आज़ादी की मूल भावना को समझें

हर वर्ष की भांति 15 अगस्त का दिन कैलेंडर की घूमती तारीख की तरह एक फिर सामने है, जहां सरेआम लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाने वाले कुछ जनप्रतिनिधि हर साल स्वतंत्रता के प्रतीक तिरंगे के नीचे खड़े होकर देश की रक्षा एवं प्रगति का संकल्प लेते हैं। आज़ादी के इन 72 वर्षों में लोकतंत्र के पवित्र स्थल संसद एवं विधानसभाओं के हालात किस कदर बदले हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। अभद्रता की सीमा पार करते हमारे जनप्रतिनिधि गाली-गलौच, उठापटक से लेकर कुर्ता-फाड़ की राजनीति तक उतर आते हैं। राजनीति की भाषा का स्तर दिन-ब-दिन घिनौना होता जा रहा है। इस बार के स्वतंत्रता दिवस का जश्न मनाने से चंद दिनों पहले जिस प्रकार मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर को सही मायनों में आज़ादी दिलाई है, वह अपने आप में बेमिसाल कदम है।
दरअसल आज देश के हालात कुछ ऐसे हैं, जहां कमोबेश हर राजनीतिक दल में ऐसे नेताओं की भरमार है, जिनकी भूमिका प्राय: राजनीति के नाम पर अपने स्वार्थ की रोटियां सेंकने तक ही सीमित रहती है। वर्षों की गुलामी के बाद मिली आज़ादी को हम किस रूप में संजो कर रख पाए हैं, यह सभी के सामने है। आज़ादी के दीवानों ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि जिस देश को आजाद कराने हेतु वे इतनी कुर्बानियां दे रहे हैं, उसकी यह दुर्दशा होगी और आज़ादी की तस्वीर ऐसी होगी।   आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी जब कहीं ‘सैयां भये कोतवाल तो डर काहे का’ कहावत चरितार्थ होती दिखती है तो मन मायूस हो जाता है। बच्चियों व महिलाओं के साथ हो रहे अपराधों के बढ़ते मामले आज़ादी की बड़ी शर्मनाक तस्वीर पेश करते हैं। देश में महंगाई सुरसा की तरह बढ़ती जा रही है। आतंकवाद की घटनाएं पग पसार रही हैं। आरक्षण की आग देश को जला रही है, इस तरह के हालात निश्चित तौर पर देश के विकास के मार्ग में बाधक बने हैं। अगर कभी आतंक के खिलाफ  कड़े कदम उठाने की पहल होती है तो उन कदमों का सत्ता के ही गलियारों में कुछ लोगों द्वारा पुरजोर विरोध किया जाने लगता है। 
आज़ादी के सात दशकों बाद भी भ्रष्टाचार एवं अपराध का आलम यह है कि आम आदमी का जीना दूभर हो गया है। प्रशासन में बगैर लेन-देन के आज भी कोई काम सम्पन्न नहीं होता। बड़े नेताओं की कौन कहे, छुटभैया नेताओं की भी चांदी हो चली है। आज़ादी के बाद लोकतंत्र के इस बदलते स्वरूप ने आज़ादी की मूल भावना को बुरी तरह तहस-नहस कर डाला है। यह आज़ादी का एक शर्मनाक पहलू है कि हत्या, भ्रष्टाचार, बलात्कार जैसे संगीन अपराधों से विभूषित जन-प्रतिनिधि अक्सर सम्मानित ज़िन्दगी जीते रहते हैं। देश के ये बदले हालात आज़ादी के कौन से स्वरूप को उजागर कर रहे हैं, यह विचारणीय मुद्दा है। लोकतंत्र के हाशिये पर खड़ी देश की जनता को इस दिशा में फिर से मंथन करना आवश्यक हो गया है कि वह किस तरह की आज़ादी की पक्षधर है? 
आज़ादी के इस पावन पर्व पर सभी देशवासियों को इस तरह के परिवेश पर सच्चे मन से मंथन कर सही दिशा में संकल्प लेने की भावना जागृत करनी होगी,आज़ादी की मूल भावना को समझते हुए स्वयं ही यह तय करना होगा कि हम आखिर किस प्रकार की आज़ादी के पक्षधर हैं,—आज़ादी के नाम पर उच्च शृंखलता, मनमर्जी चलाते रहने की स्वतंत्रता या कुछ कड़े कदमों के सहारे ही सही, आने वाले समय में देश की मूल समस्याओं से आज़ादी?