चेहरे की पहचान कहीं सुरक्षा की बजाय निगरानी न बन जाए

कल्पना कीजिए कि आप दिनभर अपने ऑफिस में गुजारने के बाद पैदल घर लौट रहें हैं। रास्ते में भीड़ भरा बाजार है। जहां हाल-फिलहाल में लूट-पाट की अनेक वारदातें हुई हैं, जिस वजह से कानून लागू करने वाली एजैंसियां यहां पैनी निगाह रखे हुए हैं। इस सबकी आपको कोई चिंता नहीं है-होनी भी क्यों चाहिए? आप तो अपने घर जाने के लिए यहां से सिर्फ गुजर भर रहे हैं। लेकिन चूंकि ए.एफ.आर.एस. व सी.सी.टी.वी. संदिग्ध अपराधियों को पकड़ने के लिए हरकत में हैं, इसलिए यहां एक कहानी पैदा होती है।  इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि अपराध व असुरक्षा में हो रही वृद्धि के कारण अपने देश में भी ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है जो टैक्नोलॉजी में इनके समाधान तलाशने के पक्ष में हैं। जिस तरह लोग बड़ी तादाद में अपने घरों, कॉलोनियों, मोहल्लों आदि में सी.सी.टी.वी. कैमरा इंस्टॉल करा रहे हैं, उससे भी इसी निष्कर्ष को बल मिलता है, खासकर इसलिए भी कि अब सरकार ने भी ऑटोमेटेड फेशियल रिकग्निशन सिस्टम (ए.एफ.आर.एस.) का प्रस्ताव रखा है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एन.सी.आर.बी.) ने जो ए.एफ.आर.एस. के लिए टैंडर निकाला है, उससे मालूम होता है कि एक ऐसी व्यवस्था विकसित करने का प्रयास है जो ‘देश के विभिन्न पुलिस संगठनों व ईकाइयों में अपराधियों की पहचान, सत्यापन और उसके प्रचार में सक्षम हो’। अब जब जगह-जगह सी.सी.टी.वी. लगाए जा रहे हैं तो यह प्रश्न स्वाभाविक है कि इनका ए.एफ.आर.एस. की पूर्णता से क्या संबंध है? दूसरे शब्दों में यह किस तरीके से काम करेगा? गौरतलब है कि हाल ही में दिल्ली राज्य सरकार ने 1.4 लाख सी.सी.टी.वी. कैमरा कमीशन व इंस्टॉल किए हैं। अन्य शहरों में भी यही सिलसिला जारी है। स्थानीय बाजार में आप जितनी बार कैमरा के सामने से गुजरते हैं, सिस्टम प्रभावी पुष्टि करता है कि आपका चेहरा किसी संदिग्ध अपराधी से मैच नहीं करता है। हर उस व्यक्ति की तरह जो कैमरा के सामने से गुजरता है, उसी की तरह आपके चेहरे का भी विस्तृत नक्शा बन जाता है-आपके फीचर रिकॉर्ड हो जाते हैं, मापन व मैपिंग के साथ। कैमरा जब आपको स्कैन करता है और ए.एफ.आर.एस. सिस्टम आपका फेशियल मैच करता है तो आपको राहत व सुरक्षा का एहसास होता है। यह महसूस करने वाले आप अकेले नहीं हैं, लगभग हर व्यक्ति को यही एहसास होता है। हालांकि सहज स्तर पर लोग यही महसूस करते हैं, लेकिन इस प्रकार की राहत व सुरक्षा के अनुमानित लाभ दुर्भाग्य से थ्योरी में भी सत्य नहीं हैं। ए.एफ.आर.एस. का प्रयोग टैक्नोलॉजिकल वस्तुपरकता की परत तो उपलब्ध कराता है, लेकिन बिना अपनी अनुमानित क्षमता की पूर्ति किए। जबकि साथ ही सामाजिक मान्यताओं के आधार पर पुलिसिया निजाम के लिए मार्ग प्रशस्त करता है। यह व्यवस्था भरोसेमंद नहीं है। यह आप पर निगरानी रखती है और आपको श्रेणीबद्ध करती है। जबकि इसके सही परिणाम देने पर अनेक प्रश्न हैं। आप विश्वास से यह नहीं कह सकते कि यह व्यवस्था आपके बारे में क्या निष्कर्ष निकालेगी?