कांग्रेस की फिसलती कमान को सोनिया का सहारा

हम यह नहीं कहते कि पुरानी पार्टी एक बार फिर पुराने ढर्रे पर। परन्तु एक बात तो जग-जाहिर है कि चुनाव को तीन महीने बीत जाने पर कांग्रेस को नया प्रधान न मिल सका। यह भी हकीकत है कि राहुल गांधी ने पराजय की ज़िम्मेदारी लेते हुए जब त्याग-पत्र दिया तब यह बात भी खुल कर कही थी कि अब गांधी परिवार से किसी को प्रधान न बनाया जाए, जबकि लोग प्रियंका गांधी वाड्रा को इस पद पर आसीन होने की बात कह रहे थे। उन्होंने भी अपने भाई की भावना का सम्मान करते हुए कांग्रेस प्रधान बनने से इन्कार कर दिया। फिर कार्यकारी कमेटी की मीटिंग बुलाई गई। कुछ नामों की चर्चा भी हुई, जिनमें मुकुल वासनिक और मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम सामने आया। एक बात तो जग-जाहिर है कि कांग्रेस में गांधी परिवार के अतिरिक्त कोई भी किसी को आगे नहीं आने देता, इसीलिए जितने भी नेतागण कांग्रेस की बागडोर संभालने के लिए हाथ-पांव मार रहे थे, सभी ताकते रह गए और श्रीमती सोनिया गांधी को अंतरिम प्रधान बना लिया गया। हम मानते हैं कि 2019 के लोकसभा चुनाव में किसी भी कांग्रेसी नेता को कोई आंच नहीं आई, तब भी श्रीमती सोनिया गांधी उत्तर प्रदेश के चुनाव में खड़ी तो थी रायबरेली से परन्तु उन्होंने चुनाव मेें सक्रिय भूमिका नहीं निभाई। कारण कुछ भी रहा हो, हालात यह हैं कि जितने मुंह उतनी बातें। हम फिजूल के विवाद में उलझना नहीं चाहते, फिर भी कांग्रेस के नेतागण कांग्रेस के बारे में कितने संजीदा हैं, यह कार्यकारिणी की मीटिंग से ज़ाहिर हो गया। मणिशंकर अय्यर हो अथवा दिग्विजय सिंह, शशि थरूर हो अथवा सुरजेवाला सभी अपने बड़बोलेपन की वजह से कांग्रेस के प्रधान पद को ललचाई नज़रों से देखे जाते हैं। कहने वाले तो यहां तक कहते हैं कि सोनिया गांधी मजबूरी में प्रधान बनीं हैं। उसके पीछे यह मकसद रहा कि नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच समन्वय बिठाना इस समय बहुत आवश्यक हो गया था। कांग्रेस के लोगों में गांधी परिवार का बहुत गहरा प्रभाव है, होना भी चाहिए परन्तु जब से सोनिया गांधी ने कांग्रेस अध्यक्षा की ज़िम्मेदारी संभाली है तब से मतदाताओं ने उन्हें भरपूर समर्थन नहीं दिया। सन् 2004 से सन् 2014 तक दस वर्ष कांग्रेस सत्तासीन रही परन्तु गठबंधनों के रहमो-करम पर। पुरानी पार्टी का यह प्रभाव धीरे-धीरे मतदाताओं में से खिसकता गया और सन् 2014 में कांग्रेस बहुत नीचे तक फिसल गई। सियासी तिकड़म की चाल बेढंगी रही। समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, तृणमूल कांग्रेस जैसी प्रादेशिक पार्टियां भी इनके साथ गठजोड़ करने से कभी कतराने लगीं। 
