मोदी को मुखर्जी की याद क्यों नहीं आई ?

कश्मीर पर पाकिस्तान की अंतर्राष्ट्रीय चुनौती का ठीक से म़ुकाबला करने के लिए ज़रूरी है कि सरकार जल्दी से जल्दी वहां के हालात को सामान्य बनाने में सफलता हासिल करे। चीन पाकिस्तान के साथ कंधे से कंधा मिलाते हुए इस मसले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने के लिए तैयार हो गया है। शायद यही कारण है कि सरकार ने  हालात सामान्य बनाने की दिशा में कदम बढ़ाने की कोशिश तेज़ कर दी है। यह अलग बात है कि फिलहाल घाटी की तो छोड़ ही दीजिये, जम्मू में भी मीडिया, संचार और राजनीतिक गतिविधियों पर प्रतिबंध हटाने के लिए सरकार अगर एक कदम आगे उठाती है तो उसे दो कदम पीछे रखने पड़ते हैं। मुश्किलें बहुत हैं, और इतनी हैं कि उनका पूर्वानुमान लगाना ही मुश्किल है। यही कारण है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार पूरे दस दिन कश्मीर में बिताने के बाद दिल्ली लौट पाए हैं। प्रधानमंत्री भी इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं। वे यह भी जानते हैं कि विपक्षी दलों द्वारा की गई  आलोचना कमज़ोर होने और उनके बीच धारा 370 हटाने-रखने पर मतभेद होने के बावजूद अभी उस मोर्चे पर भी लड़ाई को पूरी तरह से जीता हुआ नहीं माना जा सकता। भाजपा और सरकार भले ही अपने बहुमत के कारण कितनी भी आत्मविश्वस्त दिखती रहे, पर स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से नरेंद्र मोदी के भाषण में उनके मन के अंदेशों को पढ़ा जा सकता है। पूरा भाषण सुनने के बाद मेरे सामने यह तुरंत स़ाफ हो गया कि प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राजनीति की मजबूरियों के चलते ही धारा 370 को हटाने के मामले में अपनी ही पार्टी की इससे संबंधित विरासत को ठंडे बस्ते में डालने के लिए तैयार हो गए हैं। उनकी कोशिश अपनी पार्टी की विरासत को नज़रअंदाज़ करके किसी न किसी प्रकार उप-निवेशवाद विरोधी आंदोलन के साथ इस कदम को जोड़ने की पॉलिटिकल इंजीनियरिंग करने की है। इसीलिए उन्होंने अपने डेढ़ घंटे के भाषण में एक बार भी श्यामा प्रसाद मुखर्जी का ज़िक्र नहीं किया। धारा 370 हटाने को उन्होंने ‘सरदार पटेल का सपना’ बताया। गृह मंत्री और अमित शाह समेत भाजपा के कई नेता भी संसद और सार्वजनिक मंचों से यह कहते रहे हैं कि पटेल और अम्बेडकर भी धारा 370 के पक्ष में नहीं थे। लेकिन, यह कहते हुए वे साथ में मुखर्जी को इसका मुख्य श्रेय देते रहे हैं। सही भी है, क्योंकि श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इसी मुद्दे पर संघर्ष करते हुए अपने प्राण दिये थे। लेकिन, प्रधानमंत्री ने ऐसा नहीं किया। मुखर्जी की भूमिका को पूरी से विस्मृत कर देना कोई गलती से किया गया काम नहीं था। मेरा मानना है कि प्रधानमंत्री ने यह जानबूझ कर किया है। शायद नरेंद्र मोदी यह समझते हैं कि मुखर्जी का ज़िक्र करने से धारा 370 वाला मामला जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी तक सीमित रह जाता है। अगर ़गैर-जनसंघी राजनीतिक हस्तियों की भूमिका को फोकस में लाया जाएगा तो इसे एक संकीर्ण विचारधारात्मक लक्ष्य के बजाय एक राष्ट्रीय लक्ष्य के रूप में पेश किया जा सकेगा। यहीं सवाल उठता है कि क्या विपक्षी दल प्रधानमंत्री को इस विरासत संबंधी इंजीनियरिंग करने की आसानी से इजाज़त दे देंगे? विपक्ष चाहे तो इस प्रश्न पर तथ्यों को सामने रख कर भाजपा और प्रधानमंत्री को कड़ी