एक अन्य सवाल यह भी है कि ए.एफ.आर.एस. का व्यक्तिगत प्राइवेसी पर क्या प्रभाव पड़ेगा? हमारी बहुत-सी हरकतें या व्यवहार कानूनी दृष्टि से तो वैध होती हैं लेकिन उन्हें विकृत समझ लिया जाता है। मसलन, नुक्कड़ की चाय की दुकान पर मॉर्निंग वाक के बाद दोस्तों के साथ बैठकर नॉन-वैज जोक्स सुनना व हंसना कानूनन अपराध नहीं है, लेकिन ऐसा करते समय अगर कोई ऐसा व्यक्तिआपको देखे जो आपको ‘सभ्य व शरीफ’ समझता है और आपके बारे में अलग ही धारणा बना ले, तो आपके मन में ‘लोग क्या कहेंगे’ का डर बैठ जाता है। नतीजतन आप अपने शब्दों व एक्शंस को स्वयं ही सैंसर करने लगते हैं। इसे ‘चिल्लिंग इफैक्ट’ कहते हैं। सी.सी.टी.वी. व ए.एफ.आर.एस. के होने से ‘चिल्लिंग इफैक्ट’ का खतरा बढ़ जाएगा। हां, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि इससे अनुशासन भी आ जाएगा, मसलन आप किसी चीज की लाइन में खड़े हैं तो लाइन तोड़कर आगे लगने का प्रयास नहीं करेंगे। लेकिन यह भी तथ्य है कि सार्वजनिक स्थलों पर मिश्रित सामाजिक व आर्थिक सत्यता होती है और यह व्यक्तिगत व्यवहार को पुलिस करने का तरीका बन सकता है। युवा जोड़ों के लिए सार्वजनिक स्थलों जैसे कॉलोनी के पार्क में भी अपने प्रेम का इजहार करना कठिन हो जाएगा... इन वास्तविक सम्भावनाओं को अनदेखा नहीं किया जा सकता। सार्वजनिक स्थलों पर इस टैक्नोलॉजी के प्रयोग की उपयोगिता का अध्ययन आवश्यक है। फिलहाल इसका प्रयोग बिना किसी कानूनी फ्रेमवर्क, नीति व सुरक्षा कवच के लिए किया जा रहा है और प्राइवेसी पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को भी अनदेखा किया जा रहा है, जिससे सार्वजनिक स्थल सामाजिक निगरानी के क्षेत्र बनते जा रहे हैं। निगरानी सुरक्षा का पर्याय तभी बन सकती है जब व्यक्तिगत स्वायत्तता पर निरंतर कर्फ्यू हो। यह धारणा गलत है कि सार्वजनिक स्थलों में प्राइवेसी सुरक्षा निराधार है। बहरहाल, इसके विपरीत एक अन्य राय यह भी है कि सी.सी.टी.वी. व ए.एफ.आर.एस. की निगरानी व्यवस्था से कम से कम सुरक्षा का भावनात्मक एहसास तो होता है, लोगों में खुद को अनुशासित करने की ललक उत्पन्न होती है, भले ही यह भय से हो.... इसके लिए अगर सार्वजनिक स्थलों पर प्राइवेसी के अधिकार को कुर्बान करना पड़े तो क्या फर्क पड़ता है? ए.एफ.आर.एस. के प्रयोग पर दो प्रमुख राय हैं, एक के अनुसार यह निजता में हस्तक्षेप है और दूसरी के मुताबिक राहत व सुरक्षा का एहसास प्रदान करती है। यह बहस तो जारी रहेगी लेकिन यह टैक्नोलॉजी कितनी प्रभावी व सही है इसका गहन अध्ययन जरूरी है कि कहीं समाधान से अधिक समस्याएं उत्पन्न न हो जाएं।