महबूबा जी के सामने इतिहास का यह पन्ना इसलिए रखा है ताकि वह समझ जाएं कि भारतीय जवानों ने अपना बलिदान देकर इस ‘जन्नत’ की दुश्मन  से रक्षा की। अब महबूबा मुफ्ती से कोई पूछे कि जब कश्मीर की जनता आपसे दूर हट रही है और आपकी पी.डी.पी. पर कमान भी दिन-प्रतिदिन कमज़ोर होती जा रही है, क्योंकि आपके बहुत से नेता और कार्यकर्ता आपको छोड़ कर जा रहे हैं। ऐसे में शोला बियानी और चिंगारी छोड़ते शब्द किन पर प्रभाव डालेंगे?  सेना तो पहले से ही कश्मीर में मौजूद है। दस हज़ार और आ जाने से कोई अन्तर नहीं पड़ने वाला। एक तो आजकल बाबा अमरनाथ की यात्रा में लोगों की सुरक्षा के लिए और दूसरे पाकिस्तान से आई खबर कि हाफिज़ सैय्यद और मसूद अज़हर के गुर्गे आई.एस.आई. के भरोसे कश्मीर में दहशत फैलाने का कुकर्म करने वाले हैं, उसे भी रोकना है। कश्मीर को जो लोग दु:ख की घाटी बनाए रखने को कुर्सी की कुंजी समझते हैं, उन्हें समझ लेना चाहिए कि ‘मर्सिया’ गाने वाले लोग खुशी के गीत नहीं गा सकते। सियासतदान की नज़र हमेशा भविष्य पर होती है। राजनीति का धर्म भी यही है कि राजनेता की सोच दूसरों से अलग होनी चाहिए, जिससे अतीत के जख्म भर जाएं और भविष्य में सुनहरी सूर्य का प्रकाश फैले। क्या महबूबा जी कुछ ऐसा कर पाईं? भाजपा के नेतृत्व ने उनके साथ मिल कर सरकार बनाई थी। अढ़ाई-तीन साल चली भी। उसी दौरान इन्होंने पत्थरबाज़ों को रिहा करवाया और आतंकवादियों की मृत्यु के पश्चात् जिनमें बुरहान वानी भी था, उसके परिजनों को धन राशि भी दी। ऐसा दुस्साहस भाजपा के नेतृत्व ने सहन किया। 
किसी ने कहा है कि दूरदर्शी नेता ऐसे फैसले हमेशा बच कर करते हैं, परन्तु महबूबा जी शासन-प्रशासन में अपनी बुद्धिमता और नेतृत्व का कोई उल्लेखनीय कार्य करके नहीं दिखा सकी। अब विधानसभा का चुनाव कश्मीर के द्वार पर दस्तक देने वाला है, उसके लिए ऐसे भड़काऊ भाषण क्या सफलता दिला पायेंगे? इसमें संदेह है। अब भारत की विदेश नीति बिल्कुल बदल चुकी है। उड़ी और पुलवामा की घटनाओं के पश्चात् पाकिस्तान को उसकी औकात बता दी गई। हुर्रियत के नेताओं के दिन लद चुके हैं, इसलिए बातचीत यदि भारत सरकार ने करनी है तो कश्मीर के लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले लोगों से ही की जानी चाहिए। महबूबा जी से हमारा केवल इतना कहना है कि आज कश्मीर की जनता के हितों के लिए जो बेहतर है कीजिए और उगलती भाषा पर नियंत्रण रखिए।