चुनौती दे सकता है। मसलन, यह बात आसानी से साबित की जा सकती है कि सरदार पटेल ने कश्मीर के भारत में विलय की प्रक्रिया को अंतिम रूप देने में नेहरू का विरोध करने के बजाय उनकी मदद की थी। यह सरदार पटेल ही थे जिन्होंने अपने राजनीतिक प्रभाव और सांगठनिक रुतबे का इस्तेमाल करके कांग्रेस के भीतर इस प्रश्न पर शीर्ष नेतृत्व को समझाया-बुझाया था। वरना, नेहरू इस प्रक्रिया को अपनी योजना के मुताब़िक नहीं चला सकते थे। दरअसल, देश की सभी बड़ी-छोटी रियासतों को नव-स्वतंत्र भारत में मिलाने वाले पटेल अच्छी तरह से जानते थे कि हैदराबाद और जूनागढ़ जैसी रियासतों को मिलाना एक अलग बात है, और कश्मीर का विलय कहीं दूसरी बात है। हैदराबाद का शासक मुसलमान था, पर प्रजा हिंदू बहुल थी। इसी तरह जूनागढ़ का शासक मुसलमान था, पर प्रजा मुख्य तौर पर हिंदू थी। इसके उलट कश्मीर का शासक हिंदू था, प्रजा मुस्लिम बहुल थी। नेहरू की नीति को पटेल का समर्थन मुख्य रूप से इसी पहलू के कारण था। यह ज़रूर है कि पटेल का यह समर्थन सौ ़फीसदी नहीं रहा होगा। उनकी तऱफ से कोई न कोई आंतरिक आलोचना अवश्य रही होगी। लेकिन, अगर वह आलोचना थी भी, तो उसका कोई दस्तावेज़ी प्रमाण हमारे सामने नहीं है। जहां तक अम्बेडकर की धारा 370 से नाराज़गी का सवाल है, तथ्य एक दम स़ाफ  हैं और उन्हें रिकॉर्ड पर देखा जा सकता है। बाबा साहेब के लिखित साहित्य और भाषणों को पूरी तरह से खंगालने के बाद भी कहीं ऐसा नहीं मिलता कि उन्होंने धारा 370 का विरोध किया हो (हालांकि उन्होंने स्पष्ट रूप से धारा 370 का समर्थन भी कभी नहीं किया)। यह सही है कि संविधान सभा में धारा 370 का प्रस्ताव उन्होंने पेश नहीं किया था (यह प्रस्ताव संशोधन के रूप में महाराजा हरी सिंह के दीवान रह चुके गोपाल स्वामी आयंगर ने पेश किया था)। इस संशोधन पर संविधान सभा में हुई बहस में कहीं भी अम्बेडकर कश्मीर को विशेष दर्जा देने का विरोध करते नहीं दिखते। लेकिन, साथ ही यह भी सही है कि वे किसी भी देशी रियासत को अन्य भारतीय राज्यों से अधिक अधिकार देने के विरोधी थे। वस्तुत: एक राष्ट्र-निर्माता के रूप में अम्बेडकर एक मज़बूत केंद्र का पक्ष लेते थे। उनकी चिंता थी कि अगर भारत की एकता-अखंडता सुरक्षित रखनी है तो राज्यों को ऐसा कोई अधिकार नहीं देना चाहिए जिससे वे केंद्र की प्रभुसत्ता पर कभी सवालिया निशान लगा सकें। लेकिन उन्होंने इस संबंध में कश्मीर को मिलने वाले विशेषाधिकार का विशेष रूप से कभी ज़िक्र नहीं किया था। भाजपा के नेता उनके जिस कथन का ज़िक्र करते हैं, वह दरअसल उनके नाम पर जनसंघ के नेता बलराज मधोक के एक कथन द्वारा चिपकाया गया है। संघ परिवार के अपने मुखपत्र में छपे इस कथन को अम्बेडकर का अधिकारिक कथन नहीं माना जा सकता। यह चर्चा करते हुए हमें एक बात कभी नहीं भूलनी चाहिए। कश्मीर, मुसलमानों और भारत-विभाजन पर अम्बेडकर के विचार उनकी प्रचलित सेकुलर और रैडिकल छवि से मेल नहीं खाते। कश्मीर पर उनकी राय थी कि उसका मुसलमान बहुल इल़ाका पाकिस्तान में चला जाना चाहिए, और बौद्ध (लद्दाख) व हिंदू बहुल क्षेत्र भारत में रह जाना चाहिए। ज़ाहिर है कि वे किसी भी मुस्लिम बहुसंख्या वाले क्षेत्र के भारत में बने रहने को भविष्य में आ सकने वाली मुश्किलों के आईने में देखते थे। ज़ाहिर है कि अम्बेडकर जैसी हस्ती को अपने पक्ष या विपक्ष में इस्तेमाल करने से हमारा वर्तमान राष्ट्रीय जीवन और पेचीदगियों में फंस सकता है।