अब कैसा स्वर्ग बनेगा कश्मीर ?

कश्मीर पर चौतऱफा चल रहा बहुआयामी विमर्श और विश्लेषण अचरज में डाल रहा है। पहले कभी सोचा भी नहीं था कि इस मसले के इतने पहलू निकल आएंगे। एक तरह से सभी तर्क किसी न किसी रूप में और किसी न किसी डिग्री तक संभावनापूर्ण नज़र आ रहे हैं। दरअसल, पहले तो एक ही बात समझ में आती थी कि कश्मीर से धारा 370 या तो हटाई नहीं जा सकती, और अगर हटाने का मन भी बनाया गया तो वह बहुत मुश्किल और अंदेशों भरी कार्रवाई होगी जिसके फलितार्थ विनाशकारी भी हो सकते हैं। यानी धारा 370 हटाने का मतलब समझा जाता था एक तरह की राजनीतिक कयामत। इसी समझ का अगला अंश यह था कि कश्मीर समस्या का समाधान केवल पाकिस्तान को एक पक्षकार बना कर उसे विश्वास में लेकर ही किया जा सकता है। इसी तऱीके के एक बेहतर उदाहरण के रूप में जनरल परवेज़ मुशर्ऱफ और डा. मनमोहन सिंह के बीच में हो सकने वाले उस समझौते को पेश किया जाता था जो पाकिस्तानी राजनीति के भीतरी संकट (जिसके कारण मुशर्ऱफ को पाकिस्तान छोड़ना पड़ा) के कारण परवान नहीं चढ़ पाया। मोदी सरकार के ऐतिहासिक कदम के बाद यह प्रचलित समझ बदल गई है। जो नये तर्क सामने आ रहे हैं वे मुख्य तौर पर इस प्रकार हैं। पहला तर्क यह है कि भारत का विभाजन उत्तर-पश्चिम और पूर्व के मुस्लिम बहुमत वाले इल़ाकों के पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान में बदलने के ज़रिये हुआ था। केवल कश्मीर ही एक ऐसा मुस्लिम बहुसंख्या का इल़ाका था जिसे नेहरू ने तरह-तरह की युक्तियां अपना कर भारत की तऱफ खींच लिया। उन्होंने यह काम धारा 370 के ज़रिये किया, और वे चाहते थे (एक बार कहा भी था) कि यह धारा धीरे-धीरे घिस जाएगी (पिछले सत्तर साल में बहुत से केंद्रीय कानून और केंद्र का संस्थागत प्रभुत्व, जैसे चुनाव आयोग और सीएजी वगैरह, कश्मीर पर लागू होने लगे थे जिससे यह धारा कमज़ोर हुई थी) और इस तरह से कश्मीर पूरी तरह से भारत में समरस हो जाएगा। उस समय जम्मू में भी मुसलमान बहुसंख्या थी, लेकिन कांग्रेस के शासनकाल में वहां धीरे-धीरे हिंदू जनसंख्या बढ़ती गई, और इस समय वहां हिंदुओं के म़ुकाबले मुसलमान केवल चालीस फीसदी ही रह गए हैं। यानी कांग्रेसी डिज़ायन में जम्मू-कश्मीर के एक हिस्से में आबादीमूलक परिवर्तन करने की युक्ति भी कहीं न कहीं शामिल थी। यह तर्क इससे और भी आगे जा कर दावा करता है कि भाजपा सरकार ने जो किया है, वह नेहरू और इंदिरा द्वारा एक मुस्लिम बहुसंख्या वाले इल़ाके को भारत में बनाये रखने के पुराने कार्यभार को ही पूरा करने की तऱफ निर्णायक कदम उठाया है।  एक दूसरा तर्क यह है कि जब भाजपा ने पीडीपी के साथ गठजोड़ सरकार बनाई थी, उस समय उसके दिम़ाग में धारा 370 हटाने की बात नहीं हो सकती थी (बावजूद इसके कि उसके घोषणा-पत्र में शुरू से ही इस धारा को हटाने का वायदा दर्ज था)। उस समय तक वह इस धारा के घिसते रहने की परिस्थितियां तैयार करने की कांग्रेसी नीति पर ही चल रही थी। फिर उसे अचानक अपने घोषणा-पत्र के वायदे की याद कैसे आई? ध्यान रहे कि नब्बे के दशक में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़ बनाने के लिए भाजपा ने अपने इस वायदे को सुविधापूर्वक ठंडे बस्ते में डाल दिया था ताकि गैर-साम्प्रदायिक पार्टियों के लिए वह अछूत न रह जाए। मोदी ने भी अपने दोनों चुनाव इस धारा को हटाने के वायदे पर