निराशा के आलम में गुज़र रही है कांग्रेस

श्रीमती सोनिया गांधी के पुन: कांग्रेस का अंतरिम अध्यक्ष चुने जाने से कई तरह के सवाल खड़े हुए हैं। पहला है कि यह  राष्ट्रीय पार्टी विगत लम्बे समय से एक परिवार के प्रभाव में ही विचरती रही है। दूसरा यह कि कोई स्पष्ट नीति धारण न कर सकने के कारण यह अंधेरे में ही हाथ-पांव मार रही है। तीसरा यह कि बड़ी सीमा तक इस समय यह निराशा के दौर से गुज़र रही है। चौथा यह कि इसकी डगमगाती नैया से अनेक सवार कूदने लगे हैं। पार्टी का इतिहास बहुत लम्बा है। इसने अनेक तरह के उतार-चढ़ाव देखे हैं। बहुत लम्बे समय तक देश का शासन चलाया है। देश की राजनीति पर भी इसका बड़ा प्रभाव बना रहा है, परन्तु आज जिस तरह यह दयनीय स्थिति से गुज़र रही है, वह शायद पहले बहुत कम देखने को मिली है। लोकसभा चुनावों में इसको निराशाजनक हार का मुंह देखना पड़ा। राहुल गांधी जिनको सोनिया गांधी के इशारे पर पार्टी अध्यक्ष बनाया गया था, ने चुनाव मुहिम में पूरा ज़ोर लगाया परन्तु राजनीतिक मंच पर वह अपना ठोस प्रभाव बना सकने से असमर्थ रहे। चुनावों के दौरान उनके द्वारा उठाये गये नुक्ते काट नहीं कर सके। उनके नेतृत्व में कांग्रेस की चुनाव मुहिम योजनाबद्ध और प्रभावशाली दिखाई नहीं दी। दूसरी तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में चुनाव मुहिम शिखर पर पहुंच गई। चाहे अनेक कारणों से इस पर किन्तु-परन्तु किये गये, पार्टी की नीतियों की आलोचना भी की गई, परन्तु देश का बड़ा जन-समूह भावनात्मक तौर पर मोदी के साथ जुड़ा दिखाई दिया। अपने प्रथम कार्यकाल में प्रधानमंत्री के तौर पर वह चाहे देश को दरपेश समस्याओं का सही निपटारा कर सकने से असमर्थ रहे, परन्तु इसके बावजूद इस समय के दौरान मोदी द्वारा लिए गए साहसिक फैसलों का जन-मानस पर प्रभाव अवश्य पड़ा। इस चुनाव मुहिम ने सिर्फ कांग्रेस को ही नहीं अपितु अन्य विपक्षी पार्टियों को भी एक तरह से चित्त करके रख दिया। चुनाव जीतने के बाद अब तक भी जन-झुकाव उनकी तरफ हुआ दिखाई देता है। उनके द्वारा लिए गए फैसलों पर देश का बहु-संख्यक समाज मोहर लगाता नज़र आया है। ऐसी दशा में कांग्रेस की आंतरिक स्थिति और भी बिखरती जा रही है। एक तरह से वह दिशाहीनता में विचर रही है। राहुल गांधी ने लोकसभा चुनाव में निराशाजनक हार के बाद अपने पद से इस्तीफा दे दिया था, परन्तु पार्टी का आंतरिक बिखराव और बिखरी सोच कोई ठोस परिणाम निकाल सकने में असमर्थ रही। यह बात बेहद दयनीय भी कही जा सकती है कि एक बड़ी राष्ट्रीय पार्टी लम्बे समय तक अपने अध्यक्ष संबंधी भी किसी परिणाम पर नहीं पहुंच सकी। इस समय के दौरान अनेक ही आंकलन लगाये जाते रहे। कई परिपक्व और वरिष्ठ नेताओं के इस पद के लिए नाम भी सामने आये। कई युवा नेताओं पर भी नज़रें टिकाने का प्रयास किया गया, परन्तु कोई बात भी निखर कर सामने नहीं आ सकी। सोनिया गांधी को पुन: अध्यक्ष बनाना पार्टी की आंतरिक कमज़ोरी को ही ज़ाहिर करता है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के प्रशासन के 10 वर्ष के कार्यकाल में सोनिया गांधी ने गठबंधन सरकार के लिए प्रशासन से बाहर रहते हुए भी अच्छी तरह से कमान सम्भाले रखी, परन्तु वह भी पुत्र मोह से नहीं बच सकीं। यही कमज़ोरी इंदिरा गांधी में भी देखी जा सकती थी। नि:संदेह परिवारवाद ने राजनीति की लगामों को खींचे रखा है। कांग्रेस की कमज़ोरियों और कमज़ोर नीतियों का लाभ भाजपा को मिला है, जिसने मोदी के नेतृत्व में कई बड़े फैसले लिए हैं। आगामी समय में सोनिया गांधी पार्टी की लड़खड़ाती नैया को कैसे स्थिर कर सकेंगी और इसके ढांचे में किस तरह मज़बूती ला सकेंगी, यह देखने वाली बात होगी क्योंकि पार्टी के तरकश में तीर खत्म हो गये प्रतीत होते हैं।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द