पाठकवृंद एक बात हम और बता दें कि सन् 1980 को वह वर्ष कहा जा सकता है जिसने दर्जनों प्रादेशिक पार्टियों को जन्म दिया। जनता पार्टी बिखरी तो ऐसा लगा कि सियासी नेताओं की राजनीति की नींव ही हिल गई। कोई इस पार्टी में तो कोई उस पार्टी में। पांच-छ: जनता दल बन गए और उनकी देखा-देखी विकास पार्टियां भी उभर आईं। कांग्रेस में यदि प्राण होते तो इन नेताओं को अपने घेरे में लाकर एक शक्तिशाली दल बना सकती थी परन्तु अहमद पटेल और अम्बिका सोनी जैसे नेताओं ने ताना-बाना उलझाए रखने में अपनी सियासत को जिंदा रखा। आज कांग्रेस की हालत यह है कि उत्तरी भारत में पंजाब, राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ को छोड़ कहीं भी कांग्रेस नज़र नहीं आती। इनमें राजस्थान और मध्यप्रदेश के नेतागण अशोक गहलोत और कमलनाथ सत्ता की हिलती कुर्सी को संभालने में जुटे रहते हैं। वे कांग्रेस के भविष्य के बारे में कोई चिंता नहीं कर सकते। दिग्विजय सिंह की पराजय ने उन्हें कमज़ोर कर दिया। एक साध्वी ने उन्हें ऐसी हार दी कि वह शालीनता की भाषा से दूर जाते देखे गए। यदि कांग्रेस हिम्मत करके किसी नौजवान को अध्यक्ष का पद सौंप देती, जिनमें सचिन पायलट और ज्योर्तिरादित्य सिंधिया के नाम सामने आ रहे थे तो हो सकता है मतदाताओं की नई पीढ़ी कांग्रेस के समर्थन में जोश-खरोश से शामिल हो जाती।  हमारे देश की राजनीति की यही विडम्बना है कि आखिरी सांस तक कुछ लोग कुर्सी से चिपके रहना पसंद करते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए। भाजपा ने एक बात तो देश के सामने रखी कि 75 वर्ष की आयु तक ही कोई राजनेता चुनाव में उतरेगा और इससे अधिक आयु वाला नेता पार्टी के किसी महत्वपूर्ण पद पर नहीं बैठेगा। तभी तो श्री लाल कृष्ण अडवानी और मुरली मनोहर जोशी जैसे अनुभवी नेता हाशिये पर खिसका दिए गए। कांग्रेस ऐसा क्यों नहीं कर सकती? वही सोनिया गांधी, वही मोती लाल वोहरा और डा. मनमोहन सिंह थके-थके नेता कांग्रेस में जोश कैसे भर सकेंगे? हम तो-तीन अन्य नेताओं की बात करना उचित समझते हैं। स्वर्गीय इन्द्र कुमार गुजराल ने सन् 2004 में चुनाव लड़ने से इन्कार कर दिया था परन्तु मुलायम सिंह और एच.डी. देवगौड़ा पिछली लोकसभा में भाषण देते समय यह कह गए थे कि वे अब चुनाव नहीं लड़ेंगे परन्तु हुआ इसके विपरीत। दोनों ने चुनाव में उतरना ठीक समझा। मुलायम सिंह तो जीत गए परन्तु गौड़ा जी जो पूर्व प्रधानमंत्री थे, पराजित हो गए। यह राजनीति के लिए कोई शुभ शगुन नहीं कहा जा सकता। चुनाव न लड़ते तो सम्मान अधिक होता। श्रीमती सोनिया गांधी भी किसी यूथ को अध्यक्ष का पद अभी सौंप देती तो यह उम्मीद का नया उजाला ही समझा जाता। जो बीत गई तो बात गई, हम इससे अधिक कांग्रेस की राजनीति पर कुछ कहना उचित नहीं समझते। कांग्रेस को यदि कोई और तजुर्बे करने हों तो ज़रूर करे क्योंकि यह उसके लिए चुनौतियों से भरा दौर चल रहा है। इस समय कांग्रेस को फूंक-फूंक कर कदम बढ़ाना चाहिए और सोच-समझ कर नेताओं को बोलना चाहिए। मीडिया में सूरत दिखाने के लालच में बेतुकी बातें करने से बचना होगा। यही हम पी.चिदम्बरम और गुलाम नबी आज़ाद जैसे जागरुक और महत्वपूर्ण व्यक्तित्व के स्वामियों से कहना चाहते हैं कि वे खुद भी संभलें और ऐसी मिसाल भी कायम करें कि कांग्रेस के अन्य नेता और कार्यकर्ता अकारण आस्तीने चढ़ाते न देखे जाएं।