केंद्रित करके नहीं जीते थे। यानी यह धारा हटाना मोदी के लिए पहली नज़र में राजनीतिक रूप से ज़रूरी नहीं लग रहा था। फिर, अगर धारा 370 हटाना ही था तो उसे पंद्रह अगस्त यानी रक्षाबंधन के बाद अमरनाथ यात्रा पूरी होने के बाद भी हटाया जा सकता था। उसके लिए स़िर्फ दस-बारह दिन ही तो इंतज़ार करना था। अचानक बिना देर किये और जल्दबाज़ी में यह धारा हटाने का ़फैसला क्यों किया गया? इसके जवाब में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के विद्वानों ने एक गौर करने लायक त़फसील पेश की है। उनका कहना है कि पिछले एक महीने में कश्मीर समस्या का तेज़ी के साथ अंतर्राष्ट्रीयकरण हुआ था। इस प्रक्रिया की चालक-शक्ति अमरीका द्वारा अ़फगानिस्तान से बाहर निकलने के लिए लिया गया पाकिस्तानी सहयोग में निहित थी। डोनाल्ड ट्रम्प जो पहले पाकिस्तान को एक धोखेबाज़ और झूठा राष्ट्र करार देकर उसकी आर्थिक और सैनिक मदद पर रोकें लगाने की तऱफ जा रहे थे, अचानक पाकिस्तान के साथ गलबहियां डाले नज़र आने लगे थे। चीन पहले से पाकिस्तान की तऱफ झुका हुआ था और है। ट्रम्प ने कश्मीर पर मध्यस्थता करने की इच्छा व्यक्त करके भारत में बेचैनियां पैदा कर दी थीं। तालिबान, अमरीका और पाकिस्तान के बीच होने वाली बातचीत में भारत की कोई भूमिका नहीं थी, और न ही हो सकती थी। अमरीका को लग रहा था कि अ़फगानिस्तान के युद्ध से हाथ धोने में केवल पाकिस्तान ही उसकी मदद कर सकता है। एक तरह से देखा जाए कि बुश जूनियर द्वारा मनमोहन सिंह सरकार के साथ की गई परमाणु संधि के बाद यह पहला म़ौका था जब पाकिस्तान अमरीका के दाएं हाथ पर दिख रहा था। भारत के लिए यह बेहद चिंता की बात थी। अगर कश्मीर पर अमरीका, पाक और चीन की तिकड़ी बन जाती (जो तेज़ी से बनती जा रही थी) तो भारत इस नाज़ुक मसले पर एशिया में अलग-थलग पड़ सकता था। यही था वह मुख्य दबाव जिसने भाजपा को याद दिलाया कि उसका वायदा तो धारा 370 हटाने का था। ऐसा करके वह कश्मीर के मसले पर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय समीकरणों को पूरी तरह से बदल सकती है। इसीलिए जब हर कोई केवल यह समझ रहा था कि भाजपा ज़्यादा से ज़्यादा धारा 35-ए के साथ कुछ छेड़छाड़ करेगी, सरकार ने वह कर दिखाया जो किसी ने सोचा भी नहीं था। अंदरूनी जानकारी रखने वाले जानते हैं कि काबिना के वरिष्ठ मंत्रियों को भी यह जानकारी नहीं थी। पार्टी के प्रवक्ता भी सोमवार की सुबह इस घटनाक्रम से हैरत में थे। नतीजा ठीक वैसा ही निकला जैसा भारत को उम्मीद थी। पाकिस्तान में टीवी चैनलों ने चलाया कि ट्रम्प के लाल गाल पर मोदी ने इतनी ज़ोर से चांटा दिया है कि पांचों उंगलियां उछर आई हैं। बहरहाल, अब गेंद पूरी तरह से केंद्र सरकार के पाले में है। वह कहे कुछ भी, पर उसे पता है कि 1989 में शुरू हुआ आतंकवाद धारा 370 की देन नहीं है। न ही इस धारा ने कश्मीर के विकास में रुकावट पैदा की थी। वहां पहले से ही राज्यपाल शासन था, और केंद्र को ‘ईमानदार’ राज्यपाल की देखरेख में कश्मीर को एक आर्थिक पैकेज देने से कोई नहीं रोक सकता था। ज़ाहिर है कि अब उसके पास कोई बहाना नहीं है। अमित शाह ने वायदा किया है कि वे वास्तव में कश्मीर को स्वर्ग बनाएंगे। वह स्वर्ग कैसा होगा? वैसा जैसा चीन ने तिब्बत को बनाया है, या इज़राइल ने फिलिस्तीन को बनाया है या कश्मीर एक लोकतांत्रिक स्वर्ग होगा?